मोक्ष का रहस्य जानने के लिए छोड़ा घर
स्वामी दयानंद सरस्वती की 188वीं जयन्ती कल
राजेश कश्यप
महर्षि दयानंद आर्य समाज के संस्थापक, महान समाज सुधारक, राष्ट्र-निर्माता, प्रकाण्ड विद्वान, सच्चे संन्यासी, ओजस्वी सन्त और स्वराज के संस्थापक थे। उनका जन्म गुजरात के राजकोट जिले के काठियावाड़ क्षेत्र में टंकारा गांव के निकट मौरवी नामक स्थान पर भाद्रपद, शुक्ल पक्ष नवमी, गुरुवार, विक्रमी संवत् 1881 (फरवरी, 1824) को साधन संपन्न एवं श्रेष्ठ ब्राहा्रण परिवार में हुआ था। कुछ विद्वानों के अनुसार उनके पिता का नाम अंबाशंकर और माता का नाम यशोदा बाई था। उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। वे तीन भाइयों और दो बहनों में सबसे बड़े थे। उन्होंने मात्र पांच वर्ष की आयु में ‘देवनागरी लिपि’ का ज्ञान हासिल कर लिया था और संपूर्ण यजुर्वेद कंठस्थ कर लिया था। बचपन में घटी कुछ घटनाओं ने उन्हें मूलशंकर से स्वामी दयानंद बनने की राह पर अग्रसर कर दिया।
पहली घटना चौदह वर्ष की उम्र में घटी। उनके पिता शिव के परम भक्त थे। वर्ष 1837 के माघ माह में पिता के कहने पर बालक मूलशंकर ने भगवान शिव का व्रत रखा। जागरण के दौरान अद्र्धरात्रि में उनकी नजर मन्दिर में स्थित शिवलिंग पर पड़ी, जिस पर चूहे उछलकूद मचा रहे थे। एकाएक बालक मूलशंकर के मन में विचार आया कि यदि जिसे हम भगवान मान रहे हैं, वह इन चूहों को भगाने की शक्ति भी नहीं रखता तो वह कैसा भगवान?
इसी तरह की कई अन्य घटनाओं के बाद युवा मूलशंकर के मनो-मस्तिष्क में अब सिर्फ एक ही विचार बार-बार कौंध रहा था कि जब जीवन मिथ्या है और मृत्यु एकमात्र सत्य है। ऐसे में क्या मृत्यु पर विजय पाई जा सकती है? यदि हां तो कैसे?
इस सवाल का जवाब पाने के लिए युवा मूलशंकर खोजबीन में लग गया। काफी मशक्कत के बाद उन्हें एक आचार्य ने सुझाया कि मृत्यु पर विजय ‘योग’ से पाई जा सकती है और ‘योगाभ्यास’ के जरिए ही अमरता को हासिल किया जा सकता है। उन्होंने ‘योगाभ्यास’ के लिए घर छोडऩे का फैसला कर लिया। जब पिता को उनकी इस मंशा का पता चला तो उन्होंने मूलशंकर को मालगुजारी के काम में लगा दिया और इसके साथ उन्हें विवाह-बन्धन में बांधने का फैसला कर लिया ताकि वह विरक्ति से निकलकर मोह-माया में बंध सके।
जब उनके विवाह की तैयारियां जोरों पर थीं तो मूलशंकर ने घर को त्यागकर सच्चे भगवान, मौत और मोक्ष का रहस्य जानने का दृढ़संकल्प ले लिया। ज्येष्ठï माह, विक्रमी संवत् 1903, तदनुसार मई, 1846 की सायं को उन्होंने घर त्याग दिया। इसके बाद वे अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए दर-दर भटकते रहे। उन्होंने संन्यासी बनने की राह पकड़ ली और अपना नाम बदलकर ‘शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी’ रख लिया। वे सन् 1847 में घूमते-घूमते नर्मदा तट पर स्थित स्वामी पूर्णानंद सरस्वती के आश्रम में जा पहुंचे और उनसे ‘संन्यास-दीक्षा’ लेने के उपरांत उन्हें एक नया नाम दिया गया, ‘दयानंद सरस्वती’।
इसी दौरान जब वे कार्तिक शुदी द्वितीया, संवत् 1917, तदनुसार, बुधवार, 4 नवम्बर, सन् 1860 को यम द्वितीया के दिन मथुरा पहुंचे तो उन्हें परम तपस्वी दंडी स्वामी विरजानंद के दर्शन हुए। वे एक परम सिद्ध संन्यासी थे। पूर्ण विद्या का अध्ययन करने के लिए उन्होंने स्वामी जी को अपना गुरु बना लिया।
पूर्ण विद्याध्ययन के बाद दयानंद सरस्वती ने अपने गुरु की पसन्द को देखते हुए ‘गुरु-दक्षिणा’ में आधा सेर लोंग भेंट करनी चाही। इस पर स्वामी विरजानंद ने दयानंद सरस्वती से बतौर गुरु-दक्षिणा, कुछ वचन मांगते हुए कहा कि देश का उपकार करो, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मतमतान्तरों की अविद्या को मिटाओ और वैदिक धर्म का प्रचार करो। इसके बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने ही देशभर में सर्वप्रथम स्वराज्य, स्वभाषा, स्वभेष और स्वधर्म की अलख जगाई थी। उन्होंने अलौकिक ज्ञान, समृद्धि और मोक्ष का अचूक मंत्र दिया, ‘वेदों की ओर लौटो’। उन्होंने बताया कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। जिस प्रकार तिलों में तेल समाया रहता है, उसी प्रकार भगवान सर्वत्र समाए रहते हैं।
स्वामी दयानंद ने 10 अपै्रल, सन् 1875 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत 1932) को गिरगांव मुम्बई व पूना में ‘आर्य समाज’ नामक सुधार आन्दोलन की स्थापना की। विद्वानों के अनुसार, कुल मिलाकर उन्होंने 60 पुस्तकें, 14 संग्रह, 6 वेदांग, अष्टाध्यायी टीका, अनके लेख लिखे।
स्वामी दयानंद जी वर्ष 1883 में महाराजा के निमंत्रण पर जोधपुर पहुंचे। वहां पर उन्होंने महाराजा के महल में नर्तकी को अमर्यादित आचरण में पाया तो उन्होंने उसे अनैतिक व अमर्यादित आचरण छोड़कर आर्य धर्म की पालना का उपदेश दिया तो नर्तकी नाराज हो गई। 25 सितम्बर, 1883 को उसने मानसिक द्वेष के चलते रसाईए के हाथों स्वामी जी के भोजन में विष मिलवा दिया। विष-युक्त भोजन करने के उपरांत स्वामी जी रात्रि को विश्राम के लिए अपने कक्ष में चले गए। विष ने अपना प्रभाव दिखाया और स्वामी जी तड़पने लगे। रसोइये को भयंकर पश्चाताप हुआ और उसने स्वामी जी के चरण पकड़कर अपने अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा-याचना की। इस परम संन्यासी ने रसोईये को न केवल क्षमा किया, अपितु धन देकर राज्य से बाहर भेज दिया, ताकि सच का पता लगने पर महाराजा उसे कठोर दण्ड न दे दें। पापिनी नर्तकी के महापाप के चलते विष की भयंकर पीड़ा में तड़पते हुए अंतत: कार्तिक मास, अमावस्या, मंगलवार, विक्रमी संवत् 1940 (31 अक्तूबर, सन् 1883) को दीपावली की संध्या को 59 वर्ष की आयु में यह परम दिव्य आत्मा परम पिता परमात्मा के चरणों में विलीन हो गई।