प्रसाद की पहली कहानी ‘ग्राम’ का कला-कौशल
पुष्पपाल सिंह गंगा-जमुनी साहित्य जयशंकर प्रसाद निश्चित रूप से हिंदी कहानी के ऐसे युग-पुरुष हैं जिनकी कहानियों का ऐतिहासिक महत्त्व है। हिंदी का पहला कहानी-संग्रह ‘छाया’ भी 1912 ई. में प्रसाद जी का ही प्रकाशन हुआ। उन्होंने कहानी में एक ऐसी नई धारा का प्रवर्तन किया जिसे ‘प्रसाद संस्थान’ (प्रसाद स्कूल) के नाम से जाना […]
- पुष्पपाल सिंह
गंगा-जमुनी साहित्य
जयशंकर प्रसाद निश्चित रूप से हिंदी कहानी के ऐसे युग-पुरुष हैं जिनकी कहानियों का ऐतिहासिक महत्त्व है। हिंदी का पहला कहानी-संग्रह ‘छाया’ भी 1912 ई. में प्रसाद जी का ही प्रकाशन हुआ। उन्होंने कहानी में एक ऐसी नई धारा का प्रवर्तन किया जिसे ‘प्रसाद संस्थान’ (प्रसाद स्कूल) के नाम से जाना जाता है। कहानी में जनाभिमुख संस्कार लेकर आए प्रेमचन्द के समानान्तर अभिजात्योन्मुखी संस्कारों से युक्त इस प्रसाद संस्थान ने अपना अस्तित्व उस समय तो बनाए ही रखा, आज सामाजिक सरोकारों की कहानी के वर्चस्व के समय में भी इसकी युगवत् स्थिति बनी हुई है। प्रसाद की इस कहानी-शैली को रोमानी शैली की या भावात्मक कहानी-धारा भी कहा गया है। अपनी इस वैयक्तिक रोमान की धारा में भी प्रसाद इस रूप में सबसे विशिष्ट कथाकार हैं कि उनकी कहानियों में सामाजिक सरोकारों का समावेश अभिजात्य और कलात्मक रूप में हुआ है। उनकी प्रथम कहानी ‘ग्राम’ (1910 ई$) से ही यह विशिष्टता सामने आती है। बाद की कहानियों, विशेषत: ‘प्रतिध्वनि’ की कहानियों में उनका इस मार्ग से काफी दूर तक विचलन भी होता है किंतु प्रसाद के कहानीकार की सर्वाधिक महतीय उपलब्धि यही है कि वे छायावादी रोमांटिक प्रवृत्ति के साथ ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े रहे हैं।
‘ग्राम’ कहानी का प्रकाशन अगस्त 1910 ई$ में ‘इन्दु’ पत्रिका में हुआ। कुछ लोगों ने इस कहानी का प्रकाशनवर्ष 1911 ई$ दिया है। बहुत समय तक कुछ विद्वानों ने इस कहानी को हिंदी की प्रथम कहानी का गौरव भी प्रदान किया। भले ही यह हिंदी की प्रथम कहानी न हो किंतु समस्त हिंदी कहानी के इतिहास में और प्रसाद की अपनी कहानियों में भी ‘ग्राम’ एक ऐसा मील-स्तंभ है जिसे अनदेखा कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यद्यपि यह प्रसाद की प्रथम कहानी है किंतु इसमें उनका कहानीकार पर्याप्त परिपक्वता के साथ सामने आता है। तत्कालीन कहानी स्थिति को देखते हुए प्रसाद की कहानी-कला यहां पर्याप्त निखार पर है, इतने निखार पर कि इसके बाद की उनकी ‘प्रतिध्वनि’ संग्रह की अपनी ही कहानियों में अपरिपक्वता दिखाई देती है। ‘प्रतिध्वनि’ का प्रथम प्रकाशन 1926 ई$ में हुआ, यदि उसमें 1920-22 तक की कहानियां भी संकलित हुई हैं तो रचना-समय की दृष्टि से ‘ग्राम’ और इन कहानियों में प्राय: 12 वर्ष का अन्तर है।
