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हरियाणवी को संवैधानिक दर्जा देने की पहल

सांसदों द्वारा भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने के लिए रखे गए संविधान संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान हरियाणवी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग जोर पकडऩे लगी है। यदि हरियाणवी भाषा को  सवैंधानिक दृष्टि से संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाता है […]
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चित्रांकन : संदीप जोशी

सांसदों द्वारा भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने के लिए रखे गए संविधान संशोधन विधेयक पर चर्चा के दौरान हरियाणवी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग जोर पकडऩे लगी है। यदि हरियाणवी भाषा को  सवैंधानिक दृष्टि से संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाता है तो इससे हरियाणा ही नहीं, अपितु उत्तर भारत की एक ऐसी भाषा का सरंक्षण होगा, जो वैदिक काल से समस्त उत्तर भारत को अपने शब्दों के माध्यम से सींचने का काम कर रही है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हरियाणवी बोली का सीधा सम्बन्ध वैदिक काल से है। वैदिक काल के असंख्य शब्द हरियाणवी बोली में आज भी ज्यों के त्यों विद्यमान हैं। वैदिक काल में जहां संस्कृत साहित्य की भाषा थी, वहीं  हरियाणवी लोकभाषा के रूप में जनमानस की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का काम कर रही थी। इसका प्रमाण हरियाणवी भाषा में अनेक वैदिक कालीन शब्दों का समायोजन है।
संस्कृत के असंख्य शब्द हरियाणवी भाषा में समाहित हैं। इतना ही नहीं, संस्कृत के पश्चात् प्राकृत भाषा का स्वरूप जो 2000 ई. पू. से लेकर 900 ई. तक चलता रहा, में भी असंख्य शब्द हरियाणवी भाषा में देखने को मिलते हैं। इसके साथ-साथ अपभ्रंश भाषा का विकास 500 ई. से 1000 ई. तक माना जाता है। इसमें भी हरियाणवी भाषा के अनेक अंश दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त गोरखनाथ की वाणी का यह उदाहरण – ‘कंटक देश, कठोर नर, भैंस मूतर को नीर, करमों का मार्या फिरै, बांगर बीच फकीर’ हरियाणवी भाषा का उदाहरण नहीं, तो क्या है? आदिकाल में चन्द्र्रबरदाई द्वारा लिखे गए पृथ्वीराज रासो ग्रंथ में हरियाणवी अंश देखने को मिलते हैं। जैसे – ‘भल्ला हुआ जो मारिया बहिणु म्हारा कन्त’, हरियाणवी नहीं तो क्या है। तत्पश्चात् अकबरकालीन कवि वल्य की हस्तलिखित पुस्तक कुकड़ा मंजारी चपउई पुस्तक में ‘कूकड़ी कूकड़ा जीवा लगई-सा मंजरी तव बिलखी भमई’, में भी हरियाणवी का ही बोलबाला है। तत्पश्चात् कबीर जैसे संत ने भी अपनी वाणी में हरियाणवी के ‘खोद-खाद धरती सहै, चालती चाक्की देखकै दिया कबीरा रोए’, आदि अनेक ऐसे हरियाणवी भाषा के उदाहरण दिए हैं, जो इसकी प्राचीनता के द्योतक हैं।
संत आत्मानन्द ने अपनी ‘राम तेरा रम्या हुआ जर जर म्हं’, ने भी हरियाणवी भाषा की परम्परा को आगे बढ़ाया। इसके पश्चात्  सूरदास, जो स्वयं हरियाणवी थे, ने भी अपनी रचनाओं में हरियाणवी लोकभाषा को प्रमुख स्थान प्रदान दिया।  इस भाषा को और अधिक उत्साह उस समय अधिक मिला, जब दिल्ली में अमीर खुसरो ने हरियाणवी बोली में जकडिय़ां, कड़कों, नुस्खों, सूखनों आदि की रचना कर इसकी प्रामाणिकता का सबूत अपने साहित्य लेखन के माध्यम से दिया, जिसका सशक्त उदाहरण – ‘खीर पकाई जतन से, चरखा दिया चलाय, आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय’ –  है? जिसे लोगों ने खड़ी बोली कहा उसका विकास भी हरियाणवी से ही हुआ। उसके पश्चात् संतोख सिंह, हाली, बाबा फरीद आदि कवियों ने हरियाणवी भाषा एवं शब्दों का सदुपयोग करते हुए अपनी रचनाओं को अंजाम तक पहुंचाया। इतना ही नहीं, दक्खिनी हिन्दी में हरियाणवी भाषा के अनेक ऐसे शब्द पाए जाते हैं, जिससे इसकी प्रामाणिकता को और अधिक बल मिलता
