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शीतकालीन पूजा स्थलों तक का आध्यात्मिक सफ़र

बदरीनाथ कपाट बंद 25 नवंबर
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उत्तराखंड स्थित चार धाम यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ एवं बदरीनाथ मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बंद कर दिए जाते हैं। दरअसल, कपाट बंद के पीछे की मुख्य वजह विषम भौगोलिक परिस्थितियां एवं प्राचीन स्थापित पौराणिक परंपरा हैं। हालांकि, शीतकालीन पूजा स्थलों में निरंतर पूजा अर्चना होती रहती है। अनादि काल से चली आ रही परंपराएं अक्षुण्ण हैं।

बदरीनाथ मंदिर के कपाट बंद का दिन विजयादशमी के पर्व पर बदरीनाथ मंदिर परिसर में तय किया जाता है। इस दिन मंदिर परिसर में मंदिर के मुख्य पुजारी, बदरीनाथ मंदिर के धर्माधिकारी और वेदपाठियों की उपस्थिति में वैदिक पंचांग, ग्रह नक्षत्र देखकर देव पूजा की तिथि घोषित की जाती है। इस वर्ष बदरीनाथ मंदिर के कपाट 25 नवंबर को शीतकाल के लिए बंद होंगे। देव पूजा से पहले मंदिर बंद की पंच पूजा 21 नवंबर से होगी, जो 25 नवंबर तक चलेगी।

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उल्लेखनीय है कि मार्गशीर्ष माह में नर यानी रावल द्वारा भगवान की दो पूजा की जानी आवश्यक है। इसके बाद मंदिर के कपाट बंद का जो उचित मुहूर्त निकलता है, उस तिथि को कपाट बंद कर दिए जाते हैं और नारद नारायण की पूजा-अर्चना प्रारंभ कर दी जाती है। परंपरानुसार, मंदिर के कपाट बंद की तिथि से पांच दिन पूर्व कपाट बंद की पारंपरिक प्रक्रियाएं प्रारंभ हो जाती हैं। इसके तहत सर्वप्रथम मंदिर परिसर में स्थित गणेश मंदिर के कपाट बंद किए जाते हैं। अगले दिन आदि केदारेश्वर और शंकराचार्य मंदिर के कपाट बंद होते हैं। अगले चरण में तीसरे दिन खड़क पुस्तिका पूजन के बाद वेद ऋचाओं का पाठ बंद किया जाता है। चौथे दिन मां लक्ष्मीजी की पूजा के बाद कड़ाई भोग लगाया जाता है। अंतिम दिन मंदिर के कपाट बंद से पहले उद्धव और कुबेर की चल विग्रह मूर्ति गर्भ गृह से बाहर आती है और लक्ष्मीजी को गर्भ गृह में विराजमान किया जाता है।

स्त्री वेश धारण पुजारी

बदरीनाथ मंदिर के कपाट बंद की प्रक्रिया के तहत अंतिम दिन, यानी पांचवें दिन मंदिर परिसर में भावुक दृश्य होता है। कपाट बंद से कुछ पहले मंदिर के मुख्य पुजारी रावल स्त्री वेश धारण कर लक्ष्मी मंदिर से लक्ष्मीजी के चल विग्रह को मंदिर के गर्भगृह में स्थापित करते हैं। छह माह के दौरान यह परंपरा मंदिर के मुख्य पुजारी द्वारा अंतिम दिन निभाई जाती है।

दरअसल, रावल का स्त्री रूप में मंदिर के गर्भगृह में जाकर लक्ष्मीजी के चल विग्रह को स्थापित करने के पीछे की मुख्य वजह यह है कि हिंदू परंपरा के अनुसार कोई पुरुष स्त्री को स्पर्श नहीं कर सकता है। इसलिए मंदिर के पुजारी, लक्ष्मीजी की सखी पार्वती का रूप धारण कर लक्ष्मीजी के चल विग्रह को बदरीनाथ मंदिर के गर्भगृह में नारायण के सान्निध्य में स्थापित करते हैं। इस परंपरा को संपन्न करने के बाद मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बंद कर दिए जाते हैं।

घृत कंबल का आवरण

बदरीनाथ मंदिर के कपाट बंद की प्रक्रिया विजयादशमी को शुरू होती है। इसके अगले दिन एकादशी को माणा गांव की कुंवारी कन्याएं पारंपरिक रूप से घृत कंबल बुनती हैं। जिसे ग्रामीणों द्वारा बदरी केदार मंदिर समिति को सौंपा जाता है। कपाट बंद के दिन इस कंबल को बदरी गाय के घी में भिगोकर भगवान को इससे ढका जाता है। घृत कंबल कपाट खुलने पर श्रद्धालुओं को वितरित किया जाता है।

बदरीनाथ की तुलसी

भगवान बदरी विशाल के शृंगार में तुलसी का प्रयोग किया जाता है। यहां किसी अन्य पुष्प की माला भगवान को अर्पित नहीं की जाती है। बदरी क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इस तुलसी से ही भगवान के लिए माला बनाई जाती है।

