मात्र 19 साल की उम्र में फांसी का फंदा चूमा था खुदीराम ने
आज बलिदान दिवस पर
नयी दिल्ली, 10 अगस्त (भाषा)। जंग-ए-आजादी के इतिहास में एक ऐसे क्रांतिकारी का भी नाम है जिसने मात्र 19 साल की उम्र में हंसते…हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था।
पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में तीन दिसंबर 1889 को जन्मे खुदीराम बोस ने आजादी को अपने जीवन का सबसे परम ध्एय बना लिया था और इसीलिए वह नौवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता के आन्दोलन में कूद पड़े। वह रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने और वंदेमातरम लिखे पर्चे वितरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इतिहासकार शिरोल ने खुदीराम के बारे में लिखा है कि बंगाल का यह वीर लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय था और वे उसे अपना आदर्श मानते थे।
इस बालक को जब 28 फरवरी 1906 को गिरफ्तार किया गया तो वह कैद से भाग निकला। लगभग दो महीने बाद उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया। प्रोफेसर एनकेपी सिन्हा के अनुसार खुदीराम का क्रांतिकारी चेहरा बचपन में ही नजर आने लगा था। एक बार जब क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन से जुड़ी गुप्त समिति के सदस्य और महान क्रांतिकारी नेता हेमचंद्र कानूनगो साइकिल से जा रहे थे तो खुदीराम ने उनका रास्ता रोककर अंग्रेजों को मारने के लिए उनसे बंदूक मांगी। सिन्हा के मुताबिक खुदीराम की इस मांग से हेमचंद्र यह सोचकर हैरान रह गए कि इस बालक को कैसे पता चला कि उनके पास बंदूक मिल सकती है। आगे चलकर खुदीराम ने हेमचंद्र के नेतृत्व में कई क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। खुदीराम ने छह दिसंबर 1907 को नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया, लेकिन वह बच गया। उन्होंने 1908 में दो अंग्रेज अधिकारियों वाटसन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया, लेकिन ए दोनों भी बच निकले।
बंगाल का यह वीर क्रांतिकारी मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा था जिसने कई क्रांतिकारियों को कड़ी सजा दी थी। उन्होंने अपने साथी प्रफुल्ल चंद चाकी के साथ मिलकर किंग्सफोर्ड से बदला लेने की योजना बनाई। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया लेकिन उस समय इस गाड़ी में किंग्सफोर्ड की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिलाएं सवार थीं जो मारी गईं। दोनों क्रांतिकारियों को इसका काफी दुख हुआ।
अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। खुदीराम पकड़े गए, जबकि प्रफुल्ल चंद चाकी ने खुद को गोली से उड़ा लिया।
उन्नीस साल की उम्र में 11 अगस्त 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में खुदीराम को फांसी दे दी गई। इस बलिदान के बाद वह इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे ऐसी धोती बुनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।