है। कहना न होगा, रामायण, महाभारत, गीता सरीखे ग्रंथ भी हरियाणवी भाषा में विद्यमान हैं।
इस प्रकार यह परम्परा अंग्रेजों तक आ पहुंची। जॉर्ज ग्रियर्सन ने लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया में बांगरू, हरियाणवी तथा जाटू के नाम से इस भाषा को कलमबद्ध किया। रोहतक के तत्कालीन डी.सी.  ई. जोसफ ने हरियाणवी भाषा की जाटू ग्लासरी बनाई। हरियाणवी पर बांगरू का सरंचनात्मक अध्ययन के नाम से डॉ. जगदेव सिंह ने डिस्क्रीप्टिव ग्रॉमर ऑफ बांगरू के माध्यम से हरियाणवी लिपि का विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर इसकी प्राचीनता एवं प्रामाणिकता को स्पष्ट किया।
डॉ. नानक चन्द ने हरियाणवी भाषा का उद्गम और विकास ग्रंथ के माध्यम से भी इस भाषा की प्रामाणिकता को सिद्ध करने का प्रयास किया है। इसके साथ ही शंकरलाल यादव तथा रघुवीर मथाना ने हरियाणवी लोक साहित्य के इतिहास के माध्यम से हरियाणवी का जो इतिहास लिखा है, वह इसकी समृद्ध एवं साहित्यिक उर्वरा परम्परा को दर्शाता है।
इस प्रकार हरियाणा की वैदिक कालीन लोकभाषा, जिसे अब हरियाणवी के नाम से जाना जाता है, में आज भी लगभग एक हजार प्रामाणिक ग्रंथ इस भाषा में उपलब्ध हैं। साहित्य के लोकगीत, रागनी, नाटक, सांग, हास्य-नाटिकाएं, निबंध, उपन्यास, कहानी, गज़ल, शेर, कड़के, कहावतें, लोकोक्तियां, मुहावरे, कथाएं, लोकगाथाएं, लोरियां, दोहे, लोकपद, मल्हावे, सूक्तियां, बालगीत, तुकबंदियां, बुझावल, पहेलियां, वाणीविलास, खेल गीत, ढकोसले आदि असंख्य अनेक ऐसी विधाएं हैं, जिनमें हरियाणवी लोकभाषा का साहित्य बिखरा हुआ पड़ा है। आज हरियाणवी दिल्ली के आसपास के सम्पूर्ण क्षेत्र में समझी एवं बोली जाती है, जिसका दायरा सम्पूर्ण उत्तर भारत को समेटे हुए है। ऐसे में हरियाणा के सभी विद्वत् समाज तथा राजनीतिक प्रतिनिधियों को अपनी हरियाणवी बोली को लेकर एक ऐसी मुहिम चलानी चाहिए, जिसके माध्यम से हरियाणवी भाषा के पारम्परिक इतिहास को बचाया जा सके। आज इस मुद्दे को महज दो सांसदों ने संसद में उठाया है, जबकि इस मुद्दे पर तो दलगत राजनीति से ऊपर उठकर हरियाणा ही नहीं, अपितु आस-पास के राज्यों के सभी सांसदों को एकजुट होकर राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री से मुलाकात कर हरियाणवी भाषा को भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए प्रस्ताव रखना चाहिए।
हरियाणवी वैदिक कालीन भाषा : हरियाणवी भाषा का मूल वैदिक काल की जड़ों में समाहित है। यही कारण है कि असंख्य ऐसे शब्द जो वैदिक कालीन भाषा में प्रचलित हैं, हरियाणवी भाषा में भी समाहित हैं। उदाहरण के तौर पर आरणी, आअ्ल, आस, खर, खारी, गौ, जणी (स्त्रियों का समूह), जार (अवैध प्रेमी), बाण, नाड़ी, वाह, कार, करसी, फाअ्ल, सिरी आदि हू-ब-हू शब्दों के अतिरिक्त तत्सम् शब्द जैसे- तर्कु का ताकू, झष का झक्ख, जनी का जणी, जत्रु का जात्थर, गोष्ठ का गितवाड़ा, गर्तारूह का गढ़वाला, गुर का गरल, नुकूल का न्यौल, नन्नाद्य का नणदी, परुस का पुरस, पटुर का पट्ट, पीलू का पीह्ल, मिंह् का मीं, यौवन का जोब्बन, लवण का लामणी, वकल का बक्कल, महिष का म्हैस, श्याण्डक का साँड्डा, सिक्के का छीक्का, स्थूणा का थूण आदि असंख्य जिनका वर्णन भी नहीं किया जा सकता, ऐसे शब्द हैं, जो हरियाणवी को वैदिक कालीन होने की पुष्टि करते हैं।