सर्वप्रथम ‘ग्राम’ कहानी के विषय-चयन पर यदि विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि उसमें हिंदी कहानी के भावी का बीज-वपन होता है। ज़मींदारी प्रथा के शोषण के खिलाफ प्रेमचन्द ने बाद में बहुत-सा कथा-साहित्य लिखा किंतु इस विषय की पहल प्रसाद की इस कहानी में विद्रूपता, भ्रष्टता के खिलाफ पहली बार खड़ी होती है। बाबू मोहनलाल अपनी जिस ज़मींदारी के बल पर इतराते फिर रहे हैं वह किस प्रकार और किन हथकंडों से बनाई गई, कहानी में इसकी कलई खुलती है। जो लोग यह कहते हैं कि प्रसाद का कहानीकार जीवन के कटु यथार्थ से साक्षात्कार नहीं कर सका है, उनके लिए ‘ग्राम’ कहानी पुन: पठनीय है। यह इस मान्यता को थोथा सिद्ध करती है। प्रसाद का अतीतजीवी कलाकार किस प्रकार अपने वर्तमान की समस्या और समाज को भले ही किंचित् भावुकता से, अपनी लेखनी का विषय बनाता है, यह इस कहानी से सिद्ध होता है।
‘ग्राम’ कहानी में अपने वक्त की धड़कन को ही नहीं सुना गया है, अपितु ज़मींदारों के रहन-सहन, शान-शौकत को सामान्य जनता के जीवन के समानान्तर रख कर देखा गया है। कहानी के प्रथम खंड में ही ज़मींदार बाबू मोहनलाल को अपने ऐश्वर्य से युक्त स्टेशन पर उपस्थित किया गया है, ‘विलायती पिक का वृचिस पहने, बूट चढ़ाए, हंटिंग कोट, धानी रंग का साफा। अंग्रेजी-हिंदुस्तानी का महासम्मेलन बाबू साहब के अंग पर दिखाई पड़ रहा है। गौर वर्ण, उन्नत ललाट उसकी आभा को बढ़ा रहे हैं। स्टेशन मास्टर से सामना होते ही शेकहैंड करने के उपरांत बाबू साहब से बातचीत होने लगी।’ यह कहने का लोभ-संवरण नहीं हो पा रहा है कि यहां यह कहानी विधा के कितनी अनुकूल है, ऐसी जीवन-गंधी भाषा बाद की कहानियों में प्रसाद की काव्यात्मक संवेदना के नीचे दब जाती है। काश! प्रसाद की कहानी का भाषा-संस्कार इसी रूप में विकसित हो पाता!! आगे चलकर कहानी में बालिका की दरिद्रता का सांकेतिक वर्णन प्रसंगानुकूल किया गया है। जिस ग्रामीण जन-समाज को प्रसाद इस कहानी में चित्रित करते हैं उसके हर्षोल्लासपूर्ण जीवन, लोक-जीवन का चित्रण भी वे सावन झूलती, गीत गाती ग्रामीण महिलाओं के वर्णन द्वारा करते हैं। खेत, खेत पर मचान, रात में मचान पर खेत की रखवाली करते बालक, दीन बालिका का ‘क्षुद्र कुटीर’ (झोंपड़ी), ये सब ग्रामीण जीवन की प्रामाणिक झांकी उपस्थित करते हैं। प्रसाद अलग से टिप्पणी करके ग्रामीण समाज की गरीबी का चित्रण यहां नहीं करते हैं। कहानी के घटना-क्रम और क्रिया-कलाप के मध्य यह वर्णन स्वाभाविकता से आता है। बालिका का मलिन वेश, ‘क्षुद्र गृह’ के एक मिट्टïी के बर्तन में से कुछ वस्तु निकालकर बाबू मोहनलाल को देना, फूस की चटाई पर बैठकर दुखिया स्त्री की व्यथा-कथा सुनने, आदि के सूक्ष्म संकेतों से इस समाज की आर्थिक दुरावस्था का चित्रण स्वाभाविक रूप में होता चलता है, जिससे लगता है कि कहानीकार जिस समाज का वर्णन कर रहा है, उस पर उसकी पूरी पकड़ है।
कहानी के इस दूसरे खंड में प्रसाद अपने नायक बाबू मोहनलाल को इसी प्रकार मार्ग भुला देते हैं, जैसे उनके समय की तिलस्मी कहानियों में होता था। अजाने ही ‘ग्राम’ कहानी में यह कथानक-रूढि़ आ गई है।
