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आस्था, विश्वास व परंपरा की अनूठी त्रिवेणी

राजकिशन नैन प्रसंग : माघी पूर्णिमा महादेव हमारी धरा के कण-कण में समाये हुए हैं तथा केदारनाथ से लेकर रामेश्वर तक एक समान पूजनीय हैं। दादा शिव ब्रह्मा बनकर सृष्टि रचते हैं, विष्णु बनकर उसे पालते हैं और प्रलयंकर बनकर उसका संहार करते हैं। कैलाशपति अनादिकाल से अद्वैत का डमरू बजा रहे हैं। वे प्रखर […]
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राजकिशन नैन

प्रसंग : माघी पूर्णिमा

बेणेश्वर महादेव

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महादेव हमारी धरा के कण-कण में समाये हुए हैं तथा केदारनाथ से लेकर रामेश्वर तक एक समान पूजनीय हैं। दादा शिव ब्रह्मा बनकर सृष्टि रचते हैं, विष्णु बनकर उसे पालते हैं और प्रलयंकर बनकर उसका संहार करते हैं। कैलाशपति अनादिकाल से अद्वैत का डमरू बजा रहे हैं। वे प्रखर स्वर में कह रहे हैं कि शिव के पास शक्ति रहेगी, सत्य के पास सामथ्र्य रहेगी और प्रेम के पास पराक्रम रहेगा। अद्वैत का अर्थ है — निर्भयता। हमारी संस्कृति इसी पर टिकी है। बेणेश्वर में आने वाले स्त्री-पुरुष जुग-जुग से बाबा की महिमा के गीत गा रहे हैं —
‘वह बेणेश्वर, वन बनखंडी, वही रचावनहारा।
अलख निरंजन, औघड़दानी, सिर सोहे गंगधारा।
काल जाल से वही छुड़ावै, वही करै निस्तारा।
उस बिन कोई ठौर न सूझै, वही एक रखवारा।’

बाबा के धाम पर आकर लोग फूले नहीं समाते। औरतें यहां कोख हरी होने की आस में नारियल चढाती हैं। कोढ़ी रोग मुक्ति के लिए बेणेश्वर महादेव की परिक्रमा करते हैं। नवविवाहित जोड़े यहां गठजोड़े की जात देने हेतु शीश झुकाते हैं। पौराणिक ग्रंथों में इसे ‘वनेश्वर’ कहा गया है। बड़ों से सुना है कि हिरण्यकशिपु के प्रौत्र एवं भक्त प्रह्लाद के पौत्र दैत्यराज बलि ने त्रैलोक्य-विजय के उपरांत इंद्रासन पाने के लिए यहीं पर यज्ञ का आयोजन किया था। विष्णु देवताओं की हार से कुपित थे। वे वामन का रूप धरकर याचक के तौर पर यज्ञ-भूमि में उपस्थित हुए। बलि ने कहा —क्या चाहिए? वामन ने निवेदन किया—तीन पांवड़े (पग) भूमि दे दीजिए। बलि ने कहा—नाप लीजिए। विष्णु ने तीन पगों में त्रैलोक्य नापकर वह त्रैलोक्य इंद्र को थमा दिया। बताते हैं कि जिस जगह भगवान वामन ने बलि को छला था, वह बेणेश्वर का आबूदर्रा (त्रिवेणी संगम) है। स्थानीय लोग इसे आदि दर्रा भी कहते हैं। इस तथ्य की पुष्टि स्कन्द पुराण से होती है। आदिवासी लोग माघ शुक्ल एकादशी से माघ शुक्ल पूर्णिमा तक बेणेश्वर में आयोजित होने वाले इस महाकुंभ को ‘वागड़-प्रयाग’ एवं ‘वागड़-वृंदावन’ कहकर पुकारते हैं। बेणेश्वर महादेव के मंदिर में आदिवासी स्त्री-पुरुष जिस पिंडी की धोक मार रहे थे, उसे पांच जगह से खंडित पाया। शायद देश का यह अकेला ऐसा शिवाला है, जहां खंडित शिवलिंग की धोक-पूजा