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अन्नमय ज्ञान

एकदा
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श्वेतकेतु, उद्दालक ऋषि का पुत्र था। वेदान्ती होने के नाते वह वेदान्त का अच्छा ज्ञाता था। वेद शास्त्री और ज्ञानी होकर वह अहंकार करने लगा। उसका अभिमान तोड़‌ने के लिए उसके पिता उद्दालक ने उसे कहा, ‘पुत्र, पन्द्रह-सत्रह दिन तक उपवास रखो। इसके उपरान्त में तुम्हें समस्त ज्ञान का मूलमंत्र दूंगा।’ श्वेतकेतु ने अपने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया और दो सप्ताह तक निराहार रहे। सोलहवें दिन उद्दालक ने बुलाकर कहा, ‘पुत्र, अब मुझे ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद के कुछ मंत्र सुनाओ।’ पन्द्रह दिन निराहार रहने के कारण श्वेतकेतु इतना कमजोर हो गया कि उसे एक भी मंत्र याद नहीं रहा। फिर उसके पिता ने कहा, ‘घर जाओ, अपना व्रत तोड़ो और भोजन से तृप्त होकर दो-चार दिन बाद मेरे पास आओ।’ श्वेतकेतु ने वैसा ही किया। भूख शांत होते ही उसके स्मृति-कपाट खुल गए और उसने पिता के पास आकर मंत्र बोलने शुरू कर दिए। तब, ऋषि उद्दालक ने कहा, ‘अन्न का करिश्मा देखा, वत्स! हमारा मन अन्नमय है, अन्न के अभाव में उसकी गति लोप हो जाती है। ज्ञान पर गर्व करने से पहले अन्न जुटाने का प्रयोजन करना ही पहला मूल मंत्र है।’

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