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दहलीज पर भुखमरी

लोकमित्र क्या बंगाल-दुर्भिक्ष महज पुराने किस्से-कहानियों का रोंगटे खड़े कर देने वाला दृष्टांत है? या फिर अमत्र्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों की अध्ययन स्थापनाओं का पैमाना? भले रबी की बंपर फसल (विशेषकर गेहूं) की संभावनाओं के बीच यह विषमांतर लगे, लेकिन दहशतनाक सच्चाई यही है कि अगर हम अब भी न चेते तो हमारे यहां ही […]
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लोकमित्र


क्या
बंगाल-दुर्भिक्ष महज पुराने किस्से-कहानियों का रोंगटे खड़े कर देने वाला दृष्टांत है? या फिर अमत्र्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों की अध्ययन स्थापनाओं का पैमाना? भले रबी की बंपर फसल (विशेषकर गेहूं) की संभावनाओं के बीच यह विषमांतर लगे, लेकिन दहशतनाक सच्चाई यही है कि अगर हम अब भी न चेते तो हमारे यहां ही नहीं दुनिया के हर हिस्से में बंगाल जैसे दुर्भिक्षों की वापसी हो सकती है जिसमें लाखों ने भूख से तड़प-तड़प कर दम तोड़ा था।
जी हां! भले ही जेनेटिक मोडीफाइड बीजों (फसलों) की बदौलत हम इस भुलावे में रहने की कोशिश करें कि दुनिया की खाद्यान्न समस्याओं का हल हमारे हाथ में है। लेकिन हकीकत यह है कि पिछले कुछ सालों से दुनिया के सभी कोनों में खाद्यान्न की समस्या गहरा रही है और चिह्नï ऐसे हैं जो इस समस्या के भयावह होने की तरफ इशारा कर रहे हैं। भुखमरी चुपके से दुनिया की दहलीज पर आ धमकी है और अब दस्तक दे रही है।
42 साल पहले 1968 में अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ$ विलियम गॉड ने उत्पादक में सुधार करके दुनिया को ‘ग्रीन रिवोल्युशनëजैसी सौगात भेंट की थी। लेकिन हरितक्रांति के फायदों में वशीभूत दुनिया को एक बार भी यह ख्याल नहीं आया कि प्रकृति से कोई छेड़छाड़ सिर्फ हमारे फायदे के लिए ही नहीं हो सकती। कहने का मतलब यह नहीं सोचा गया कि ‘ग्रीन रिवोल्युशन की चाहत खेती का इकोलॉजी सिस्टम भी बिगाड़ सकती है। वही हुआ पैदावार बढ़ाने के तात्कालिक फायदों को ध्यान में रखते हुए मिट्टïी का अधिकाधिक दोहन करने वाली फसलों की बाढ़ आ गयी और इसे ‘सघन कृषिëका नाम दिया गया। कुछ यूं जाहिर किया गया जैसे ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए बहुत सूझबूझ और परिश्रम का सहारा लिया जा रहा है। जबकि हकीकत यह थी कि ‘सघन कृषिëके नाम पर दुनिया धरती की उर्वरता का अंधाधुंध दोहन कर रही थी जैसे कोई अपने बैंक बैलेंस को अनाप-शनाप खर्च करे और मान ले कि उसकी शानदार इनकम है।
लेकिन कुछ ही सालों में यह बैंक बैलेंस खाली हो गया। लगातार की गई सघन खेती और कीटनाशी, फफूंदनाशी व खरपतवारनाशी दवाओं के हस्तक्षेप से जमीन की उर्वरता क्षरित होने लगी और मिट्टïी क्षारीय व लवणीय होने लगी। पिछले चार दशकों में जब दुनिया इस खुशफहमी में जी रही थी कि हरितक्रांति की बदौलत अन्न समस्या का अंत हो गया। मिट्टï में बढ़ती लवणीयता और क्षारीयता के कारण खेती योग्य भूमि के क्षेत्रफल में कमी आने लगी। सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं पूरी दुनिया में यह भयावह समस्या देखने को मिली है। अकेले पिछले 5 सालों में ही पूरी दुनिया में खेती के रकबे में 8 प्रतिशत की कमी आयी है। जिसमें जलवायु परिवर्तन और लालची ‘हरितक्रांतिëदोषी हैं।
