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निरर्थक लालसाएं

एकदा
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एक बार सर आइज़क न्यूटन ने अपने कमरे में एक पंखा लगाया। उन्होंने लीवर और घिरनियों को कुछ इस तरह व्यवस्थित किया कि चूहे उसे चला सकें। एक दांतेदार पहिए के पास उन्होंने गेहूं के कुछ दाने इस प्रकार रखे कि वे पहिए की गति से प्रभावित न हों। जब चूहा एक दांत से दूसरे दांत पर कूदता, तो पहिया घूमता और पंखा चलने लगता, किंतु गेहूं के दाने अपनी जगह स्थिर रहते। मूर्ख चूहा यह समझता रहा कि अगली छलांग में दाने मिल जाएंगे, और बार-बार कूदता रहा। हर बार दाने पाने की आशा में छलांग लगाता रहा, लेकिन दुर्भाग्यवश, वह उन्हें कभी नहीं पा सका। ठीक इसी प्रकार, मनुष्य की सांसारिक आशाएं और आकांक्षाएं भी होती हैं। वे कभी पूरी नहीं होतीं, या यदि होती भी हैं तो संतुष्टि नहीं देतीं। जैसे वह चूहा दानों तक नहीं पहुंच पाया, वैसे ही इच्छाओं में डूबा मनुष्य भी सत्य से दूर ही रहता है। उसकी लालसाएं ही जीवन के ‘पंखे’ को निरंतर चलाती रहती हैं — एक अंतहीन दौड़ में।

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