तीसरे खंड का प्रारंभ प्रसाद 15 वर्षीय बालिका के सौंदर्यांकन से करते हैं, उसे उपमा तो छायावादी शैली में देते हैं—’आलोक से उसका अंग-घन में विद्युतरेखा की तरह चमक रहा था’। किंतु ‘आकाशदीप’ की कहानियों के समान यहां केवल उसके सौंदर्य में ही उलझे नहीं रह जाते, अपनी काव्यात्मकता पर अंकुश रख झट-से आगे बढ़ लेते हैं। बालिका से मोहनलाल का संवाद भी अत्यंत स्वाभाविक रूप से, छोटे-छोटे वाक्यों में, बातचीत के स्तर पर वर्णित हुआ है। प्रेमचन्द के हिन्दी में आने से पहले (1910 ई. में ही) यह कहानी-कला की दृष्टि से एक बहुत बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि अपनी कहानियों के विकास के प्रथम चरण में प्रेमचंद ‘सौत’, ‘शंखनाद’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘नमक का दरोगा’ आदि में आदर्शीकृत समाधान प्रस्तुत कर रहे थे। यहां यह सिद्ध करने का मंतव्य बिलकुल नहीं है कि प्रसाद प्रेमचन्द से बड़े कहानीकार थे, न ही तुलनात्मक आलोचना की आज ज्यादा सार्थकता है।
विवेच्य कहानी के पांचवे खंड में प्रसाद ने बड़ी कुशलता से मानवीय व्यवहार में मूल्यों का प्रश्न उपस्थित किया है। एक ओर तो बाबू मोहनलाल के पिता कुंदनलाल का ओछा व्यवहार है जिससे वे किसी भी प्रकार से पहले ज़मींदार से उनकी संपत्ति और ज़मींदारी हड़प लेना चाहते हैं और दूसरी ओर उस दुखिया स्त्री के पति का सीधापन है। यह वर्णन इसलिए भी मार्मिक लगता है कि हर युग में सीधे-सादे आदमी के छले जाने की यही नियति है।
‘ग्राम’ में बोलचाल की भाषा की जो स्वाभाविकता मिलती है, वह बाद में कलात्मकता के आग्रह में प्राय: दब गई है। मोहनलाल का यह पूछना ‘तुम्हारी मां कहां है?’ और बालिका का उत्तर ‘चलिए, मैं लिवा चलती हूं’ कितना स्वाभाविक बन पड़ा है। इसी प्रकार बाद की कहानियों में प्रसाद भला इतनी सुविधा से कहीं यह कह पाए हैं, ‘मेघ घिर आए, जल वेग से बरसने लगा, अंधकार और घना हो गया है।’ जिस प्रकार ऊपर ‘लिवा चलती हूं’ का प्रयोग बताया गया है, उसी प्रकार ‘आप कृपा करके सुनावें’ ‘बूट चढ़ाए’ (पहने नहीं कहते)’। ‘धड़ाधड़’ यात्री लोग उतरने-चढऩे लगे, ‘आप इस वक्त कहां से आ रहे हैं’, जैसे प्रयोग प्रसाद ने अपनी भाषा में कर उसको जीवन-गंधी रूप प्रदान किया है।
अंधकार-रूपी अंजन के अग्र-भाग स्थित आलोक के समान चतुर्दशी की लालिमा को लिए हुए चंद्र देव प्राची में हरे-भरे तरुवरों की आड़ में से अपनी किरण-प्रभा दिखाने लगे, आदि। तत्सम शब्दावली के प्रयोग का, बिना प्रसंग की बाध्यता के, आग्रह भी यहां देखा जा सकता है ‘घर की ओर प्रत्यावर्तन (‘लौटना’ कितना मौज़ू रहता) कर रहे हैं’। ‘क्षुद्र कुटीराभिमुख’, आदि ऐसे ही प्रयोग हैं। अनुप्रास-युक्त पद-मैत्री की रचना की झोंक में कहीं वे ‘महारानी’ को ‘महाराणी’ के रूप में भी प्रयुक्त करते हैं ‘सुशासनकारिणी महाराणी के समान, विहग प्रजा-गण को।’ भाषा में कुछ व्याकरण-दोष भी हैं जिन्हें प्रसाद सहज ही दूर कर सकते थे किंतु इन दोषों का परिहार नहीं हो सका है। हिंदी कहानी के इतिहास में ‘ग्राम’ का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि अब तक, प्राय: 1900 ई. से ही, जिन कहानियों को हिंदी की प्रथम कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है, उनमें से किसी में भी ऐसी साहित्यिकता और कलात्मकता नहीं है जैसी इस कहानी में प्राप्त होती है। वस्तुत: ‘ग्राम’ प्रसाद की ही नहीं समस्त हिंदी कहानी के इतिहास की एक गौरवपूर्ण उपलब्धि है।


