Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

सुरक्षा परिषद में स्थायी भारत

लोकमित्र ओबामा अगर यह कह रहे हैं कि नयी उभर रही भूमंडलीय दुनिया में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है इसलिए उसका सुरक्षा परिषद में बतौर स्थायी सदस्य के हम स्वागत करते हैं और चीन अगर पहली बार हमारे दावे को लेकर कुछ नरम दिख रहा है तो यह चीन और अमेरिका की भारत पर मेहरबानी […]
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

लोकमित्र

Advertisement

ओबामा अगर यह कह रहे हैं कि नयी उभर रही भूमंडलीय दुनिया में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है इसलिए उसका सुरक्षा परिषद में बतौर स्थायी सदस्य के हम स्वागत करते हैं और चीन अगर पहली बार हमारे दावे को लेकर कुछ नरम दिख रहा है तो यह चीन और अमेरिका की भारत पर मेहरबानी नहीं है बल्कि उन गलतियों को सुधारने का एक तरीका है जो गलतियां सुरक्षा परिषद में भारत जैसे महत्वपूर्ण मुल्क के न होने की वजह से नजर आती हैं। दरअसल, सुरक्षा परिषद में भारत का स्थायी सदस्य के बतौर होना सिर्फ भारत के लिए ही न्यायसंगत नहीं है बल्कि यह उस समूची लोकतांत्रिक दुनिया के साथ न्याय होगा जो बराबरी और लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों पर यकीन करती हैं।
हाल की भारत यात्रा में जब संसद के संयुक्त अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने भारतीयों की इच्छा को ध्यान में रखते हुए कहा कि भारत तर्कसंगत सुरक्षा परिषद के लिए जरूरी नया सदस्य है तो तालियों का बजना अमेरिका की मेहरबानी का धन्यवाद नहीं था बल्कि वैश्विक परिदृश्य में भारत की उपस्थिति का वह जयघोष था जिसकी अंतत: दुनिया ने सुध ली। ओबामा के दौरे के बाद हालांकि पाकिस्तान खूब उछला, हायतौबा मचायी और यूएनओ में एक रेजुलेशन तक ले गया कि भारत को स्थायी सदस्य न बनाया जाये, इसके गंभीर नतीजे हो सकते हैं। बावजूद इसके भारत के लिए अब लगभग सभी महत्वपूर्ण देशों से समर्थन की उम्मीदें बंध गयी हैं। चीन के बारे में हालांकि अंतिम निष्कर्ष निकाल लेना खुशफहमी होगी। फिर भी उसने जिस तरह भारत की दावेदारी को लेकर नरमी बरती है और आधिकारिक रुख में इस सम्बंध में विचार-विमर्श का आह्वïान किया है वह एक संकेत है कि भारत अब पूरी दुनिया को स्वीकार्य है।
लेकिन यह मानने की न तो गलती हम आम भारतीय करें और न ही सरकार व नौकरशाही कि भारत को सुरक्षा परिषद में चीन और अमेरिका की मेहरबानी की बदौलत बिना कुछ किये आसानी से स्थायी सदस्यता मिल जायेगी। वास्तव में यह हमारा बढ़ता कद और हमारी उपयुक्त पात्रता है, जिसके चलते हम सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य बनेंगे न कि चीन और अमेरिका की मेहरबानी। भारत आज न केवल दुनिया के मौजूदा शक्ति संतुलन के लिए एक महत्वपूर्ण देश बन चुका है अपितु अधिसंरचनात्मक नजरिये से भी यह आज एक बड़ी ताकत है। अगर इसे एक नजर में समझना हो तो हम कुछ यूं भी समझ सकते हैं। दुनिया में हर साल सबसे ज्यादा मेडिकल और इंजीनियर ग्रेजुएट भारत से ही निकलते हैं। अमेरिका और रूस के बाद दुनिया में भारत ही वह देश है जो अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में महारथ रखता है। यही नहीं, रूस और अमेरिका के बाद दुनिया में भारत ही वह देश है जिसने अंतरिक्ष में सबसे ज्यादा सेटेलाइट छोड़े हैं। अगर हम इसमें हाल की नासा की उस सबसे बड़ी कामयाबी, जिसमें उसने चांद पर पानी खोजने का दावा किया है, पर श्रेय बांटना चाहें तो अमेरिका रोक नहीं सकता क्योंकि नासा को यह सफलता भारत के ही चंद्रयान-1 अभियान के जरिये मिली है।  भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और अगर भविष्य के अंतर्राष्ट्रीय प्रोजेक्शनों को देखें तो भारत अमेरिका और चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के बतौर प्रोजेक्ट हो रहा है। दुनिया का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार, चीन के बाद सर्वाधिक तीव्र गति से विकास करती अर्थव्यवस्था, दुनिया में चौथे नंबर की सबसे बड़ी फौज और चीन के बाद एक अरब पच्चीस करोड़ के आसपास की आबादी। इस सबके बावजूद अभी तक हिंदुस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अगर स्थायी सदस्यता हासिल नहीं है तो यह कुछ तथाकथित देशों की साजिश है न कि हमारी पात्रता में किसी तरह की कमी। ऐसे में अब अगर स्थितियां अनुकूल बन रही हैं तो यह किसी की मेहरबानी से नहीं बनीं, यह भारत की उपयुक्त पात्रता है।
हालांकि, दांवपेंचों से भरी इस दुनिया में कूटनीतिक जीतों के लिए अभी भी माहौल इतना सरल नहीं है पग-पग पर जटिलताएं राह रोके खड़ी मिल जाती हैं। यह आश्चर्यजनक नहीं होगा अगर एक तरफ अमेरिका भारत की दावेदारी का खुले तौर पर समर्थन करे, वहीं दूसरी तरफ वह दबे-छिपे पाकिस्तान को भी प्रोत्साहित करे कि पाकिस्तान हंगामा मचाये और भारत की दावेदारी को कुछ ऐसा रंग दे दे कि सारी इस्लामिक दुनिया इसे अपनी पराजय के रूप में चिन्हित करने लगे। 13 नवंबर, 2010 को जब पाकिस्तान ने संयुक्त राष्ट्र में इस बात को लेकर खूब शोर तमाशा किया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने कैसे कश्मीर जैसे डिस्प्यूटेड इश्यू को अपनी सूची से बाहर कर दिया है। यही नहीं, उसने इस मामले में ओआईसी यानी इस्लामिक देशों के संगठन का भी समर्थन हासिल करने की कोशिश की। इससे अंदा$जा लगाया जा सकता है कि जब तक भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता न हासिल हो जाये तब तक ऐसे किसी भी अनुमान के गलत होने की कितनी ज्यादा आशंकाएं हो सकती हैं। एक नया शिगूफा चल पड़ा है। कुछ लोग भारत के तार्किक दावों को तो सही मानते हैं लेकिन वह कहते हैं कि भारत और भारत के साथ जिन भी नये सदस्यों को स्थायी सदस्यता दी जाये उन्हें वीटो पावर न दिया जाये। इस नखदंत-विहीन सदस्यता का कोई अर्थ नहीं होगा। यह वे तो जानते ही हैं, हमें भी इसे गहराई से महसूस करना होगा और ऐसे किसी इरादे को ध्वस्त करने के लिए तैयार रहना होगा।
भारत की उपयुक्त पात्रता का आधार हमारा आर्थिक, वैज्ञानिक विकास ही नहीं है बल्कि हमारी मजबूत राजनीतिक, लोकतांत्रिक परम्परा भी है। आखिरकार पिछले 63 सालों से हमारे यहां एक लोकतांत्रिक निरंतरता है। तमाम राजनीतिक आग्रहों-दुराग्रहों के बावजूद भारत में लोकतंत्र लगातार मजबूत हो रहा है और अगर ताकत के अंतिम पायदान की बात करें यानी परमाणु अस्त्र की तो उसमें भी अब हम एक खुली शक्ति हैं। इस सबके बावजूद आखिर क्या वजह है कि भारत को अभी तक सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता से बाहर रखा गया है? निश्चित रूप से इसके पीछे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में पिछली सदी में जारी रही वह सामंती सोच है जिसके तहत दुनिया की सभी सर्वोच्च जगहें सिर्फ अमेरिका, यूरोप या फिर उनके पि_ïुओं को ही दिये जाने का चलन रहा है। भारत पिछले तीन दशकों से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की दावेदारी करता रहा है। दुनिया के तमाम देश भारत की इस मांग पर समय-समय पर सहमति भी जताते रहे हैं। फिर भी अभी तक अगर हम यहां तक नहीं पहुंचे तो इसके लिए यही वजह जिम्मेदार रही है।
