शिक्षा के साथ अध्यात्म का समन्वय समय की जरुरत है और गुरुपूर्णिमा इस परिकल्पना को साकार करने का पावन दिन है।
गुरु : भारतीय संदर्भ में गुरु का बहुत महत्व है, जिसे भगवान से भी बड़ा दर्जा दिया गया है। उस शब्द में जी जोड़कर अर्थात् गुरुजी का उपयोग कभी भारी तो कभी हल्के अर्थों में किया जाता है। लेकिन गुरु शब्द का मानक उपयोग उन प्रकाशित आत्माओं के लिए है, जिनको आत्मबोध, ईश्वरबोध या चेतना का मर्मबोध हो गया है। इस आधार पर गुरु आध्यात्मिक रूप में चैतन्य व्यक्ति हैं।
अर्थात्, गुरु जीवन का चरम आदर्श है, पूरी तरह से प्रकाशित व्यक्तित्व। जीवन के मर्म जिसने जान लिया। गुरु आत्मविद्या, ब्रह्मविद्या या अध्यात्म विद्या का ज्ञाता होता है। उसे चेतना का मर्मज्ञ कह सकते हैं। उसमें वह अंतर्दृष्टि व तपोबल होता है कि वह पूर्णता के अभीप्सु शिष्य को अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ने का मार्गदर्शन दे सके, आगे बढ़ा सके। इस आधार पर गुरु जीवन विद्या का अधिकारी विद्वान होता है। जीवन के समग्र बोध की खोज में हर इंसान का वह परम आदर्श होता है।
शिक्षक या टीचर : अपने विषय का ज्ञाता होता है। कोई फिजिक्स में है, तो कोई गणित का, कोई हिंदी का है तो कोई कम्प्यूटर का, कोई मीडिया का है तो कोई राजनीति का आदि। इस विषय ज्ञान का जीवविद्या से अधिक लेना-देना नहीं है। यह रोजी-रोटी से लेकर सांसारिक जीवनयापन या संचालन का साधन है। लेकिन ऐसा शिक्षक इन विषयों तक ही सीमित रहे, तो बात बनने वाली नहीं, क्योंकि विषय की खाली पेशेवर जानकारी के आधार पर वह एक स्किल्ड प्रोफेशनल ही तैयार कर सकेगा।
शिक्षक के व्यक्तित्व में गुरुता का समावेश भी हो, इसके लिए जरूरी है कि उसका आदर्श उच्च हो। आध्यात्मिक रूप से प्रकाशित व्यक्ति अर्थात् गुरु सहज रूप में शिक्षकों के आदर्श हो सकते हैं। आदर्श जितना ऊंचा होगा, व्यक्तित्व का रूपांतरण एवं चरित्र का गठन उतना ही गहरा एवं समग्र होगा। अतः जब एक विषय का जानकार शिक्षक जीवन के उच्चतम आदर्श के साथ जुड़ता है तो उसके चिंतन, चरित्र व आचरण का आत्यांतिक परिष्कार आरम्भ हो जाता है।
आचार्य : आचार्य का अर्थ उस शिक्षक से है जिसे अपने विषय के साथ जीवन की भी समझ है। जो पेशेवर ज्ञान के साथ जीवन के नियमों का भी ज्ञान रखता है और नैतिक तथा मूल्यों को अपने विवेक के आधार पर जीवन में धारण करने की भरसक चेष्टा कर रहा है, एक आत्मानुशासित जीवन जीकर अपने आचरण द्वारा जीवन विद्या का शिक्षण देने का प्रयास कर रहा है। आश्चर्य नहीं कि गुरुता के आदर्श की ओर अग्रसर शिक्षक की मानवीय दुर्बलताएं क्रमशः तिरोहित होती जाती हैं।
शिक्षा के साथ अध्यात्म का समन्वय समय की जरूरत है और गुरुपूर्णिमा इस परिकल्पना को साकार करने का पावन दिन है।
इस संदर्भ में गुरुपूर्णिमा का पावन दिवस, शिक्षकों के लिए आचार्य के रूप में अपनी गुरुतर भूमिका निभाने का संदेश लिए एक महत्वपूर्ण पर्व है। – सु.सिं.