लगातार रसायनों के इस्तेमाल और फायदेमंद फसलों के ही उत्पादन की होशियारी ने जहां खेती योग्य जमीन को धीरे-धीरे रेगिस्तान में तबदील करना शुरू कर दिया है, वहीं जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी हुई है, अनियमित वर्षाचक्र ने भूमि के कटाव को भी खतरनाक ढंग तक बढ़ाया है। कुल मिलाकर कम वर्षा लेकिन कम समय में ही ज्यादा वर्षा ने पूरी दुनिया में बाढ़ के नये-नये खतरे पैदा कर दिये हैं। धूलभरी आंधियां बढ़ रही हैं, जिसमें एक ओर जहां रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है वहीं दूसरी तरफ नदियों में भारी पैमाने पर प्रदूषण बढ़ रहा है। कुछ देशों मसलन चीन में तो धूलभरी आंधियों का इतना ज्यादा कहर बरपा है कि आजकल चीन को धूल का कटोरा कहा जाने लगा है। हाल के कुछ दशकों में धरती के औसत तापमान में 2 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। इससे फसलों का चक्र तो बुरी तरह से गड़बड़ाया ही है, गेहूं और चावल की उत्पादकता में भी 8 से 10 प्रतिशत तक की कमी आयी है। जिस कारण खेती जहां एक ओर घाटे का सौदा बनी है वहीं दूसरी ओर गांवों से शहरों की तरफ पलायन में बेहद तेजी आयी है।  जलवायु परिवर्तन और सघन कृषि के दुष्परिणामों के चलते चीन में हर साल 3,60,000 हेक्टेयर जमीन बंजर हो रही है तो ब्राजील में यही आंकड़ा बढ़कर 5,80,000 हेक्टेयर और नाईजीरिया में 80 हजार हेक्टेयर पहुंच गया है। भारत में हरितक्रांति के गढ़ रहे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भूमिगत जलस्तर 60 फुट से भी ज्यादा नीचे चला गया है और भूमिगत जलस्रोतों में 40 प्रतिशत से ज्यादा की कमी हो गयी है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अब भी नहीं चेते तो हरितक्रांति के गढ़ अगले एक-डेढ़ दशक में रेगिस्तान मे तबदील हो जायेंगे। गौरतलब है कि जलस्तर को पुनर्जीवित करना सबसे मुश्किल और लगभग असंभव काम होता है।
इस जलवायु परिवर्तन के चलते भारत सहित दुनिया के तमाम देशों में खाद्यान्न का संकट साफ-साफ नजर आने लगा है। वर्ष 2008 और 09 में चीनी के उत्पादन में 4$7 से 5$8 प्रतिशत तक की कमी आयी है दूसरी तरफ मांग और आपूर्ति का फासला भयानक रूप से बढ़ा है। उदाहरण के लिए भारत में इस समय चीनी का कुल उत्पादन 16 मिलियन टन है जबकि मांग 23 मिलियन टन है। कपास के उत्पादन में भी 9$2 प्रतिशत की कमी हाल के सालों में आयी है जो इस बात की तरफ इशारा है कि बहुत दिनों तक हम सूती कपड़ों के बहुत बड़े निर्यात बाजार नहीं रह सकेंगे। हालांकि 2009-10 की रबी फसल के कारण फिलहाल हमारे गेहूं के बफर स्टॉक में कमी नहीं आयेगी लेकिन दुनिया के संदर्भ में देखें तो खाद्यान्न का बफर स्टॉक खतरे में पड़ते जा रहे हैं।
भारत में खाद्यान्न के दामों में 20 से 38 प्रतिशत तक की स्थायी वृद्धि हो चुकी है जिस कारण 18 से 25 प्रतिशत तक निम्न और मध्य वर्ग के लोगों की क्रयक्षमता पर बेहद नकारात्मक असर पड़ा है। इसके बावजूद बाजार में मांग और आपूर्ति के मामले में 15 से 20 प्रतिशत का फासला बढ़ा है। विशेषकर दालें और खाद्य तेल बाजार में स्थायी रूप से कम पड़ गए लगते हैं।
इस भयावह स्थिति के लिए बायोफ्यूल का बढ़ता मोह भी किसी हद तक जिम्मेदार है। भारत सहित पूरी दुनिया में अंधाधुंध वाहनों के चलते जीवाश्म तेल का संकट मंडराने लगा है जिसके विकल्प के तौर पर बायोफ्यूल को देखा जा रहा है। लेकिन यह बायोफ्यूल ईंधन का संकट तो खत्म करने से रहा लेकिन खाद्यान्न के संकट को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाने की तरफ बढ़ रहा है। वल्र्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2007-08 में यूरोपीय यूनियन और अमेरिका में खाद्यान्नों के दाम में आयी भारी बढ़ोतरी का 70 प्रतिशत तक कारण बायोफ्यूल का बढ़ता उत्पादन था। गौरतलब है कि 2000 के बाद से गन्ना, मक्का और चाय के जरिये फ्यूल बनाने में 300 प्रतिशत तक का इजाफा हो गया है। भारत में ऐसी खेती में पिछले पांच सालों में 70 से 90 प्रतिशत तक इजाफा हुआ है।
कुल मिलाकर कहीं हमने अपनी होशियारी से तो कहीं नादानी से इस तरह की स्थितियां पैदा कर ली हैं और करते जा रहे हैं कि भुखमरी की अतीत गाथाएं इतिहास के भूतलों से निकलकर हमारी दहलीज तक आ पहुंची हैं और दरवाजों पर दस्तक दे रही हैं। अगर अब भी हम बहरे बने रहे तो आने वाले सालों में करोड़ों लोग भयावह बीमारियों से नहीं भूख से मर जायेंगे।

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