अखिलेष आर्येन्दु
महर्षि दयानंद सरस्वती उस समय भारत की धरती पर अवतरित हुए जब ‘भारत भारतीयों का था और है’ कहने वाला कोई नहीं था। विदेशी गुलामी की जंजीरें इस कदर पूरे भारतीय जनमानस को जकड़ चुकी थीं कि अंधेरगर्दी, हिंसा, शोषण, क्रूरता एवं गुलाम बनाने वाले विचारों और कार्यों के विरुद्ध बोलना लगभग असंभव हो चुका था। दयानंद महर्षि ने एक साथ सभी तरह के अंधकारों, कुसंस्कारों, पाखंडों और कुरीतियों पर सीधे चोट की। गहन अंधकार को चीर कर वैदिक ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, शिक्षा, धर्म, संस्कृति, अध्यात्म और मूल्यवादी समाज दर्शन का सूत्रपात किया। इतना ही नहीं, महर्षि दयानंद ने वेदों के संबंध में पूर्व और पश्चिमी देशों में फैली भ्रान्तियों, भ्रमों, संदेहों, गलत धारणाओं को ही नहीं तोड़ा, बल्कि वेदों के जरिए ही उन्होंने यह साबित करके दिखा दिया कि यदि दुनिया वेदों के बताए रास्ते, कार्य, विचार, मंत्र और व्यवहार को समझ व मान ले तो हिंसा, नफरत, अन्याय, शोषण, क्रूरता, स्वार्थ, भ्रष्टाचार, व्यभिचार और हर तरह के अंधविश्वास व पाखंड दूर हो सकते हैं। यही वजह थी कि महर्षि दयानंद से शास्त्रार्थ करने वाले और उनके द्वारा पाखंड और अंधविश्वास के खंडन से चिढ़े लोग भी कहते थे, दयानंद जो कहते हैं वह ही अंतिम सत्य है, भले ही स्वार्थ की वजह से (हम) लोग स्वीकार न करें।
महर्षि दयानंद का नजरिया देश, समाज, संस्कृति, धर्म और भाषा के संबंध में राष्ट्रवादी था, वहीं आदर्श समाज की स्थापना के संबंध मंे समाजवादी। उनका राष्ट्रवाद और समाजवाद वेदों से प्रमाणित था, जो सर्वे भवन्तु सुखिनः और सर्वे सन्तु निरामया पर आधारित था। दरअसल, दयानंद ऐसे युगान्तरकारी महामानव थे, जिनके रोम-रोम में मानवता का कल्याण और सच्चे ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति का उत्कृष्ट दर्शन व्याप्त था। उनका हर कार्य समाज, संस्कृति, धर्म, विज्ञान और भाषा को बल देने वाला था। वे नागरी लिपि की जहां वकालत करते हैं, वहीं उन्होंने हिंदी को ‘आर्य-भाषा’ कह कर प्रतिष्ठा दी और हिंदी में अपने मुख्य ग्रंथों की रचना की। धर्म, संस्कृति और मूल्य उनके जीवन के वैभव भी थे और शोध भी। उन्होंने वेद, धर्म, संस्कृति और जीवन-विज्ञान को तर्क, प्रमाण, विज्ञान और सत्य की कसौटी पर कसकर ही स्वीकार किया।
महर्षि दयानंद के कार्य, जीवन, धर्म और मूल्यों को समझने लिए यह जरूरी है कि उनके चरित्रबल, आत्मसाधना, वेदविद्या और शिव संकल्प को भी समझना आवश्यक है। गौरतलब है दृढ़व्रती मानव साधारण मानव नहीं होता है। वह युगधर्मी ऐसा महामानव होता है जिसका एकमात्र उद्देश्य सारी दुनिया का भला करना होता है। उसकी दृष्टि आने वाले सैकड़ों वर्षों पर होती है। इसलिए उसके ज्ञान, विज्ञान, समाज सुधार, धर्मकल्याण और संस्कृति उन्नयन के कार्य उस समय असरदायक तो होते ही