होती है। किसी जमाने में इस पिंडी पर एक पीवरस्तनी (बड़े स्तन वाली) गाय अपने थनों से दूध की धार गिराकर पिंडी का दुग्धाभिषेक किया करती थी। ग्वाला गाय की ल्योटी (ओहड़ी) को नित्य खाली पाकर चिंतित हुआ। इसका भेद पाने के लिए एक दिन उसने छिपकर गाय का पीछा किया। गाय जब पिंडी के पास पहुंचकर उस पर दुग्धाभिषेक करने लगी तो ग्वाला वहां जा धमका। ग्वाले को सामने पाकर गाय सहसा रंभाकर भाग खड़ी हुई। भागती हुई गाय के खुरों की दाब से पिंडी पांच जगह से तिड़क गई। तभी से यह पिंडी स्वयंभू शंकर के रूप में पूजित है। माघी मेले के दिनों बेणेश्वर महादेव के कपाट ब्रह्मïमुहूर्त से लेकर आधी रात तक खुले रहते हैं। संगम बिंदू के बीचों-बीच आबूदर्रे के दाहिनी तरफ पत्थरों की रगड़ से कैलाश पर्वत की-सी चट्टानों पर छोटे-छोटे समूहों में कई पिंडियां स्थापित हैं, जिन्हें आदिवासी बाण-गंगा कहते हैं। बेणेश्वर धाम सोम, माही और जाखम के त्रिवेणी संगम, हिंदू मंदिरों, दैत्यपति बलि की यज्ञ-स्थली, राम झरोखा (आश्रम), आबूदर्रा और तरनतारन आदि के लिए मशहूर है।
बेणेश्वर में माघी पूर्णिमा का मेला देखने के लिए मैं माघ शुक्ल अष्टमी घर से निकला था। बेणेश्वर धाम मेरे गांव अजायब (रोहतक) से ठीक 950 किलोमीटर दूर पड़ता है। यह लंबा सफर मुझे रेल और बस के द्वारा तय करना था। राजस्थान के तीर्थ-स्थलों की एक मार्गदर्शिका मैंने एहतियातन साथ रख ली थी। दिल्ली के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से रेल पकड़ कर उदयपुर उतरा। मैंने फौरन असबाब संभाला और बांसवाड़ा की बस पकड़ी।
डूंगरपुर जिले के मुंगावा में फोटोग्राफी करने के बाद पटेल लोगों से इजाजत लेकर हम दोपहर तक बांसवाड़ा आ गए। कुंभलगढ़ के रास्ते में खेती-किसानी के काम की कुछ बढिय़ा तसवीरें हाथ लगीं। महाराणा कुंभा द्वारा निर्मित कुंभलगढ़ दुर्ग एक जबर चट्टान पर सिर ऊंचा किए खड़ा था। दुर्ग के ऊपरी खंड में जंगली हाथियों की लड़ाई के रौद्र भित्तिचित्रों को मैंने यत्न से कैमरे में उतारा। गजयुद्ध के ऐसे विलक्षण चित्र मैंने इससे पहले कहीं नहीं देखे। ग्राम्य जीवन की मनोहर छवियों को कैमरे में कैद करते हुए मैं नियत समय पर सायरा पहुंचा। वहां से बस पकड़कर मैं रणकपुर उतरा। उदयपुर के रास्ते सांझ के चार बजे डूंगरपुर पहुंचा। संध्या की मंद रोशनी में कुछ चित्र करने के उपरांत डूंगरपुर के कुंवर हर्ष साहब से मिला। माघ शुक्ल त्रयोदशी (16 फरवरी) को जूना महल को निरखा-परखा। समूचा महल शानदार किस्म के भित्तिचित्रों से भरा पड़ा है। जूना महल का काम निबटाकर मैं उदय विलास की तरफ गया। वहां पर बना एक थंबिया महल देखकर मैं अचंभित रह गया। वास्तु कला प्रेमियों को यह महल जरूर देखना चाहिए। प्रस्तर-शिल्प को चार चांद लगाने वाली जो बेजोड़ मूर्तियां मैंने महल के झरोखों, आलिंदों और दर्शनी डाटों के आसपास देखी, वे सुथारों के