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कथा-शिल्प की विविधता के कथाकार कमलेश्वर

पुष्पपाल सिंह पुण्य तिथि  27 जनवरी यह भी एक बड़ी विडम्बना है कि जब कोई बहुत अधिक सशक्त लेखक हमारे सन्निकट के वर्तमान में होता है तो विभिन्न प्रकार की साहित्यिक राजनीति के चलते, अगला-पिछला हिसाब चुकता करते समय उसका समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाता है। कमलेश्वर के कहानीकार का कद बहुत बड़ा है। ‘कितने […]

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पुष्पपाल सिंह

पुण्य तिथि  27 जनवरी

ह भी एक बड़ी विडम्बना है कि जब कोई बहुत अधिक सशक्त लेखक हमारे सन्निकट के वर्तमान में होता है तो विभिन्न प्रकार की साहित्यिक राजनीति के चलते, अगला-पिछला हिसाब चुकता करते समय उसका समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाता है। कमलेश्वर के कहानीकार का कद बहुत बड़ा है। ‘कितने पाकिस्तान’से वे उपन्यासकार के रूप में भी अपना विशिष्ट स्थान बना लेते हैं।  यहां उनके कहानीकार के प्रदेय का ही समुचित मूल्यांकन करने का मन है। उन्हें गु$जरे अब तीन बरस हो गए हैं—कुछ पत्रिकाओं के उन पर विशेषांक आए, कुछ में उन पर विशेष सामग्री दी गयी, इस सबके बाद भुला से दिए गए। अब जब वे नहीं रहे तो यह अपेक्षणीय है कि यह विचारा जाए कि हिंदी के समस्त कहानी-साहित्य में उनकी जगह कहां और किस रूप में बनती है।
आधुनिक हिंदी कहानी का व्यवस्थित इतिहास-क्रम प्राय: एक सौ दस वर्षों का हो चला है। माधव राव सप्रे (एक टोकरी-भर मिट्टी-1901) से लेकर अब तक न जाने कितने ‘कथा-ऋषियों'(मास्टर्स ऑफ स्टोरी) ने अपनी कलम से हिंदी कहानी को समृद्ध किया है। इक्कीसवीं शती का तो अभी प्रथम दशक ही बीता है, यदि बीसवीं शती की कहानी पर दृष्टिपात करें तो उसके इतिहास के दो स्पष्ट विभाग हैं : पुरानी कहानी और नयी कहानी। कालक्रम की दृष्टि से इसे बीसवीं शती के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध की कहानी भी कहा जा सकता है। बीसवीं शती के प्रारंम्भिक दशक से ले कर 1950 ई$  तक का समय एक काल-खंड है तो 1951 ई$ से अद्यतन का दूसरा।
1950 ई$ से पहले के कहानी साहित्य में प्रेमचंद निर्विवाद रूप से एक शलाका पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हैं। नयी कहानी से लेकर अद्यतन के कहानी-इतिहास पर यदि एक निष्पक्ष दृष्टि डाली जाए तो यह बात बहुत स्पष्टत: उभर कर आती है कि प्रेमचंद के बाद हिंदी कहानी के सर्वाधिक समर्थ और सशक्त हस्ताक्षर कमलेश्वर हैं। नई कहानी को स्थापित करने और उस संपूर्ण कथा-आंदोलन को एक निश्चित दिशा देने, उसका मूल्यंाकन करने का बीड़ा जिस सक्रिय रूप में उन्होंने उठाया और बाद में समांतर कथा आंदोलन को जिस रूप में उन्होंने नेतृत्व प्रदान किया और उसे पल्लवित-पुष्पित कर साहित्य को समाज से जोड़ा, वह सब एक महती कार्य था जिसे उनका कोई अन्य समकालीन नहीं कर सका। वे कहानी के एक ऐसेसक्रिय कार्यकर्ता थे जो कहानी को सामाजिक क्रांति, बदलाव का एक महत्वपूर्ण अस्त्र मानते थे। आज नहीं, बहुत देर से, मैं यह मानता रहा हूं कि प्रेमचंद के बाद के समय में, अब तक, वे कहानी के सबसे बड़े कलाकार हैं। नई कहानी के लगभग सभी प्रतिष्ठित नाम धीरे-धीरे चुक गए, कुछ ने कहानी लिखना भी बंद कर दिया किंतु कमलेश्वर