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मुश्किल वक्त में खाता उधार का

मैं लगभग कैशलेस इनसान हूं। मुद्राहीन-चैन से रहने वाला!* (*शर्तें लागू)। पिछले कई सालों से कभी मेरी जेब में नोट या सिक्के रहे हों... और वो भी एक दिन से ज्यादा के लिए-मुझे याद नहीं। इस अपवाद के दिनों में नोट को लेकर कई अनुभव हुए।
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ब्लॉग चर्चा

अभिषेक ओझा
मैं लगभग कैशलेस इनसान हूं। मुद्राहीन-चैन से रहने वाला!* (*शर्तें लागू)। पिछले कई सालों से कभी मेरी जेब में नोट या सिक्के रहे हों… और वो भी एक दिन से ज्यादा के लिए-मुझे याद नहीं। इस अपवाद के दिनों में नोट को लेकर कई अनुभव हुए। ‘नोट’ सामयिक बात है तो ऐसी ही कुछ याद रह गयी बातों से कुछ नोट्स :-
दृश्य 1 (पटना) : उन दिनों मैं एटीम से पांच हजार रुपये निकालता, जब-जब जेब में पांच सौ से कम हो जाते। उस दिन मेरे पास छुट्टे नहीं थे और मुझे अपने कपड़े वापस लेने थे। दुकानदार ने कहा—अरे ले जाइए। आपका कौन-सा एक दिन का है। फिर आएंगे। तब दे दीजियेगा। पहली बार मैंने कपड़े दिए थे उस दुकान पर। कुल ढाई महीने के लिए था मैं उस शहर में, रोज का जाना नहीं था मेरा। कोई मुझे बिना मांगे उधार देने को राजी हो गया था।
जो कह रहे हैं कि… नोट की कमी से किसानों की बुवाई नहीं होगी, मुझे नहीं समझ उन्होंने किस तरह के भारत को देखा है! एक तो किसान की बुवाई में लाखों रुपये नहीं लगते। फिर बीज बेचने वाला, ट्रैक्टर का तेल बेचने वाला, सबको एक-दूसरे के साथ ही उठना-बैठना होता है। अगर आपको लगता है कि विमुद्रीकरण से किसी का खेत बंजर रह गया होगा तो पता नहीं आप किस हिन्दुस्तान में पले-बढ़े हैं! शायद आपको लगता है कि खेती और फैक्ट्री का प्रोडक्शन एक ही बात है। दुनिया में कभी भी शुद्ध वस्तु-विनिमय (बार्टर सिस्टम) रहा ही नहीं। भरोसा रहा। उधार रहा। ये दुनिया में मुद्रा के आने के बहुत पहले से है। पर बात ये है कि जिन्होंने कभी गांव देखा ही नहीं वो गांव वालों की समस्या से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं।
इस पर कोई टिप्पणी नहीं।
दृश्य 2 (रोम) : कॉफ़ी का बिल और साथ में रखा नोट उठाकर पुनः वापस रखते हुए वेट्रेस बोली—इत इज ब्यूयूयूऊऊतीफुल! बट नोत यूरो माय फ्रेंड। मुझे कुछ समझ नहीं आया कि बोला क्या उसने। मैंने धीरे से हिंदी में पूछा—क्या बोल रही है? ले क्यों नहीं गयी? बीस का नोट ही तो रखा है। ये बोल रही है कि यूरो नहीं है। फिर से देखो तुमने क्या रखा है। हमारे पास एक छोटा-सा बैग है। पासपोर्ट रखने भर का। उसमें बची-खुची विदेशी मुद्रा पड़ी रहती है। वो तभी निकलता है जब कहीं पासपोर्ट लेकर जाना होता है। मज़बूरी में जिन नोट और सिक्कों को देखना हो… क्या समझ में आएगा किस देश की चवन्नी-किसकी अठन्नी, क्या यूरो-क्या फ्रैंक! हमने यूरो की जगह स्विस फ्रैंक रख दिया था।
गांधीजी पहचान में आते हैं और वाशिंगटन, हैमिल्टन, लिंकन धीरे-धीरे आ गए हैं। वैसे नोटों की खूबसूरती/डिजाइन और जारी करने वाले देश के विकसित होने में क्या संबंध है ये भी एक रिसर्च की बात हो सकती है।

साभार : उवाच आओझा डॉट इन

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