सवाल है, क्या अब सुरक्षा परिषद का विस्तार अवश्यंभावी है? निश्चित रूप से जिस तरह जर्मनी, जापान जैसे जी-8 व जी-20 के देशों ने अमेरिका सहित दूसरे स्थायी सदस्यों पर दबाव बनाया है, उससे लगता है कि विस्तार अब होकर रहेगा। लेकिन सवाल उठता है कि यह विस्तार किस तरह का होगा? वास्तव में अमेरिका और चीन नहीं चाहते कि सुरक्षा परिषद के सदस्यों का विस्तार हो और उनके वीटो पावर पर किसी तरह की सेंध लगे। बावजूद इसके कि ओबामा भारत की संसद में विस्तार को आज की दुनिया की जरूरत और भारत की स्थायी सदस्यता को इसका हक बता रहे हैं। लेकिन यह भी सही है कि अब बहुत दिनों तक सुधार नहीं टाले जा सकते। दुनिया का प्राकृतिक शक्ति संतुलन अब वैसा नहीं रहा है जैसा दो दशक पहले तक था, जब दुनिया पूंजीवाद और समाजवाद नाम के दो राजनीतिक खेमों में बंटी थी। आज दुनिया विचारधारा के नजरिये से न समाजवादी रही है और न पूंजीवादी बल्कि स्वहितवादी हो चुकी है। भले इसमें मुलम्मा वैश्वीकरण का या भूमंडलीकरण चढ़ाया जाता हो।
1945 में जब सुरक्षा परिषद का गठन हुआ था, तब इसके सदस्य मात्र दस देश थे जो कि आज बढ़कर 192 हो गये हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों में जिस तरह राष्ट्र ने अमेरिका के इशारे पर फैसले लिये हैं या फिर तमाम फैसलों पर उसकी अमेरिका के समक्ष लाचारी दिखी है, उसको देखते हुए तो सुरक्षा परिषद का सही मायनों में महत्व ही कम हो गया है। दुनिया के ज्यादातर गरीब और विकासशील देशों के दिलोदिमाग में यह बात घर करके रह गयी है कि संयुक्त राष्ट्र तभी किसी मामले में लोकतांत्रिक ढंग से सोच पाता है जब उससे अमेरिका के किसी हित का नुकसान न हो रहा हो। अगर अमेरिका के हित टकरा रहे हों तो संयुक्त राष्ट्र या तो तटस्थ होकर सोच नहीं पाता, सोच भी पाता है तो वह लाचार हो जाता है। सवाल है, क्या ऐसे किसी संगठन का दुनिया के स्तर पर अब महत्व है? निश्चित रूप से इस सवाल के भले कोई तात्कालिक जवाब ‘नहींÓ में हों लेकिन अगर ठहरकर और कूटनीतिक दृष्टि से सोचें तो अमेरिका के दबाव में रहने के बावजूद विश्वस्तर पर संयुक्त राष्ट्र का अभी भी महत्व है क्योंकि अभी भी तमाम वैश्विक स्तर के मसले संयुक्त राष्ट्र के निर्णय से प्रभावित होते हैं। लेकिन असली बात यही है कि भारत जैसे देश विश्व के इस सबसे बड़े राजनीतिक-कूटनीतिक संगठन में अपनी जगह कैसे हासिल करें?
भारत को भले अमेरिका ने साफ-साफ समर्थन देने का ऐलान कर दिया हो लेकिन ध्यान रहे यह रस्मी ऐलान भर है जो हमारी संसद में एक अतिथि भाषण से निकला है। इसलिए इस पर बहुत उम्मीदें न करें। भारत को चाहिए कि वह अमेरिका के इस रुख को बहुत कारगर ढंग से
भुनाये। चीन के रवैये का भी हम इसी तरह कूटनीतिक फायदा उठा सकते हैंं। यह इसलिए संभव लगता है क्योंकि 192 सदस्यों वाले संयुक्त राष्ट्र में पिछले महीनों भारत को अस्थायी सीट के लिए ऐसा समर्थन मिला जो आज तक किसी को भी नहीं मिला। कुल सदस्यों में महज एक सदस्य ने भारत को वोट नहीं दिया बाकी सभी ने दिया जो वहां उपस्थित थे। कहने का मतलब यह है कि भारत की तरफ अंतर्राष्ट्रीय रुझान और झुकाव स्पष्ट है। भारत को इसका फायदा उठाना होगा और पूरी हुंकार के साथ डंके की चोट पर यह संदेश देना होगा कि भारत को इसलिए स्थायी सदस्यता चाहिए क्योंकि यह उसका हक है और वह इस हक को हासिल करने के लायक है।