हस्त कौशल के गीत गाती प्रतीत हुईं। मूर्ति शिल्प के कुछेक चित्र करने मैंने महल छोड़ दिया। माघ शुक्ल चतुर्दशी की सुबह मुझे बेणेश्वर पहुंचना था। आज मैं उपवास पर था। कल दादा का मुंह माथा जो देखना था। बस पकड़कर रात 9 बजे सांगवाड़ा पहुंचा। मेले-ठेलों में घूमने की लत मुझे बरसों से है। सांगवाड़ा से साबला गांव के रास्ते मैं अलसुबह बेणेश्वर पहुंच गया। आदिवासी स्त्री-पुरुषों के टोल के टोल पिंड तर्पण और स्नानादि कार्यों में संलिप्त थे। सोम, माही और जाखम का संगम स्थल जो नयनाभिराम दृश्य उपस्थित कर रहा था, उसे कैमरे में पकडऩे का लोभ मैं संवरण न कर सका। आदिवासी स्त्रियों का रोना-धोना देखकर मेरा कलेजा हिल गया। मृतकों की याद में टसुए तो हम सभी बहाते हैं, पर प्रियजनों की स्मृति में ऐसा करुण क्रंदन मैंने पहली दफा देखा। आदिवासी, शीतल जल में डुबकी लगाकर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। इनकी धारणा है कि त्रिवेणी – जल के स्पर्श से पापों का नाश हो जाता है। इस आस में मर्द-औरतों के झुंड सैकड़ों मील का सफर तय करके मेले में आते हैं और देव-तर्पण के बाद एक साथ भोजन जीमते हैं। बेणेश्वर में आदिवासी-संस्कृति एक उद्गम की तरह दिखायी देती है जिससे आनंद की अनंत धाराएं फूटती हैं। इस मेले की खूबी है कि आप इसमें आसानी से घूम-फिर सकते हैं और आदिवासियों की सभ्यता और संस्कृति से सीधे रूबरू हो सकते हैं। भोले-भाले आदिवासियों के जीवन का ढर्रा अतीव गहरा और विस्तृत है। इनकी पारंपरिक संस्कृति अत्यधिक समृद्ध और धनवान है।
संस्कृति और नदी दोनों की एक गति है। दोनों बहती रहें तो जीवंत और तरोताजा रहती हैं। यदि अड़ोक्का लग जाए तो दोनों में सड़ांध उठने लगती है या फिर सरस्वती नदी की तरह रेत में दबकर नष्ट हो जाती हैं। जो नदी रास्ते के नदी-नालों से परहेज करती चले, वह शिप्रा हो या भगीरथी एक अवधि तक चलकर दम तोड़ देती है। यदि सोम और माही को भी हम इतिहास के इसी पैमाने से नापें तो हमें इनके उत्थान-पतन का ब्योरा मिल जाएगा। मुझे यकीन है कि नदी-स्नान की परंपरा विश्व में हमारे ही देश से फैली है। धरती पर नदियों के किनारे जिस जगह सर्वप्रथम हमारा पुरखा अवतरित हुआ, वह जगह ‘मूलस्थानम’ है। हमारे देश का पुराना नाम मूलस्थानम् ही है। मैंने कई नदियों के संगम में गोते लगाए हैं। भगीरथी और भिलंगना के मिलन स्थल के साथ-साथ कर्ण प्रयाग, देवप्रयाग, रुद्र प्रयाग, चंबल, बेतवा, नर्मदा और त्रिवेणी (प्रयाग) तक में नहाया हूं, पर प्रयाग कुंभ के अलावा लोगों का ऐसा अपूर्व संगम इससे पहले नहीं देखा। स्थानीय मान्यता है कि सोम और माही के संगम पर पितर तर्पण करने पर पितर कोटि-कोटि पातकों से मुक्त हो जाते हैं। मेले के बीचो-बीच चलता हुआ कोल्हू पाकर मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही। कोल्हू के फोटो खींचने के बाद मैंने जी भरकर गन्ने का ताजा रस पीया। रंग-बिरंगे कपड़ों और गहनों से लदी-फदी युवतियां मेले का खास आकर्षण थीं। मैंने किन्नौर के सिवाय ऐसा लावण्य अन्यत्र नहीं देखा। नख-शिख ऐसे कि फणधर शरमाये और नर्तन ऐसा कि नगधर हर्षाये। इनके सांवले-सलोने चेहरों पर पड़ी गर्द को कैमरे में समेट कर मुझे असीम आत्मतृप्ति हुई।  