Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

विभाजन में गुनाह के देवता तमाम

बलराम भारत विभाजन के लिए नेहरू या जिन्ना को जिम्मेदार ठहराने वाले लोगों का ध्यान इस ओर प्राय: नहीं जाता कि अंग्रेजों ने ही उर्दू की जगह हिंदी को राजभाषा बनाकर भारत विभाजन के बीज बोये थे। वस्तुत: विभाजन के लिए न तो गांधी तैयार थे, न नेहरू या पटेल। जिन्ना भी भारत विभाजन नहीं […]
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

बलराम

भारत विभाजन के लिए नेहरू या जिन्ना को जिम्मेदार ठहराने वाले लोगों का ध्यान इस ओर प्राय: नहीं जाता कि अंग्रेजों ने ही उर्दू की जगह हिंदी को राजभाषा बनाकर भारत विभाजन के बीज बोये थे। वस्तुत: विभाजन के लिए न तो गांधी तैयार थे, न नेहरू या पटेल। जिन्ना भी भारत विभाजन नहीं चाहते थे। वे तो दबाव डालकर अखंड भारत में मुसलमानों के लिए सम्मानजनक जीवन की गारंटी चाहते थे, पर लॉर्ड माउंटबेटन को ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली द्वारा वायसराय बनाकर भारत भेजा ही इसलिए गया था कि तीस करोड़ हिंदुओं और दस करोड़ मुसलमानों के बीच भारत को बांट देना है। प्रख्यात कथाकार प्रियंवद की किताब ‘भारत विभाजन की अंत: कथा’ पाठकों को पहली बार इस बात को प्रमाणों के साथ बताती है। भाषा के मसले पर किताब में प्रियंवद लिखते हैं कि सैयद अहमद को जब इंग्लैण्ड में पता लगा कि ‘साइंटिफिक सोसाइटी’ के हिन्दू सदस्यों ने सरकार से हिन्दी में काम करने की मांग की है तो उन्होंने नवाब मोहसिन-उल-मुल्क को लिखे 29 अप्रैल, 1870 के पत्र में दुख व्यक्त किया कि मुझे एक सूचना मिली है, जिसके कारण मैं बहुत दुखी हूं। बाबू शिवप्रसाद के उकसाने पर हिन्दुओं ने तय किया है कि वे उर्दू भाषा और फारसी लिपि को, जो देश पर मुस्लिम राज्य की निशानी है, यथासम्भव त्याग देंगे। मैंने सुना है कि उन्होंने ‘साइंटिफिक सोसाइटी’ के हिन्दू मेम्बरों से कहा है कि वे सोसाइटी द्वारा प्रकाशित समाचारपत्रों तथा पुस्तकों को हिन्दी में निकालें। यह एक ऐसा प्रस्ताव है, जिसके कारण हिन्दू-मुस्लिम एकता खतरे में पड़ेगी। मुसलमान हिन्दी के लिए कभी तैयार नहीं होंगे। परिणामत: हिन्दू-मुसलमान अलगाव बढ़ेगा। इस संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि सैयद अहमद हिन्दी विरोध में इस हद तक बढ़ गए थे कि उन्होंने ‘अंग्रेजों को सुझाया था कि हिन्दी हिन्दुओं की जुबान है, जो ‘बुतपरस्त’ हैं और उर्दू मुसलमानों की, जिनके साथ अंग्रेजों का मजहबी रिश्ता है।’
सन‍् 1873 में बंगाल सरकार ने बिहार के लिए, जो उस समय तक बंगाल का ही भाग था, एक आदेश जारी किया कि पटना, भागलपुर और छोटा नागपुर क्षेत्रों में कचहरी और सरकारी दफ्तरों में देवनागरी लिपि में हिन्दी चलनी चाहिए। सरकारी कागजात भी हिन्दी में रखे जाएं, प्रार्थनापत्र देने वालों को छूट होगी कि वे उर्दू या हिन्दी में प्रार्थनापत्र दे सकेंगे। पुलिस और सरकारी कार्यालयों में हिन्दी जानना अनिवार्य रहेगा। इस आदेश का कुछ प्रभाव नहीं होने के कारण अप्रैल, 1874 और जुलाई, 1875 में फिर स्मरण पत्र जारी किये गये। इसका भी कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। प्रार्थनापत्र, पुलिस आदेश, डायरी, रजिस्टर तथा कचहरी के कागज सब उर्दू (फारसी लिपि) में ही लिखे जाते रहे। जो नोटिस हिन्दी में छपे भी, वह भी फारसी लिपि में ही भरे गये। बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर एशले ने जब देखा कि सरकारी उद्देश्य व आदेशों पर कोई प्रगति नहीं हो रही है तो अप्रैल, 1880 में उसने एक आदेश जारी किया कि जनवरी, 1881 से सरकारी कागज केवल देवनागरी लिपि में ही रखे जाएंगे। कचहरी में देवनागरी लिपि के अतिरिक्त कोई कागज मान्य नहीं होगा। केवल पुराने अभिलेख, यदि वे संलग्न हैं तो वे फारसी लिपि में हो सकते हैं। पुलिस अधिकारियों को भी चेतावनी दी गयी कि यदि वे जनवरी, 1881 तक नागरी भाषा नहीं सीख लेते तो हटा दिये जाएंगे और उनकी जगह नागरी से परिचित अफसर नियुक्त किए जाएंगे। जांच से पता लगा कि आदेशों की अनदेखी करने वाले मुख्यत: हिन्दू या मुसलमान वकील, दफ्तर के कार्यकर्ता, मुख्तार और दलाल थे। मुसलमान काफी नाराज थे। यह दिलचस्प है कि उनकी नाराजगी मुख्यत: हिन्दुओं से भी थी, जिनके कारण उर्दू हटायी जा रही थी। सरकार को क्रोध भरे ज्ञापन भेजे गये।