निरंतरता में जीवनपर्यंत श्रेष्ठ कहानी की रचना में प्रवृत्त रहे हैं, कथन के साक्ष्य में यहां कुछ कहानियों के नाम दिए जा सकते हैं जो उनके अंतिम वर्षों या कहें पिछले दशक की उपलब्धिपूर्ण कहानियां हैं। ‘कमलेश्वर : कहानी का संदर्भ'(1979, मैकमिलन एंड कं.) मेरी पुस्तक के प्रकाशन के दौरान (1977-78 में) एक वाक्य, जो उसमें लिखा था, जो प्राय: कुछ ऐसा था : ‘प्रेमचंद के बाद के समय में कमलेश्वर हिंदी कहानी के सबसे सशक्त पुरोधा हैंÓ—पर उसके संपादन विभाग/संपादक (स्व$ डॉ. माहेश्वर) से मेरी बहस चलती रही, वे साहित्यिक राजनीति के चलते, उस वाक्य को पुस्तक में देने को तैयार नहीं थे। इसी आशय का लेख जब किसी पत्रिका में प्रकाशित हुआ तो देहरादून से वरिष्ठ कथाकार शशिप्रभा शास्त्री का पत्र आया कि यह आपने कैसे कह दिया कि कमलेश्वर प्रेमचंद के बाद के समय में सर्वाधिक सशक्त और सर्वाधिक लोकप्रिय कहानीकार हैं, आदि। मुझे उस पुस्तक से यह वाक्य हटाना पड़ा क्योंकि तब मैं अपना यह कथन मनवाने की स्थिति में नहीं था। (मैं इसी बात से गद्गद् था कि मैकमिलन जैसे बड़े प्रकाशन संस्थान से यह पुस्तक आ रही है)।
अब कमलेश्वर को पुन: और निरंतरता में पढ़ते हुए, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात, मणिपुर, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आदि प्रदेशों की यात्राा करते हुए, विभिन्न विश्वविद्यालयों के शोध-प्रबंधों और संगोष्ठियों से जुड़ते हुए, मेरा यह अनुभव और मान्यता दृढ़ होती गई कि प्रेमचंद के बाद के समय में कमलेश्वर हिंदी के सबसे अधिक पढ़े जाने वाले और अन्य भाषा-भाषियों में अनुवाद, आदि के माध्यम से सबसे अधिक पढ़े जाने वाले लोकप्रिय, लाड़ले कहानीकार हैं। नई कहानी और बाद के समय, समकालीन समय तक के एक-एक प्रतिष्ठित नाम से तुलना कर लीजिए  निश्चित रूप से कमलेश्वर शीर्ष पर रहेंगे। यद्यपि आज तुलनात्मक आलोचना का समय नहीं रह गया है, कोई कहीं आगे है, तो कोई कहीं, किंतु फिर भी कमलेश्वर के कहानीकार की लोकप्रियता, कहानी को वैश्विक समस्याओं तक ले जाने का उत्कट बौद्धिक विमर्श, कहानी का विराट फलक और शैल्पिक समृद्धि, नई-नई कथा-युक्तियां और विशेषत: फंतासी का अद्भुत प्रयोग कर कथ्य की मारक-क्षमता में अभिवृद्धि, भाषा का टटका रचाव और इस सबके साथ कहानी को कहानी बनाए रखने का किस्सागोई का हुनर, आदि कमलेश्वर को निश्चिय ही प्रेमचंद के बाद के सर्वाधिक सशक्त कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं।
देश और दुनिया की विकरालतम समस्याओं को कहानी का कथ्य बनाते हुए उन्होंने अपने परवर्ती समय में जो बेजोड़ कहानियां—’तुम्हारा शरीर मुझे पाप के लिए पुकारता है!”सफेद सड़कÓ, ‘इंतजारÓ, ‘दालचीनी के जंगल’आदि के रूप में दी हैं, उनको पढ़कर सहज ही प्रथम अनुभूति यह होती है कि क्या कहानी इस गहरे विमर्श और रूप (फॉर्म) में भी लिखी जा सकती है, या कहें कि हिंदी कहानी ने अपनी कूवत किस रूप में विकसित की है। यदि यह जानना हो तो कमलेश्वर की इन कहानियों का पाठ नितांत आवश्यक है। देश और दुनिया में फैली नाजीवादी ताक़तों का पुरजोर विरोध जिस रूप में ‘सफेद सड़क’कहानी में बॉन और अयोध्या के संदर्भों में किया गया है, वह आश्चर्य में डाल देता है। बॉन के वॉर मेमोरियल में बनी यह सड़क बेकसूर मासूम लोगों की हड्डियों की बनी है, जिन्हें नाजियों ने गैस चैंबर्स में मारा था, उन्हीं की हड्डियों की यह बजरी है।’इस प्रसंग को जिस रूप मेें बाबरी-मस्जिद अयोध्या प्रकरण से जोड़ा गया है, उसकी कलाकारिता श्लाघ्य है।