यह विशेष प्रकार की तुलसी इस हिमालय क्षेत्र में पाई जाती है। खासतौर से हनुमान चट्टी से आगे और मणिभद्रपुरी के बीच के क्षेत्र में यह तुलसी बड़ी मात्रा में उपलब्ध है। मंदिर के कपाट बंद के दिन भगवान को पुष्प अर्पित किए जाते हैं और अन्य सभी दिन भगवान का शृंगार तुलसी से किया जाता है।

कपाट बंद के अगले दिन प्रस्थान

बदरीनाथ मंदिर के गर्भगृह से उद्धव और कुबेर के चल विग्रहों को बाहर लाया जाता है। कुबेर की डोली रात्रि विश्राम के लिए बामणी गांव आती है। जबकि उद्धव और आदि गुरु शंकराचार्य की गद्दी कपाट बंद के अगले दिन मंदिर परिसर से और कुबेर की डोली बामणी गांव से पाण्डुकेश्वर के लिए प्रस्थान करती है।

पाण्डुकेश्वर स्थित योगध्यान मंदिर के गर्भगृह में कुबेर व उद्धव के चल विग्रहों को स्थापित किया जाता है। जबकि शंकराचार्य की गद्दी नृसिंह मंदिर लायी जाती है। जहां कपाट खुलने तक गद्दी को शंकराचार्य मंदिर में रखा जाता है। कपाट बंद होने के साथ ही मंदिर का खजाना और गरुड़ जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर आ जाते हैं।

मंदिर के कपाट बंद होने के दूसरे दिन उद्धव, कुबेर और शंकराचार्य की गद्दी पाण्डुकेश्वर प्रस्थान करती है। मंदिर के मुख्य अर्चक सहित मंदिर की परंपरा से जुड़े सभी लोग रात्रि विश्राम बदरी पुरी में ही करते हैं। तीन अन्य धाम गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ मंदिर के कपाट बंद होने के बाद मां गंगा और यमुना और पंच केदार की चल मूर्ति अपने शीतकालीन पूजा स्थलों को रवाना होती है।

शीतकाल में चार धामों के दर्शन

उत्तराखंड स्थित चार धाम यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ एवं बदरीनाथ मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बंद कर दिए जाते हैं। दरअसल, कपाट बंद के पीछे की मुख्य वजह विषम भौगोलिक परिस्थितियां एवं प्राचीन स्थापित पौराणिक परंपरा हैं। जन सामान्य में अवधारणा बन गई है कि इन धामों में मंदिरों के कपाट बंद होने के बाद पूजा नहीं होती है। हालांकि, शीतकालीन पूजा स्थलों में निरंतर पूजा अर्चना होती रहती है। अनादि काल से चली आ रही परंपराएं अक्षुण्ण हैं।

ऐसी मान्यता है कि शीतकालीन पूजा स्थलों के दर्शन एवं पूजन से वही पुण्य प्राप्त होता है, जो ग्रीष्मकाल में धामों के दर्शन से होते हैं।

वामाव्रत क्रम

उत्तराखंड स्थित चार धामों की यात्रा का क्रम वामावर्त है। सबसे पहले यमुनोत्री में मां यमुना के दर्शन, फिर गंगोत्री में मां गंगा, इसके बाद केदारनाथ और अंत में बदरी विशाल के दर्शन का माहात्म्य है। इसलिए शीतकालीन पूजा स्थलों का भी वामा व्रत है।

ऐसा कहा जाता है कि मां यमुना के दर्शन से भक्ति, मां गंगा के दर्शन से ज्ञान, केदारेश्वर महादेव के दर्शन से वैराग्य और बदरी विशाल के दर्शन से मोक्ष मिलता है।

शीतकालीन पूजा स्थल

खुशीमठ : यमुनोत्री मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बंद होने के बाद मां यमुना जी की भोग मूर्ति को शीतकालीन पूजा स्थल खुशीमठ जो खरसाली के नाम से प्रचलित है, लाया जाता है। यहां 6 माह तक विधि विधान के अनुसार मां यमुना की पूजा की जाती है।

मुखीमठ (मुखवा) : मुखवा गांव में मां गंगा का शीतकालीन पूजा स्थल है। इसे मुखीमठ कहा जाता है।

ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ : ओंकारेश्वर मंदिर जनपद रुद्रप्रयाग के ऊखीमठ में स्थित है। जब केदारनाथ मंदिर के कपाट शीतकाल के लिए बंद होते हैं तो भगवान की पंचमुखी चल विग्रह मूर्ति इसी मंदिर में लाई जाती है।

नृसिंह मंदिर ज्योर्तिमठ : बदरीनाथ मंदिर के कपाट बंद होने के बाद उद्धव और कुबेर की चल विग्रह मूर्तियां योग ध्यान मंदिर पाण्डुकेश्वर आती हैं। आदिगुरु शंकराचार्य गद्दी और गरुड़ भगवान नृसिंह मंदिर ज्योर्तिमठ में विराजमान होते हैं। भगवान बदरी विशाल की पूजा अर्चना नृसिंह मंदिर में की जाती है।

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