भ्रूण हत्या
सरकारी कार्यक्रम महज कागज़ी घोड़े
___जया नर्गिस
समाज लड़की को एक बोझ, अभिशाप समझता है, जिससे मुक्ति पाने का सरल रास्ता भ्रूण हत्या है, लेकिन गर्भपात के दौरान गर्भवती की जान को भी खतरा हो जाता है। कई मामलों में तो सामाजिक, पारिवारिक व मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण स्वयं मां अपने गर्भ की बच्ची को गिरा देने को राजी हो जाती है। वैसे उसके राजी होने का प्रश्न प्रमुख नहीं है। उसे तो हर हाल में पति व परिवार की मांग को पूरा करना पड़ता है। स्त्री जाति को हीन समझने की घटिया मानसिकता के तहत समाज में लिंग अनुपात गड़बड़ा गया है।
मदर टेरेसा ने एक बार कहा था कि यदि हम यह स्वीकार कर लें कि एक मां अपने बच्चे की हत्या कर सकती है तो दूसरों से कैसे कह सकते हैं कि वे एक-दूसरे की हत्या न करें।
1984 में कनाल सिटी, मिस्सौरी में नेशनल राइट्ïस फॉर लाइफ कन्वेन्शन में श्रीमती रेसल्स और डाक्टर बेमर्ड द्वारा गर्भपात पर बनाई गई एक अल्ट्रासाउंड मूवी का आंखों देखा हाल सुनाया गया। इसी मूवी में एक बालिका, जिसकी गर्भ में आयु मात्र दस सप्ताह थी, को सक्शन एबार्शन द्वारा समाप्त करने का दिला दहला देने वाला दृश्य था।
किस प्रकार सक्शन पंप द्वारा पहले उस मासूम बालिका की कमर (स्पिन) तोड़ी गई, फिर गाजर-मूली की तरह उसके हाथ-पैर काटे गए और अंत में फोरसेप (संडसी) द्वारा उसके सिर को दबाकर तोड़ दिया गया, क्योंकि सिर, बिना तोड़े सक्शन ट्ïयूब से बाहर नहीं निकाला जा सकता था। इस वीभत्स कृत्य के दौरान दस सप्ताह की वह बालिका जो अजन्मी ही थी, किस प्रकार दहशत से सिकुड़ती रही, मूक चीख मारती रही और उसके दिल की धड़कन जो पहले 120 की साधारण गति पर थी, इस सारे वहशियाना खेल के दौरान 200 की गति तक पहुंच गई थी। पंद्रह मिनट तक चले इस जघन्य ड्रामे को एक डाक्टर ने कौतूहलवश कैमरे में कैद कर लिया था। लेकिन जब उसने यह फिल्म अकेले में देखी तो उससे बर्दाश्त नहीं हुआ और वह अपना क्लीनिक छोड़ कर हमेशा के लिए कहीं चला गया।
खान-पान और जीवन के अन्य आवश्यक घटकों में महिला को न्यूनतम हिस्सेदार बना देने के कारण उसके शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आर्थिक विकास भी न्यूनतम होते हैं। इस प्रकार महिला पुरुषों के मुकाबले आधे से भी कम प्रतिशत जीवन जी पाती हैं। बालिका भू्रण हत्या से दहेज हत्या तक की त्रासद जीवन यात्रा में महिलाओं की संख्या घटकर आधी रह गई है। यह एक शर्मनाक तथ्य है जो किसी भी देश या समाज की खोखली प्रगति को उजागर करता है।
इसका संबंधित दूसरा पहलू यह है कि कार्यशील महिलाओं की संख्या में भी गिरावट आई है। इससे सिद्ध होता है कि महिलाओं, विशेषकर अनुसूचित वर्ग की महिलाओं के लिए चलाए गए कार्यक्रमों ने उन्हें मदद पहुंचाने के स्थान पर उनके हितों का ही हनन किया है। बदलती अर्थ व्यवस्था की हालत से भी महिलाओं को क्षति पहुंची है। महिलाओं के हित के लिए चलाए जाने वाले लगभग समस्त सरकारी कार्यक्रम, बिना उनकी भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति का अध्ययन किए महज कागजी घोड़े दौड़ाने वाले ही सिद्ध हुए हैं।