कमलेश्वर की कहानियों में कथ्य और शिल्प—दोनों स्तरों पर जितना वैविध्य है, उतना उनके किसी अन्य समकालीन कहानीकार में नहीं है। कथ्य के वैविध्य ने उनके कथा-फलक को जो विस्तार दिया है, उसमें अपने समय के अनेक महत्वपूर्ण प्रश्न और समस्याओं से वैचारिक स्तर पर जूझा गया है। यदि नई कहानी के समय से ही उनकी सशक्त कहानियों के आगे दृष्टि डाली जाए तो आर्थिक विवशता में टूटती नारी (राजा निरबंसिया), अपने आर्थिक संघर्षों में तिल-तिल गलती हुई और पति द्वारा दूसरी शादी करने पर भी न टूटने वाली देवी की मां का उसे गंभीर बीमारी में भी देखने न जाने का निर्णय, जो नारी अस्मिता की रक्षा का अपने प्रकार का दृढ़ पग है (देवा की मां), पार्वती की याद में मंदिर न बनवाकर नीली झील की दलदली $जमीन को $खरीदकर पक्षियों को सुरक्षित रखने का मानवीय प्रकल्प (नीली झील), वेश्या जीवन पर लिखते हुए जुगनू की पीड़ा से साक्षात्कार (मांस का दरिया), कस्बे के वैद्य और शिवराज जैसे पात्र (गर्मियों के दिन, कस्बे का आदमी), आर्थिक मुहानों पर अपनी तकलीफों से लड़ता सामान्य जन (जोखिम, अपने देश के लोग), प्रशासनिक व्यवस्था की कलई खोलती स्थितियां (जार्ज पंचम की नाक), बिहार के अकाल और सूखे की मानवीयता को लीलने वाली स्थितियां (इतने अच्छे दिन), स्वतंत्रता के लिए कुर्बानी देने वाले देशभक्तों का मोहभंग (मानसरोवर के हंस), कस्बे से महानगर में स्थानांतरण करती हुई जनसंख्या का महानगर में खोना (खोई हुई दिशाएं, अपना एकंात), पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजी की क्रय-शक्ति कि वह हर उस चीज़ का आयातकर सकती हैं, जिसे वह प्राप्त करने की इच्छा रखती है (रातें), देश में सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारियों की जीवनशैली और कश्मीर के आतंकवादियों द्वारा देश में राजनीतिक गतिविधियों का नियमन (तुम्हारा शरीर मुझे पाप के लिए पुकारता है), भोपाल गैस त्रासदी के भयावह अमानवीय परिणाम (दालचीनी के जंगल) आदि सशक्त और चर्चित कहानियों द्वारा उनकी कथा के व्यापक भूगोल का परिचय मिलता है। इसी कारण उनके खाते में सर्वाधिक यादगार, सर्वाधिक चर्चित और अत्यंत सशक्त कहानियां मिलेंगी। शैल्पिक स्तर पर भी उन्होंने जितने अधिक प्रयोग अपनी कहानियों में किए हैं, वे किसी अन्य कहानीकार में नहीं मिल पाएंगे, फंतासी का तो उन्होंने सर्वाधिक कौशलपूर्ण और सफल प्रयोग किया ही, वे फंतासी के बादशाह हैं। फंतासी का इतना अधिक सफल प्रयोग करने वाले कहानीकार कमलेश्वर के बाद उदय प्रकाश ही हैं। भाषा-वैभव की दृष्टि से भी कमलेश्वर की कहानियां बेजोड़ हैं—भाषा में सरलता का सौंदर्य, जहां आवश्यक है वहां उसमें रोमानी बोध और काव्यात्मकता और बतकही-का-सा गुण बरकरार रखते हुए किस्सागोई की तर्ज—सभी दृष्टियों से कहानी के लिए एक मानक भाषा है! कमलेश्वर अपनी श्रेष्ठ कहानियों में जो मानक पिछली कहानी में बनाते हैं, अगली कहानी में स्वयं उसका अतिक्रमण कर कहानी को एक और ऊंचाई पर खड़ा कर देते हैं। यह किसी भी श्रेष्ठ कथाकार का एक विरल गुण है।

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