कोई नटों के करतब देख रहा था। कोई वीररस की गाथा गाने वाले भोपों और भांडों की लय पर लट्टू हो रहा था। किसी का ध्यान झूलों पर था तो कोई  हाथों में झंडे लिये झूम रहा था। लीलावतारी संत माव जी के भक्त उनकी वाणियों और भविष्यवाणियों का गान कर रहे थे। श्रद्धालु नत्र्तन करते हुए उच्च स्वर में जंगे-आजादी के गीत गाने में लीन थे —
‘झालोदा म्हारी कुंडी है, दाहोद म्हारी थाली,
नी मान्नूं रे भूरेटिया, नी मान्नूं रे…
दिल्ली म्हारो डंको है, बेणेसर म्हारो सोपड़ो,
नी मान्नूं रे  भूरेटिया, नी मान्नूं रे…’
गीत का आशय यह है कि — ‘झालोद मेरा बाजा (टामक) है और दाहोद मेरी थाली है (स्मरण रहे कि झालोद और दाहोद गुजरात के पुराने नगर हैं)। नहीं मानूंगा अरे गोरे लोगो, तुम्हारी धौंस नहीं मानूंगा। दिल्ली मेरा गम्य (जाने योग्य) है, बेणेश्वर मेरा तारणीय है। नहीं मानूंगा अरे गोरे लोगो, नहीं मानूंगा।’
गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश में बसने वाले माव जी के भक्तों ने अन्य देशवासियों की तरह स्वदेश की स्वतंत्रता के लिए लड़ते-लड़ते मृत्यु का वरण किया था। उन अनाम वीरों को इतिहास ने बेशक भुला दिया हो, पर ग्राम्य गीतों में वे आज भी जीवित हैं। सन् सतावन की जनक्रांति में माव जी की रचनाओं का भरपूर सदुपयोग किया गया था। भगवान श्रीकृष्ण के अंशावतार माव जी का जन्म विक्रम संवत 1771 (सन् 1714 ई.) में माघ शुक्ल पंचमी के दिन साबला (सागवाड़ा से बीसेक कोस दूर) गांव में हुआ था। भगवान बेणेश्वर महादेव इनके आराध्य थे। माव जी के अनुयायियों द्वारा साल भर में छह रास लीलाएं की जाती हैं। वैशाख, कार्तिक एवं माघ पूर्णिमा के मौके पर इनका आयोजन राधा-कृष्ण मंदिर (बेणेश्वर धाम) में, भाद्रपद पूर्णिमा को हरिमंदिर (साबला) में और आसौज पूर्णिमा को निष्कलंक मंदिर में (शेषपुर) होता है। माव जी ने भूत, भविष्य और वर्तमान के संदर्भ में 72 लाख, 96 हजार वाणियां रचीं। इनकी आगलवाणियां पांच चोपड़ों में समाहित हैं। विक्रम संवत् 1801 (सन् 1744 ई.) में माघ पूर्णिमा के दिन माव जी महाराज परब्रह्मï में विलीन हो गए। माव जी की एक वाणी दृष्टव्य  है—
‘वायरा में वात थायेगा, दोरिये दीवा बलेगा, भेतमां पाणी फूटेगा।’
कहने का तात्पर्य यह है कि हवा में बातें होंगी, हाथ लगाते ही दीया चसेगा और दीवार से पानी निकलेगा। चलभाष, बिजली की रोशनी और नल के पानी
ने माव जी की वाणी की पुष्टि कर दी है।
