देव-शिल्पी विश्वकर्मा
पूजन 27 अक्तूबर
रामशरण युयुत्सु
सृष्टि के निर्माता भगवान विश्वकर्मा के बिना, सृष्टि के किसी भी भाग को जान पाना कठिन ही नहीं, असंभव भी है। उन्हें सृष्टि का आदि रचयिता तथा शिल्प विज्ञान का जन्मदाता कहा गया है। उनके जीवन वृत्त को जानने के लिए वृहद् विश्वकर्मा पुराण तथा कार्यों की जानकारी के लिए वास्तु-शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना जरूरी है। ‘विश्वकर्मा’ शब्द का प्रयोग विश्व के रचयिता के रूप में सर्वशक्तिमान परमात्मा और सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के नाम के साथ भी हुआ है। मान्यता है कि सूक्ष्म रूप विश्वकर्मा ने ही मनुष्य रूप (मानव स्वरूप) में अवतार लिया है। मनुष्य रूप में अवतार लेने पर उन्हें देवशिल्पी, देवर्षि, ब्रह्मर्षि, शिल्पाचार्य, देवाचार्य, विश्वात्मा, शवोश्वर, तक्षक, अधिनायक, ईश्वर, आनन्दन, जगतिश्वर, आदित्य, भौवन, प्रजापति तथा त्रिदशाचार्य आदि 108 नामों से उच्चरित किया जाता है। सृष्टि के आदि शिल्पाचार्य विश्वकर्मा का जन्म मानवस्वरूप में आठवें वसु प्रभास ऋषि के आश्रम तथा देवगुरु बृहस्पति की बहन योगसिद्धा (योगसक्ता) की कोख से हुआ। मस्तक पर मुकुट, कवच, कुण्डल, कमरबंद धारण किए हुए, जटाजूट तथा श्वेत दाढ़ी वाले, एक हाथ में गज, दूसरे में सूत्र, तीसरे में जलपात्र (कमण्डलु) और चौथे में पुस्तक (शिल्पशास्त्र) धारण किए, हंस के वाहन पर भगवान विश्वकर्मा सदैव विराजमान रहते हैं। भविष्य-पुराण, स्कंद पुराण तथा वृहद (वृद्ध) वशिष्ठï पुराण के अनुसार शिल्पाचार्य विश्वकर्मा का जन्म माघ मास में होना सिद्ध माना गया है।
माघे शुक्ले त्रयोदश्यां दिवापुण्ये पुनर्वसौ।
अष्टविंशति में जातो विश्वकर्मा भवानि च॥
अर्थात माघ मास के शुक्ल पक्ष में त्रयोदशी तिथि के पुनर्वसु नक्षत्र के अट्ठाईसवें अंश में मैं विश्वकर्मा के रूप में जन्म धारण करता हूं। स्कन्द पुराण के अनुसार काशी विश्वेश्वर की आज्ञा से लोक कल्याण के लिए इसी दिन को विश्वकर्मा जी परम आश्चर्यजनक पर्वतों के राजा इंद्रकील पर्वत पर सब देवों में शोभायमान हुए, परन्तु आज भी इनके श्रद्धालुओं में ठीक से जानकारी नहीं होने से दीपावली के एक दिन बाद अन्नकूट तथा विश्वकर्मा जयंती के रूप में मनाया जाता है, जबकि यह जयंती न होकर पूजनोत्सव ही है।
विश्वकर्मा सर्व देवों के आचार्य और आठ प्रकार की सिद्धियों के पिता हैं। शिल्प स्थापत्यकला, वास्तुकला, चित्रकला, काष्ठकला, मूर्तिकला, प्रासाद निर्माण कला आदि कलाओं के जन्मदाता हैं। उन्होंने देवों के लिए सुंदर आभूषण और दिव्य तथा स्वयं से चलित विमानों का सृजन किया। देवताओं की विशाल सभाओं, पांडवों के इंद्रप्रस्थ, शिव के लिए सोने की लंका, कृष्ण की द्वारिकापुरी, शंकर की कैलाशपुरी, इंद्र की अमरावती, कुबेर की अल्कापुरी, काशीपुरी आदि का सृजन विश्वकर्मा ने किया। रामेश्वर के सेतुबंध का निर्माण उनके अंशावतार नल-नील द्वारा तथा अजन्ता-एलोरा की गुफाएं, उत्तर-दक्षिण के असंख्य देवस्थान, भारत भर के मंदिर कुएं-बावड़ी इत्यादि श्री विश्वकर्मा के वंशजों के कला-कौशल की पहचान हैं। श्री विश्वकर्मा के ‘सत्यम्-शिवम्-सुंदरम्’ रूप के दर्शन होते हैं। विराट स्वरूप श्री विश्वकर्मा के दर्शन, ऐश्वर्य, अद्वितीय और अलौकिक हैं।
भगवान विश्वकर्मा केवल नगर तथा गृह (भवन) आदि के ही निर्माता ही नहीं थे, अपितु उन्होंने ब्रह्मा को कण्डिका, शक्ति, विष्णु को पणव तथा कौमुदी गदा, राम को धनुष, इंद्र को कवच तथा वज्र, शंकर को त्रिशूल, कृष्ण को सुदर्शन-चक्र, अग्नि को परशु, धर्मराज को दण्ड, परशुराम को कलात्मक शिव-धनुष, राजा रघु को सारंग-धनुष भेंट स्वरूप प्रदान किए थे। महाभारत के युद्ध के समय श्री विश्वकर्मा ने आधुनिक अस्त्र-शस्त्र और कलात्मक रथों की रचना की थी। श्री विश्वकर्मा द्वारा रचित एक ‘दिव्य-दृष्टि’ नामक यंत्र भी अनुपम और अलौकिक था। इस यंत्र से राजभवन में बैठकर भी युद्ध-मैदान के दृश्य देखे जा सकते थे। यही यंत्र आजकल दूरदर्शन (टेलीविजन) कहलाता है। शिल्प संहिता में विश्वकर्मा निर्मित ‘दूरवीक्षण-यंत्र’ का वर्णन किया गया है।
शिल्पाचार्य विश्वकर्मा ने अथर्व-वेद के उपवेद, वास्तु-शास्त्र, शिल्पशास्त्र, श्री विश्वकर्मा-प्रकाश, स्थापत्यदेव जैसे महान ग्रंथों की रचना की है। विश्व के कल्याण के लिए उनके द्वारा उत्पन्न पांच पुत्रों यथा मनु ने लोहकर्म, मय ने काष्ठ शिल्प कर्म, त्वष्टा ने ताम्र-कांस्य शिल्प कर्म, शिल्पी ने शिलाकर्म तथा देवज्ञ ने सुवर्ण कर्म (स्वर्ण-रजतकार्य) को स्थापित किया। इनकी संतान आज भी लोक-कल्याणार्थ अनेक कष्टों को सहकर भी सृष्टि को क्रियाशील बनाने में संलग्न है।