संस्कृत और हरियाणवी : वैदिक संस्कृत के साथ-साथ लौकिक संस्कृत की यदि हरियाणवी के साथ तुलना की जाए, तो ये दोनों ही भाषाएं साथ-साथ लोकजीवन में संवाहित होती रही हैं। इसका पुष्ट प्रमाण दोनों ही भाषाओं में समान रूप से प्रयोग होने वाले शब्दों के रूप में देखा जा सकता है। अंबर, करद, कुरंड, कोट, गाध, चारण, चित, चिता, चीर, चूड़ा, छेद, जग, दया बर्हि, मण, रंक, रण, रस, राज, रीढ, रूप, सार आदि ऐसे अनेक  शब्द हैं, जो दोनों ही भाषाओं संस्कृत तथा हरियाणवी में समान रूप से लिखित तथा उच्चरित रूप में प्रयोग किए जाते हैं। यदि सांस्कृत से हरियाणवी भाषा में आए हुए सभी तद्भव शब्दों का ब्योरा देने लगे तो यह पृष्ठ भी छोटा पड़ जाएगा। उदाहरण के लिए – अग्रत: से अगेत्ता, आद्र्र से आल्ला, ईण्ड से ईंढी, कटि से कड़, जट् से जेट्ठा, कर्बुर से कबरा, नवनीत से नूणी, चक्री से चकली ।
केन्द्र सरकार के पास भेजा प्रस्ताव : हरियाणा साहित्य अकादमी की सार्थक पहल पर हरियाणा सरकार ने भी केन्द्र सरकार के पास भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में हरियाणवी भाषा को शामिल करने के लिए केन्द्र्र सरकार के पास प्रस्ताव भेजा है।  इस भाषा के विकास में कवि सूरदास, निश्चल दास, गरीबदास, अहमदबख्श थानेसरी, लखमीचंद, मांगेराम, जाट मेहर सिंह आदि लेखकों ने इस भाषा के माध्यम से लोक साहित्यिक विधाओं को जनमानस के बीच अत्यंत लोकप्रिय बनाने का कार्य किया है।
हरियाणवी तेरे रूप अनेक : हरियाणा तथा फारसी के विशेषण-बोधक, सामान्य प्रत्यय ‘वी’ के संयोग से हरियाणवी का निर्माण हुआ है, जो यहां की भाषा का बोधक है। हरियाणवी शब्द व्यापकता का द्योतक है, उसे क्षेत्र की सीमाओं के अन्तर्गत बांधकर नहीं देखा जाना चाहिए। उत्तर भारत में कहा भी जाता है कि – चार कोस पै बदलै पाणी, आठ कोस पै वाणी – की कहावत हरियाणवी भाषा पर सही रूप में चरितार्थ होती है। हरियाणवी भाषा की अलग-अलग बोलियों  को स्थान एवं परिस्थितियों आदि की विशेषताओं के आधार पर अलग-अलग नाम दिए गए – कौरव क्षेत्र में बोले जाने वाली बोली को कौरवी, बांगर क्षेत्र में बोले जाने वाली बोली को बांगरू, बागड़ भू-भाग में बोले जाने वाली बोली को बांगडू व बागड़ी, अहीर क्षेत्र में अहीरवाटी, ठेठ प्रदेश के मध्य देसी लोगों द्वारा बोले जाने वाली बोली को देसी व देसड़ी, जाटों की प्रमुख भाषा होने की वजह से जाटू, खड़ी बोली का जिस भू-भाग में प्रचलन है, वहां पर इसे खड़ी बोली व ऊंची बोली की संज्ञा दी गई, देहली तथा आस-पास के क्षेत्र में इसे देहलवी के नाम से जाना गया, हरियाणा के बोले जाने की बदौलत इसे हरियानी, हरियाणी, हरियानवी, हरियाणई आदि नाम दिए गए, मेवात क्षेत्र में इसको मेवाती के नाम से जाना गया, जाति विशेष से द्वारा प्रयोग की जाने वाली इस भाषा को नानक चंद शर्मा ने अपनी पुस्तक में चमरवा भाषा की संज्ञा दी, ब्रज से सटे हुए भू-भाग में बोले जाने वाली बोली को ब्रज भाषा की संज्ञा दी। इसके अतिरिक्त रोहतकी, देसवाली, खाद्दरी, अम्बालवी आदि नामों से भी हरियाणवी भाषा की अलग-अलग बोलियों को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है।
सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता : हरियाणवी भाषा को सीमाओं के क्षेत्र में नहीं बांधा जा सकता, क्योंकि यह सम्पूर्ण उत्तर भारत की भाषा है। वर्तमान पाकिस्तान में भी इसे बोलने वाले आज भी विद्यमान हैं। दिल्ली के चारों ओर का जो भू-भाग है, वह हरियाणवी के नाम से जाना जाता है। मूलत: इसका क्षेत्र दिल्ली के चारों ओर घूमता है, जो उत्तर में अम्बाला, कुरुक्षेत्र, सहारनपुर, बागपत, मथुरा, आगरा, फरीदाबाद, ब्रज, मेवात, गुडग़ांव, महेन्द्रगढ़, भिवानी, हिसार के साथ-साथ राजस्थान के झुंझनू तथा चुरू से होता हुआ पंजाब से अबोहर, फाजिल्का, नाभा, पटियाला को छूते हुए हरियाणा के जींद, कुरुक्षेत्र तथा अम्बाला से मिल जाता है।
राष्ट्रीय साहित्य अकादमी से उपेक्षित : हरियाणवी भाषा को राष्ट्रीय साहित्य अकादमी की उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। हालांकि हरियाणवी भाषा में 1000 से भी अधिक ग्रंथों की रचना की हो चुकी है। जिस दिन राष्ट्रीय साहित्य अकादमी के पटल पर हरियाणवी भाषा को सम्मान मिलेगा, उस दिन हरियाणवी में रचित समृद्ध साहित्य का अनुवाद दूसरी भाषाओं में भी होने लगेगा और इस भाषा की महत्ता तथा गरिमा को दूसरे प्रदेशों के लोग भी समझ सकेंगे। इसे विडम्बना ही कहा जाए कि आज तक हरियाणवी भाषा की किसी भी कृति को राष्ट्रीय साहित्य अकादमी की ओर से पुरस्कृत नहीं किया गया है, क्योंकि राष्ट्रीय साहित्य अकादमी केवल उन्हीं भाषाओं की पुस्तकों को पुरस्कृत करती है, जो संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हैं।
सरकारी उपेक्षा का शिकार बनी हरियाणवी : हरियाणवी भाषा सदैव सरकारी उपेक्षा का शिकार रही है। सरकार की तरफ से  प्राथमिक एवं प्राइमरी स्तर पर किसी हरियाणवी रचना को नहीं पढ़ाया जाता। इसके अतिरिक्त प्रदेश के किसी भी विश्वविद्यालय में हरियाणवी का अलग से विभाग नहीं है और अलग से हरियाणवी अकादमी भी नहीं है। जबकि पड़ोसी राज्यों में राजस्थानी, गढ़वाली, कुमाउंनी, पंजाबी आदि भाषा को पाठ्यक्रमों में लागू किया गया है।
हरियाणवी सिनेमा एवं मीडिया : किसी भी बोली को भाषा तक पहुंचाने के लिए वहां के जनमानस की अभिव्यक्ति के साथ-साथ लेखकों, साहित्यकारों के अतिरिक्त वहां के सिनेमा एवं का भी महत्वपूर्ण योगदान होता है। आज हरियाणा में हरियाणवी सिनेमा के माध्यम से हरियाणवी भाषा बढ़ावा देने के लिए न तो कोई ठोस नीति है और न ही कोई प्रेरक योजना, जिसके चलते हरियाणवी सिनेमा उद्योग ने 1980 के दशक में जो गति पकड़ी थी, वो आज मंद पड़ती हुई दिखाई दे रही है। हरियाणा में जितने रेडियो स्टेशन या टी.वी. केन्द्र हैं, उन पर भी हरियाणवी से जुड़े हुए कार्यक्रम, महज़ खेतीबाड़ी और लोकगीतों तक ही सीमित होकर रह गए हैं।  स्थानीय समाचार पत्रों में भी हरियाणवी में कॉलम न के बराबर है।
हरियाणवी चैनल का अभाव : राजस्थान में  राजस्थानी चैनल देखने को मिलता है, भोजपुर में भोजपुरी आदि किंतु हरियाणा की तरफ से कोई विशुद्ध हरियाणवी चैनल अब तक उपलब्ध नहीं है। केबल आदि पर निम्न स्तरीय कार्यक्रम दिखाकर हरियाणवी के नाम पर फूहड़ता परोसी जाती है।  यही कारण है कि जो लोग गांव से निकलकर शहर में आते हैं, वे हरियाणवी नहीं हिन्दी बोलना पसंद करते जबकि दूसरे प्रदेशों के लोग विदेशों में जाकर भी अपनी मातृभाषा का प्रयोग करते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पंजाबी भाषा है। इसलिए हमें पंजाबियों से सीख लेकर हरियाणवी को समर्पित भाव से आत्मसात् कर अभिव्यक्ति का माध्यम बनाना चाहिए।
डॉ. महासिंह पूनिया

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