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राष्ट्रीय चेतना के वाहक भारतेन्दु हरिश्चंद्र

डॉ. आनंद वर्धन भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म सन् 1850 में हुआ था। जब भारतेंदु बालक थे तभी 1857 में स्वतंत्रता का पहला संघर्ष भारतवर्ष में आरंभ हुआ। पूरे देश में अनेक स्थानों पर इस आंदोलन की चिंगारी फैल चुकी थी लेकिन जल्दी ही इसे कुचल दिया गया। 1857 में शुरू हुई क्रांति का प्रभाव पूरे […]
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डॉ. आनंद वर्धन
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म सन् 1850 में हुआ था। जब भारतेंदु बालक थे तभी 1857 में स्वतंत्रता का पहला संघर्ष भारतवर्ष में आरंभ हुआ। पूरे देश में अनेक स्थानों पर इस आंदोलन की चिंगारी फैल चुकी थी लेकिन जल्दी ही इसे कुचल दिया गया। 1857 में शुरू हुई क्रांति का प्रभाव पूरे देश पर पड़ा और परवर्ती समय में राष्ट्रवाद की चेतना बहुत अधिक फैली। इसके फलस्वरूप समाज पर भी इसका असर पड़ा और साहित्य पर भी। भारतेंदु का लेखन काल 1857 के बाद का ही है। वे सन् 1885 तक जीवित रहे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भी सन्ï 1885 में हुई। यानी सन्ï 1885 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी।
इस राष्ट्रीयता की भावना से भारतेंदु हरिश्चंद्र भी अछूते न रहे। उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से इस राष्ट्रवादी चेतना को न केवल रूपायित किया बल्कि आमजन को प्रेरित भी किया। इसके लिए वे कहीं व्यंजना का सहारा लेते हैं तो कहीं लक्षण का। भारतेंदु का समय वह काल था जबकि अंग्रेजों की दमनकारी नीतियां पूरे देश में पांव पसार चुकी थीं। इसके बावजूद भारतेंदु अंग्रेजों की निंदा करने में कभी नहीं डरे। उन्होंने मुखर होकर लिखा :
‘भीतर भीतर सब रस चूसै
बाहर से तन मन धन मूसै
जाहिर बातन में अति तेज
क्यों सखि साजन? नहीं अंगरेज।’

अंग्रेजों की चतुराई और वाक्पटुता का यह अद्ïभुत उदाहरण है। वे देश की पीड़ा को अभिव्यक्त करने में कभी नहीं हिचकिचाए। उन्होंने निर्भीक होकर लिखा कि जिस भारत को हम पूरे विश्व में सर्वोत्तम मानते थे आज उसी भारत से खुशियां गायब हो चुकी हैं। वे लिखते हैं :-
‘जो भारत जग में रह्यो सब सों उत्तम देश
ताही भारत में रह्यो अब नहीं सुख को लेस।’

उदात्त राष्ट्रीय भावना से भारतेंदु की रचनाएं ओतप्रोत हैं। वे देश और समाज की चिंता लगातार करते हैं और अपने अतीत को याद करते हुए भारत की इस दशा से दुखी हैं :-
‘जहं भीमकरन अर्जुन की छटा दिखती,
वहां रही मूढ़ता कलह अविद्या राती,
अब जहं देखहु तहं दुखहि दिखाई,
हा, हा, भारत दुर्दशा न देखी जाई।’

भारतेंदु की राष्ट्रीय भावना उनके नाटकों में बार-बार दिखाई देती है। अंधेर नगरी इसका उदाहरण है। अंधेर नगरी में चौपट राजा का राज्य है। यह अंधेर नगरी प्रतीक है भारत की और चौपट राजा तत्कालीन राज्य व्यवस्था है। इसी नाटक में भारतेंदु चना बेचने वाले पात्र के माध्यम से पूरी शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हैं। चने वाला गाते हुए चना बेचता है। यह केवल मनोरंजन के लिए नहीं है बल्कि यह जन-चेतना जाग्रत करने के लिए भी है। तत्कालीन प्रशासन के लिए चने वाले की पंक्तियां देखिए : –
‘चना हाकिम सब जो खाते,
सब पर दूना टिकस लगाते।’

इसी तरह चूरन बेचने वाला पुलिस और साहबों के लिए कहता है :-
‘चूरन साहेब लोग जो खाता,
सारा हिंद हजम कर जाता,
चूरन पुलिस वाले जो खाते,
बस कानून हजम कर जाते।’

भारतेंदु के ये पात्र आम जनता के बीच विचरण करने वाले पात्र हैं। उनकी यह टेर आमजन को सोचने के लिए विवश करती रहती है। इसी नाटक का एक प्रमुख पात्र है गोवर्धन दास जो अंधेर नगरी में आकर प्रसन्न तो है पर सच्चाई भी बयान करते हुए कहता है :-
‘अंधाधुंध मच्यो सब देसा,
मानहुं राजा रहत बिदेसा,
गो द्विज श्रुति आदर नहिं होई,
मानहुं नृपति विधम्र्मी कोई।’