जन धारणा है कि माव जी ने अपनी वाणियों के पांचों चोपड़ मात्र साढ़े तीन दिन में लिख डाले थे। माव जी द्वारा शुरू की गई पट्ट परंपरा के पीठाधीश महंत जब तक माव जी की प्रतिमा लेकर साबला गांव से त्रिवेणी संगम पर नहीं पधारते तब तक जन-स्नान प्रारंभ नहीं होता। दिन भर मेले में छायांकन करने के बाद शाम को मुझे फिर सांगवाड़ा जाना पड़ा। अगले दिन माघी पूर्णिमा थी इसलिए मुझे सूर्य निकलने से पहले मेले में पहुंचना पड़ा। धूप चढऩे पर फोटोग्राफी का मजा किरकिरा हो जाता है। पूर्णिमा को भी स्नानार्थियों का तांता बंधा रहा। बेणेश्वर में इतिहास, पुराण, पुरातत्व और समाज का समन्वय देखने वाला था, पर कुछेक चीजें मुझे बुरी लगीं। परलोक में बैठे पुरखों के पाप धोने की गरज से आदिवासी जिस जल में तर्पण करते हैं, उसी में चप्पल, जूते धोते हैं और उसी में मैले-कुचैले कपड़े छोड़ते हैं। लोग बाग अस्थि अवशेषों के साथ-साथ प्लास्टिक के थैले, खाने के पैकटों के गत्ते, अंगवस्त्र, कांच की बोतलें, फूल-फल और धूप-दीप आदि भी बेरोकटोक जल में फेंकते हैं। अपने अतीत पर सिसक रही पवित्र नदियों के पानी में यदि हम अड़ंग-बड़ंग डालते रहें तो बेचारी नदियों की क्या गति होगी? अस्थियों को जलगत करने के बारे में क्या हम कोई वैज्ञानिक पद्धति नहीं अपना सकते? तीर्थों के पानी को प्रदूषण से बचाने के लिए हमारे यहां कोई कानून क्यों नहीं है? व्यापार और बाजारू प्रवृत्ति ने बेणेश्वर की शुचिता और धार्मिक शुद्धता को मिटाकर यहां का प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट कर दिया है। पांच दशक पहले तक बेणेश्वर में शुद्धता, शांति, रमणीयता, आत्म कल्याण और लोक मंगल की जो अन्मित धाराएं बहती थीं, वे अब सूख गई हैं। उन दिनों इस अंचल की जन-संस्कृति, प्रकृति और इतिहास की पड़ताल के ढेरों मौके यहां सुलभ थे। तब यहां यात्रा, तीर्थयात्रा और लोकयात्रा का मजा एक साथ मिलता था।
प्राणदायी प्रकृति से हमारे तीर्थों का संबंध पूरी तरह टूट गया है। विकास के नाम पर बेणेश्वर का मूल चरित्र और उद्देश्य ही खत्म कर दिया गया तो विकास का अर्थ ही क्या रह जाएगा? तीर्थ संस्कृति की प्राण शिराएं हमने एकबारगी ही सुखा दी हैं। ऐसे नि:सत्व माटी में हरियाली के अंकुर कैसे फूटेंगे? बेणेश्वर के निकटवर्ती शहर-कस्बों में होटल खोलने की भगदड़-सी मची है।  हमारी तीर्थ संस्कृति विलासी टूरिस्टों के पांवों तले पिस रही है। रही-सही कसर पर्यटकों की अगवानी के लिए पहुंचे विकास ने पूरी कर दी है। भौतिकवाद और पर्यावरणीय संकट के इस दौर में हमें ऐसे शांत-एकांत स्थानों की अधिकाधिक आवश्यकता है, जहां प्रकृति बांहें पसारे हमारी अगवानी के लिए तत्पर हो।
‘पधारो म्हारो देस’ का राग अलापने वाले राजस्थान के बेणेश्वर धाम में स्वादिष्ट और तृप्तिदायक भोजन की जरूरत है। श्रद्धालु यहां भूखे पेट भटकते हैं। मेलेके आयोजकों से सुधार की अपेक्षा है।

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