सन‍् 1881 में बंगाल के इस आदेश से प्रेरित होकर उ.प्र. में यह विवाद सन‍् 1883 में एक बार फिर उठा, जब एक सीधा-सादा दिखने वाला प्रस्ताव आया कि कचहरी में देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाए, न कि फारसी लिपि का। एजूकेशन कमीशन के सामने इस तरह के 118 आपत्तिपत्र दाखिल किये गये, जिनमें प्राथमिक स्कूलों में उर्दू के स्थान पर हिन्दी माध्यम से शिक्षा देने का अनुरोध था। पंजाब में 46 आपत्तिपत्र आए। मुस्लिम समाज इस हिन्दी समर्थक आन्दोलन के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ। सार्वजनिक मंच व समाचार पत्र अपने-अपने पक्ष में सक्रिय हो गये। शिक्षित वर्ग में पारस्परिक विरोध की रेखाएं खिंच गयीं। फारसी लिपि की क्लिष्टता, उसमें तुर्की-अरबी शब्दों की बहुलता, हिन्दुओं के लिए विदेशी भाषा और अवैज्ञानिक लिपि जैसे तर्कों से हिन्दी को समर्थन मिला।
सन‍् 1900 में उत्तर प्रदेश में उर्दू के साथ-साथ हिन्दी को भी अदालत की भाषा बना दिया गया। मुसलमानों ने इसका कड़ा विरोध किया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय इस विरोध का केन्द्र था। मुस्लिम राजनीति में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण मोड़ था, जब भाषा के विरोध ने मुसलमानों को अलग राजनीतिक संगठन बनाने को प्रेरित किया, जो मुसलमानों के अलग राजनीतिक भविष्य और संघर्ष की ओर मुड़ गए, जिससे सैयद अहमद अब तक उनको बचाते रहे थे। इस प्रसंग को जानना जरूरी है, जो हमें बताता है कि किस तरह सन‍् 1900 में उत्तर प्रदेश में हिन्दी को भी अदालती भाषा बनाना, मुस्लिम राजनीति की अलग दिशा को खोलने और असुरक्षा और असंतोष का तात्कालिक कारण बन गया। ऐसे ही बांग्लादेश के नागरिकों पर जब बांग्ला की जगह उर्दू थोपी गई तो वहां भी विस्फोट हुआ और अंतत: भारत की तरह पाकिस्तान का भी विभाजन हो गया। इस तरह आज भारतीय उपमहाद्वीप की तीन लिपियां तीन देशों की राजभाषाएं हैं।
वैसे भारत विभाजन का पहला गुनहगार औरंगजेब ठहरता है, जिसने दाराशिकोह की हत्या कर अकबर के सर्वधर्म समभाव को समाप्त कर कट्टरता को बढ़ावा दिया और देश के तीन टुकड़े कर उसे अपने तीन बेटों में बांट दिया। यह भारत का पहला विभाजन था। दूसरा विभाजन अंग्रेजों के समय हुआ, जिसके गुनहगारों में ब्रिटिश सत्ता को पहले स्थान पर रखना पड़ेगा। मुस्लिम लीग और कांग्रेस के नेताओं को तो गुनहगारों में शामिल करना ही होगा, गांधी के अहिंसात्मक दुराग्रहों को भी गुनहगार मानना पड़ेगा, जिन्होंने हिंदुओं के हाथ बांध दिए और मुस्लिम लीग की सीधी कार्रवाई में कोलकाता में छब्बीस हजार लोग मारे गए, जिससे लार्ड माउंटबेटन को विभाजन का तथाकथित तार्किक आधार मिल गया। विभाजन हुआ। उधर पंजाब के बंटने से करोड़ों हिंदू-मुसलमान इधर-उधर हुए, जिसमें कोई ढाई लाख लोगों के मारे जाने का अनुमान लॉर्ड माउंटबेटन ने लगाया था, लेकिन कुछ लोग इसे पांच लाख तक आंकते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि भारत विभाजन से हिंदुओं को फायदा हुआ या मुसलमानों को या फिर दोनों को कोई फायदा नहीं हुआ? फिर भारत विभाजन से किसका हित हुआ। साम्राज्यवादियों के सिवा इससे किसे लाभ हुआ?
0किताब : भारत विभाजन की अंत: कथा 0लेखक : प्रियंवद 0प्रकाशक : हिंद पॉकेट बुक्स, जोरबाग लेन, नई दिल्ली-03 0पृष्ठ संख्या : 592 0मूल्य : रुपये 275.

Advertisement

Advertisement
×