हैं, शताब्दियों तक मानव जाति को प्रेरणा देने का कार्य करते हैं। महर्षि दयानंद के कार्य, विचार और उद्देश्य इसी तरह के थे। आज भी महर्षि के जीवन संदेश, दर्शन, कार्य विश्व मानवता के लिए प्रेरणा का कार्य कर रहे हैं। इतना ही नहीं, समाज व शिक्षा सुधार, संस्कृति व धर्म उन्नयन, भाषा, लिपि, स्वदेशी, शाकाहार, स्वावलम्बन, मानव व समाज में सद्गुण प्रतिस्थापना, असहाय और निर्धन समाज के कल्याण और अविद्या को मानव मन से हटाकर विद्या के प्रचार-प्रसार करने जैसे अनगिनत कार्य महर्षि दयानंद ने उस समय किए, जब देश अंग्रेजी पराधीनता में जकड़ा हुआ था। ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा भारतीय संस्कृति, सभ्यता, स्वधर्म, स्वभाषा, स्वदेशी स्थापना और वैदिक स्वश्िाक्षा को जन-जन तक पहुंचाने के मकसद से दिया गया।
महर्षि दयानंद की दृष्टि अत्यंत व्यापक थी। वह मत, मजहब, सम्प्रदाय और वर्ग-समूह व जाति-समूह से बहुत ऊंचे उठे हुए महामानव थे। विश्व समाज जिस दौर से आज गुजर रहा है, ऐसे में स्वामी दयानंद के वैदिक विचार अपने आप में इतने उपयोगी, व्यावहारिक और निष्पक्ष हैं कि यदि उन पर गौर किया जाए तो दुनिया की तमाम जटिलताएं, समस्याएं, विसंगतियां, हिंसा, विकृतियां, दुर्वृतियां और अनाचार खत्म हो सकती हैं। लेकिन जरूरत इस बात की है कि हम दयानंद को दयानंद की अंतर-दृष्टि को समझने की सामर्थ्य रखते हों। महर्षि दयानंद के राेम-रोम में वेद, भारत, वैदिक राष्ट्रवाद, वैदिक जीवन दर्शन और वैदिक मूल्य समाहित थे। उन्होंने सभी हितकारी कार्यों को ‘यज्ञ’ कहकर प्रतिष्ठा दी।
दया और क्षमा का अद्भुत गुण
महर्षि दयानंद ने भारतीयता को स्वाधीनता, स्वराज्य, स्वदेशी, स्वभाषा, स्वधर्म, शाकाहार और आदर्श समाज निर्माण से जोड़कर देखा। वे सच्चे मायने में एक युगपुरुष, वैदिक ऋषि, स्वराज्य के प्रथम प्रणेता और वैदिक गुरुकुल प्रणाली के संवाहक थे। दैवत्व और ऋषित्व उनके मुखमंडल पर दीप्यमान था। अपने हत्यारे को भी पैसा देकर दूर भाग जाने की घटना, उनकी दया और क्षमा का अद्भुत गुण है। वे राष्ट्र, समाज, वेद, जनहित, संस्कृति, भाषा, नारी व दलित कल्याण और विश्व के कल्याण के लिए जीवन भर तमाम परेशानियों के बीच भी कार्य करते रहे। महर्षि दयानंद की इन्हीं तमाम विशेषताओं के कारण महात्मा गांधी ने कहा- स्वामी दयानंद हमारे लिए विरासत में मूल्यवान वस्तुएं छोड़ गए हैं। उनमें अस्पृष्यता के विरुद्ध उनकी स्पष्ट घोषणा निश्चय ही बहुत महत्वपूर्ण है। महर्षि दयानंद को आज के संदर्भ में हमें उनके समग्र विचारों, कार्यों, व्यवहार और चरित्र को पूरी तरह निष्पक्ष और अपने आग्रह-दुराग्रह से अलग हटकर समझने की जरूरत है। यदि महर्षि दयानंद हमें समझ में सही मायने में आ गये तो समाज और संस्कृति तथा तथाकथित धर्म के नाम पर होने वाले पाखंडों और अनाचारों को बहुत कम समय में खत्म किया जा सकता है।