रवनीत कौर
सिख धर्म के पहले शहीद गुरु अर्जुन देव जी का जन्म 2 मई 1563 को पंजाब के गोइंदवाल में हुआ। चौथे पातशाह गुरु रामदास जी उनके पिता और तीसरे गुरु अमरदास जी की पुत्री बीबी भानी जी उनकी माता थी। उनके दो भाई बाबा पृथी चंद और बाबा महादेव जी थे। वे अपने माता-पिता की सबसे छोटी संतान थे। बचपन से ही उनकी रूहानी रुचियों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता था कि वे ही गुरुगद्दी के अगले हकदार होंगे। एक बार बचपन में खेलते-खेलते वे अपने नाना व गुरु अमरदास जी के आसन पर चढ़ने लगे, तो माता ने रोकने का प्रयत्न किया। इस पर तीसरे गुरु मंद-मंद मुस्कुराये और बोले- ‘दोहता बाणी दा बोिहथा’, यह भविष्य में उनके गुरुगद्दी पर विराजमान होने का संकेत था। दूसरी ओर श्री अर्जुन जी का बड़ा भाई पृथी चंद खुद को गुरुगद्दी का हकदार मानता था। इसलिए तीसरे गुरु की भविष्यवाणी के अनुरूप श्री अर्जुन जी को गुरुगद्दी मिलने से रोकने के लिए उसने कई सािजशें रचीं, लेकिन वह सफल नहीं हो पाया।
आदि ग्रंथ को दिया आकार
गुरु प्रेम और बेहद आत्मिक गुणों के चलते श्री अर्जुन देव जी 18 वर्ष की आयु में सिखों के पांचवें गुरु बने। गुरबाणी के संबंध में उन्होंने तीसरे गुरु सािहब की कही बात को सत्य कर दिखलाया। उन्होंने अपने से पहले के गुरु साहिबान की बाणी एकत्र करके आिद ग्रंथ की रचना की। उन्होंने अपने 2218 श्लोक भी इसमें दर्ज किये। सुखमनी सािहब उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है। गुरु अर्जुन देव जी ने अमृतसर में अपने पिता गुरु रामदास जी द्वारा बनवाये गये पवित्र सरोवर में हरिमंदिर साहिब बनवाया। गुरु साहिब ने इसकी नींव मुस्लिम फकीर साईं मियां मीर से रखवाई। उन्होंने इसके केंद्रीय स्थान में चारों ओर चार दरवाजे रखवाये। इसका मतलब यह है कि यह स्थान सभी धर्मों के लोगों व पूरी मानवता के लिए खुला है। इसका मकसद सर्व धर्म सद्भावना को प्रकट करना था।
तेरा भाणा मीठा लागे
पंजाब के शहर फिल्लौर के नजदीक एक गांव के रहने वाले भाई किशन चंद जी की सुपुत्री गंगा जी से 19 जून 1589 को उनकी शादी हुई। उनके घर बालक हरिगोबिंद जी का जन्म हुआ, जो सिखों के छठे गुरु हुए। लाहौर में मुगल दरबार का एक अधिकारी चंदू अपनी बेटी की शादी श्री हरिगोबिंद जी के साथ करना चाहता था, मगर गुरु अर्जुन देव जी ने उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया। इस कारण वह गुरु साहिब से नफरत करने लगा। गुरु अर्जुन देव जी की बढ़ती ख्याति की वजह से चंदू, पृथी जैसे गुरुघर के दुश्मनों और कुछ अन्य दरबारियों ने मुगल बादशाह जहांगीर के कान भरने शुरू कर दिये। उन्होंने कहा कि गुरु अर्जुन ने जहांगीर के विरोधी शहजादा खुसरो को शरण दी और वह लोगों को मुगल हुकूमत के खिलाफ बगावत के लिए प्रेरणा दे रहे हैं।
धार्मिक कट्टरता के चलते जहांगीर गुरु साहिब की बढ़ती लोकप्रियता को सहन नहीं कर पा रहा था। खुसरो के बहाने जहांगीर ने गुुरु जी को सजा-ए-मौत सुना दी। लाहौर में रावी दरिया के तट पर भीषण गर्मी में गुरु साहिब को बेहद यातनाएं दी गईं। उन्हें लोहे के गर्म तवे पर बिठा कर सिर पर गर्म रेत डाली गई। गुरु जी प्रभु को याद करते रहे। प्रभु का हुकम मीठा समझकर मानने और शांति बनाये रखने के कारण उन्हें शांति का पुंज भी कहा जाता है। ऐसी यातनाएं सहते हुए वे परमात्मा में विलीन हो गये। उनकी शहादत जुल्म के विरुद्ध शांतिपूर्वक संघर्ष करने के लिए प्रेरणा देती रहेगी।