नारी शक्ति, सांस्कृतिक एकता और लोकआस्था का उत्सव
धीरज बसाक
भारत सांस्कृतिक विविधताओं का देश है। यहां हर क्षेत्र की अपनी विशेष सांस्कृतिक परंपराएं हैं, जो जनमानस की आस्था, जीवनशैली और प्रकृति से जुड़ी हुई हैं। ऐसा ही एक रंग-बिरंगा जीवन और सामूहिक गतिविधियों से ओतप्रोत पर्व बोनालू है। जिसे तेलगांना राज्य का राजकीय त्योहार होने का दर्जा प्राप्त है। यह लोककला, नृत्य, संगीत और नारी शक्ति पर आस्था का संगम ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक पर्यटन का बड़ा जरिया है। बोनालू जिसका मतलब बोनम यानी भोग या भेंट से होता है। दरअसल बोनालू, देवी महाकाली को अर्पित किये जाने वाले विशेष भोग को भी कहते हैं, जो चावल, दूध, गुड़ और इमली से बनता है। इसे मिट्टी के बर्तन में सजाकर महिलाएं देवी मां के मंदिरों तक जाती हैं। यह दृश्य अपने आपमें इतना भव्य और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होता है कि जिसने एक बार बोनालू की कतारें देखीं, वह जीवनभर इसकी छवि नहीं भूल सकता।
हैदराबाद, सिकंदराबाद और इसके आसपास के जिलों में बोनालू पर्व बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। यह देवी महाकाली को समर्पित पर्व है और मानसून की शुरुआत में कृषि समृद्धि की कामना के साथ मनाया जाता है। बोनालू दरअसल देवी पूजन का अवसर ही नहीं बल्कि यह नारी शक्ति के गौरव, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक पहचान को एकात्मक रूप से व्यक्त करने का भव्य तरीका भी है। महिलाएं बोनालू पर्व में पारंपरिक परिधान के रूप में आमतौर पर हरे रंग की साड़ियां पहनती हैं। हाथों मंे भर-भरकर चूड़ियां, माथे पर बिंदी लगाकर यानी पूर्ण शृंगार करके देवी महाकाली को भोग अर्पण करने के लिए कतारों में गीत गाते हुए जाती हैं। उनके साथ लोकनृत्य, ढोल, पटाखे आदि का कारवां चलता है और पारंपरिक गीतों से पूरा वातावरण गुंजायमान हो जाता है। यह बेहद उल्लास और आध्यात्मिकता का पर्व है।
बोनालू पर्व में जनमानस का उत्साह इसलिए भी पूरी तरह से शामिल होता है, क्योंकि इसके आगमन के साथ ही कृषि चक्र की शुरुआत हो जाती है। बरसात का मौसम शुरू होते ही किसान खेतों की ओर रूख करते हैं। ऐसे में यह पर्व देवी को धन्यवाद देने और आगामी बेहतर फसल को प्राप्त करने के लिए उनसे आशीर्वाद पाने का तरीका भी होता है। लोकमान्यता है कि देवी महाकाली लोगों की आपदाओं और महामारियों से रक्षा करती हैं और उन्हीं की वजह से अच्छी वर्षा होती है, जिससे बेहतर फसल और लोगों को बेहतर स्वास्थ्य मिलता है। इसलिए यह पर्व तेलगांना की लोकसंस्कृति का बहुत ही जीवंत पर्व है। विशेषकर ग्रामीण जनजीवन में तो यह अत्यंत उल्लास के साथ रचा बसा पर्व है। बोनालू में भोग, अर्पण, जुलूस और पूजा के माध्यम से ग्रामीण लोग देवी मां के समक्ष अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं।
इस पर्व की एक खास विशेषता इसकी सामूहिकता है। यह व्यक्तिगत पूजा का पर्व नहीं है बल्कि पूजा भी इस पर्व में एक सामूहिक भागीदारी होती है। मोहल्ले, गांव और शहरों में लोग मिल-जुलकर बोनालू पूजा का आयोजन करते हैं। पगड़ीधारी पुरुष, तेल मलकर नाचते भैरव, डफली बजाते युवक, झांकियों में देवी मां का रूपधारण किये बच्चे, ये सारी गतिविधियां एक चलती-फिरती सांस्कृतिक फिल्म सरीखी लगती हैं। वास्तव में यह लोककला को जीवंत ढंग से अभिव्यक्त करने का तरीका है। बोनालू उत्सव में देवी मां के पालकी जुलूस सड़कों पर हजारों लोगों के साथ निकलते हैं। इस दौरान महिलाएं सिर पर ‘बोनम’ रखकर चलती हैं, तब यह दृश्य नारी सशक्तीकरण का एक बिल्कुल अनूठा दृश्य नजर आता है। पूरे जुलूस के दौरान ढोल बजते रहते हैं। पारंपरिक संगीत चलता रहता है और लोग पूरे समय उत्साह से नाचते हुए एक बड़े सांस्कृतिक मेले के रूप में देवी मां के मंदिर की तरफ बढ़ते हैं।
बोनालू यूं तो बहुत पुराना पर्व है, लेकिन आधुनिक बोनालू पर्व की शुरुआत 1813 के आसपास होती है। उस समय हैदराबाद क्षेत्र में जबर्दस्त तरीके से प्लेग फैला हुआ था। तब लोगों ने देवी महाकाली से प्लेग से मुक्ति दिलाने की प्रार्थन की थी और मन्नत मांगी कि अगर महामारी समाप्त हो गई तो वे विशेष पूजा करके मां पर ‘बोनम’ का भोग चढ़ाएंगे। नारी शक्ति और सम्मान का भी यह प्रतीकात्मक पर्व है। इस पर्व में महिलाओं को पूजा करनी होती है और वे पूरे समाज का नेतृत्व करते हुए नजर आती हैं। इस पर्व में धार्मिकता के साथ-साथ लोकधर्मी संतुलन भी मौजूद है। इ.रि.सें.