भारतेंदु प्रकारांत से इस विधर्मी राजा से मुक्ति पाने की बात करते हैं। यह मुक्ति वास्तव में पराधीनता से मुक्ति है। राष्ट्रीय चेतना का प्रमुख उद्देश्य होता है स्वतंत्रता प्राप्ति अर्थात पराधीनता से मुक्ति पाना। राष्ट्रीयता की भावना का एक प्रमुख अंग है अपनी भाषा के प्रति जागरूकता। भारतेंदु इस बिंदु को लेकर अत्यंत संवेदनशील और सजग थे। वे अपनी भाषा की अस्मिता के लिए लगातार अपनी लेखनी चला रहे थे। एक ओर वे कहते हैं :-
‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’
तो दूसरी तरफ अंग्रेजी के विस्तार को देखते हुए उसका महत्व तो रूपायित करते हैं पर अपनी भाषा से बड़ा उसे नहीं मानते :-
‘अंगरेजी पढि़के जदपि सब गुन होत प्रवीन।
वै निज भाषा ज्ञान बिनु, रहत हीन के हीन।’

अंग्रेजों के द्वारा प्रवर्तित प्रेस के महत्व को जानकर भारतेंदु ने उसका उपयोग किया और स्वयं अनेक पत्रिकाएं निकालकर भारतीय जनमानस को प्रेरित करने का काम किया। वे पंक्तियां हिन्दी के प्रचार का काम तो कर ही रही थीं, भारतीयता और राष्ट्रीयता का प्रसार भी कर ही रही थीं। भारतेंदु अपनी कलम के माध्यम से अंग्रेजों से सीधे मोर्चा लेते हैं। वे ‘धनजंय विजय’  में लिखते हैं :-
‘वहै मनोरथ फल सुफल, वहै महोत्सव हेत,
जो मानी निज रिपुन सौं, अपुनो बदलो लेत।’

यह आह्वान है जनता का, शत्रुओं से बदला लेने का। वे शत्रु अंग्रेज ही तो हैं जिनसे भारतीय जनता बुरी तरह से त्रस्त थी।
भारतेंदु बार-बार अपने अतीत को याद करते हुए चेताते हैं कि जब-जब भारत में आपस में फूट पड़ी है तब-तब हमें गुलामी का मुंह देखना पड़ा है। ये पंक्तियां अत्यंत कारुणिक हैं जिनमें भारतेंदु अपने इतिहास के पन्नों को पलटते दिखते हैं :-
‘जग में घर की फूट बुरी,
घर की फूटहिं सों बिन साई सुबरन लंक पुरी,
फूटहिं सों सब कौरव नासै, भारत युद्ध भयो,
जाको घारो या भारत में अबलो नहिं पुज्यो,
फूटहिं सों जयचंद बुलायो, जबरन भारत धाम,
जाको फल अबलौं भोगता सब, आरज होई गुलाम।’

इनके माध्यम से वे सचेत कर रहे हैं कि एकता ही हमें मुक्ति दिला सकती है। भारतेंदु की एक बड़ी विशेषता थी कि वे यात्राएं किया करते थे और भारत के अनेक प्रदेशों की राजनैतिक जागरूकता से परिचित भी थे। वे बंगाल के परिवेश के माध्यम से भारत दुर्दशा पर लिखते हैं कि हिन्दी प्रदेश उतना जागरूक नहीं है जितना बंगाल। भारतेंदु ‘कविवचन सुधा’ में लगातार अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध कठोर टिप्पणियां लिखते रहे। अंग्रेजी राज्य में भारत की बढ़ती हुई दरिद्रता का उल्लेख करते हुए भारतेंदु लिखते हैं :-
‘कपड़ा बनाने वाले, सूत निकालने वाले, खेती करने वाले आदि सब भीख मांगते हैं—खेती करने वालों की यह दशा है कि लंगोटी लगाकर, हाथ में तूंबा ले भीख मांगते हैं और जो निरुद्यम है, उनको तो अन्य की भ्रांति है।’ इस प्रकार भारतेंदु ने स्वदेशी का आंदोलन चलाया था। उनहोंने स्वदेशी प्रचार-प्रसार के लिए एक प्रतिज्ञापत्र तैयार किया था और उस पर बहुत सारे लोगों के हस्ताक्षर लिये थे। भारतेंदु ने स्वदेशी के पक्ष में जोरदार मुहिम चलाते हुए लिखा था :-
‘भाइयो, अब तो संबद्ध हो जाओ और ताल ठोंककर इनके सामने खड़े तो हो जाओ, देखो भारतवर्ष का धन जिसमें जाने न पावे, वह उपाय करो।’
भारतेंदु की यह दृष्टि उन्हें राष्ट्रीयता का प्रबल समर्थक सिद्ध करती है। वे समाज के हर क्षेत्र का मूल्यांकन और विश्लेषण करते हैं। चाहे वह शिक्षा हो, उद्योग हो, सामाजिक सद्भाव हो या राष्ट्रीय चेतना। अपने अनेक निबंधों में भारतेंदु ने सूक्ष्म दृष्टि से विवेचन विश्लेषण किया है।

(स्वराज संदर्भ)

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