सच्चाइयां जो दावे को कमजोर करती हैं

लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भले तमाम भौतिक स्थितियां, भू-राजनीतिक परिस्थितियां हमारे पक्ष में हों। हमारी कई बड़ी खामियां अभी भी हमारी दावेदारी को कमजोर करने में बढ़-चढ़कर भूमिका निभाती हैं और अगर ये हावी होकर हमारी दावेदारी को कमजोर बना दें तो इसमें किसी तरह के आश्चर्य की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। बेहतर है हम एक तरफ अपने आपको विश्व शक्ति मानें जैसे कि ओबामा कह रहे हैं कि भारत उदीयमान नहीं बल्कि शक्ति के वैश्विक परिदृश्य में एक उदित देश है, साथ ही उन स्थितियों की अनदेखी न करें जो दुनिया के सामने हमारा सिर शर्म से झुका देती हैं। मसलन, भारत भले आज दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो और कुछ ही सालों में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने वाला हो मगर इस गर्व किये जाने वाले आंकड़े के साथ-साथ दूसरा आंकड़ा यह भी है कि भारत में अभी भी 40 से लेकर 60 करोड़ लोग गरीबी रेखा के इर्दगिर्द गुजर-बसर कर रहे हैं। सरकारी आंकड़े ही दावा कर रहे हैं कि 78 करोड़ लोग आमतौर पर अपना एक दिन, एक डॉलर से भी कम की आय पर गुजारते हैं। ऐसे में हमारी तमाम शक्तियों के क्या मायने हैं? भारत में 63 साल की आ$जादी के बावजूद हम संपूर्ण भारतीयों को शुद्ध जल नहीं उपलब्ध करा पाये। आज भी दुनिया के सबसे ज्यादा निरक्षर हमारे यहां ही हैं, पूरी दुनिया के लगभग आधे। आज भी हमारे यहां लोकतंत्र में उन्हीं लोगों का दबदबा है, जो सामंती युग में भी इसके अगुवा थे। आज भी हमारे यहां महिलाओं के साथ भेदभाव बरता जाता है, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है। दुनिया में सबसे पहले परिवार नियोजन की शुरुआत करने के बावजूद आज भी भारत में आबादी की वृद्धि दर बहुत ज्यादा है। इतने लचीले और निरंतरता वाले लोकतंत्र के बावजूद भारत में डेमोक्रेसी दरअसल अपनी-अपनी जातियों के हित साधने का जरिया बन गयी है यानी भारत में अभी भी जातिवाद अपने चरम पर है। बेरोजगारी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार ये कुछ और खामियां हैं जो हमारी सुरक्षा परिषद की दावेदारी को कमजोर बनाती हैं। एक अरब पच्चीस करोड़ से भी ज्यादा की आबादी के बावजूद हम ओलंपिक में सोने का महज एक तमगा जीत पाते हैं। क्या ये चीजें हमारी दावेदारी को कमजोर नहीं करतीं? किसी भी देश की किसी भी मामले में दावेदारी बाहर से चाहे जितनी मजबूत हो, वह दावेदारी सर्वाधिक प्रभावशाली उसी स्थिति में होती है जब उसकी दावेदारी का आंतरिक ढांचा भी उतना ही मजबूत हो। भारत की तमाम बाहरी तथ्यों में चाहे जितनी मजबूत दावेदारी हो लेकिन जब तक यह दावेदारी आंतरिक स्तर पर भी मजबूत नहीं होती तब तक हमें सफलता मिलनी मुश्किल है। इसलिए हम चीन और अमेरिका से मेहरबानी भरी याचना करें इससे बेहतर है कि खुद अपने को इस लायक बनाएं, बाहर से अपनी दावेदारी को फलीभूत होते देखने के लिए। द्य

क्यों बने भारत वीटो पॉवर

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र, समृद्ध सैन्य क्षमताओं व परमाणु शक्ति संपन्न होने के बावजूद जिम्मेदाराना व्यवहार, जंग की शुरुआत कभी नहीं की, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, संयुक्त राष्ट्र को सार्थक बहुराष्ट्रीय मंच बनाने व शांति अभियानों में ठोस भूमिका, आकार, आबादी और इतिहास जैसी सभी जरूरी खूबियां; देशों, धर्मों और विचारधाराओं के प्रति सहिष्णुता, गुट निरपेक्ष आंदोलन में सक्रियता।

क्या करती है सुरक्षा परिषद

अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और शांति सुनिश्चित करना, हथियारों पर नियंत्रण के लिए योजना बनाना, समझाने के बावजूद न मानने पर युद्धरत देश के खिलाफ शांति सेना के जरिए सैन्य कार्रवाई, नये सदस्यों के प्रवेश के लिए सिफारिश, महासचिव की नियुक्ति के लिए सिफारिश, अंतर्राष्ट्रीय अदालतों के लिए जजों का चयन, तनाव बढ़ाने की आशंका वाले मामलों तथा स्थितियों की जांच।

Advertisement
×