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भूल गये चौमासा

मींह-पानी की मस्ती नहीं चौमासे की चहल-पहल ग्रामीण जनजीवन को मनमौजी बना देती है। मानसून पर टिकी किसान संस्कृति के लिए तो चौमासे के खास मायने हैं। इससे जुड़े तमाम रीति-रिवाज, लोकगीत-कहावतें, मिथक-किंवदंतियां  तन-मन को भिगो देते हैं। भाग-दौड़ की जिंदगी में हम अपना जो कुछ पीछे छोड़ आए, उसी की याद दिला  रहे हैं […]
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मींह-पानी की मस्ती नहीं

चौमासे की चहल-पहल ग्रामीण जनजीवन को मनमौजी बना देती है। मानसून पर टिकी किसान संस्कृति के लिए तो चौमासे के खास मायने हैं। इससे जुड़े तमाम रीति-रिवाज, लोकगीत-कहावतें, मिथक-किंवदंतियां  तन-मन को भिगो देते हैं। भाग-दौड़ की जिंदगी में हम अपना जो कुछ पीछे छोड़ आए, उसी की याद दिला  रहे हैं ग्रामीण जनजीवन की नब्ज पहचाने वाले राजकिशन नैन
असाढ़ मास में जब भी रवि के इर्दगिर्द घनशावकों को आंख-मिचौनी खेलते देखता हूं, पचास साल पूर्व का चौमासा दिमाग में कौंधने लगता है। चौमासे की अनेक खट्टी-मीठी यादें जेहन में तैरने लगती हैं। यादें लाल कमल और हरे पातों से भरे तालाबों की, यादें सिंदुरी आमों के भार से झुकी अमराइयों की, यादें कोयल और पपीहे की रस में भीगी बानी की, यादें तीज और सलूनों की, यादें पींघ-पाटड़ी की, यादें गुड़-आटे की सुहाली और सक्करपारों की, यादें कुश्तियों के दंगल की, यादें कालीघटा तले उड़ते बगुलों की, यादें झमाझम बरसते मींह की, और भी न जाने कितनी सुरंगी यादें।
चौमासे का रमला-ठमला चार महीने रहता है, इसीलिए इसका नाम चौमासा पड़ा है। चौमासा, वसंत की तरह मन को लुभाने वाला है। जिस तरह मयूर मेघ को देखकर  मस्त हो जाता है उसी तरह संपूर्ण जगत चौमासे की चहर-पहर से खिल उठता है। चौमासे की शाहना खूबी यह है कि चौमासा मिज़ाज का मनमौजी है। मौजी का रूप धरे तो पल में प्रलय मचा दे। रूठने पर आये तो जगत का हलक सुखा दे। चौमासे के इस फक्कड़ स्वभाव के कारण हमारे बडेरे चौमासे को भगवान की लीला मानते आये हैं। इंद्र को हम बारिश का देवता कहते हैं। अन्न और जल की नियंता होने के नाते पावस हमारी मां है। हमारी खेती का बड़ा भाग आज भी मां की अनुकम्पा पर निर्भर है। यदि बरखा मां सदय न हो तो अन्न-जल के अभाव में सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच जाये। प्रकृति का सद्य: स्नात रूप चौमासे की देन है। चौमासे की चहल-पहल के क्या कहने! वे सब धन्य हैं जिन पर चौमासा रजू रहता है।
बालकपन में मींह में भीगने की इच्छा इतनी बलवती होती थी कि जेठ की लूओं में ही मेंह का मोह सताने लगता था। लंबी बाट जोहने के बाद जब किसी दिन इंद्रदेव रजू होते तो सारा मोह मुखरित होकर जिब्वा पर आन पसरता, हम गाने लगते—
‘डांगर माणस मरैं तिसाए, इन्हैं बी हरसा दे,
बूंदाबांदी के करै, ठाड्ढा मींह बरसा दे।’
चौमासे के दिनों जब कभी सूरज तेजी में छिपता और पच्छम में आसमान लाल रंग का होता तो अगले दिन ‘क्यारी भर’ मींह बरसा करता। दो-चार ऐसे मींह पडऩे पर गलियों में पानी समाया नहीं करता तथा लेट-जोहड़ ठाड्ढे ठुक जाया करते। मींह के दौरान हम गलियों के मटमैल्ले पानी में खूब धमा-चौकड़ी मचाते और भीगने पर उल्लास से किलकारियां मारते तथा पतराह्ल (छत के पानी की निकासी के लिए कुम्हार द्वारा बनाया गया मिट्टी का पका हुआ लंबोतरा पात्र) तले देर तक नहाते। पानी में छपक-छैया खेलते। बरसते मींह में ही भागते हुए खेतों में जाते और लसोड़े के पेड़ पर चढ़कर लेहसुए खाते। लेहसुओं की लेही बनाकर हम फटी हुई किताब-कापियों को जोपते थे। भीनी-भीनी खुशबू वाले जामुन के आकार वालेे लेहसुए असाढ़ की पूर्णिमा तक पककर पीले-भूरे रंग के हो जाया करते। काली-काली जामुन भी असाढ़ उतरे पक जाया करती।  पटसन के पत्ते खाने का मौका भी हमे चौमासा देता था। पटसन के खट्टे पत्ते खाये बगैर कल न पड़ती थी। कुकड़ी (मकई का भुट्टा) भी चौमासे की मजेदार सौगात थी जिसे हम आग में भूनकर खाया करते। टपके वाले सिंदुरी और सरोली आमों के चुसड़ के भी हमें चौमासा मुहैया करवाता था। पेड़ से स्वत: पककर गिरने वाले आमों में रस की अधिकता के कारण टपका लग जाया करता। टपके वाले आम इतने रसनीय होते थे कि हम खाते-खाते न छकते थे। उस जमाने में पेड़ पर पके आम चूसने का ही रिवाज था। तब, कच्चे आम केवल अचार और चटनी के लिए तोड़े जाया करते। पर हम लुक-छिपकर अधपके आम तोड़ा करते और घर लाकर उन्हें तूड़ी में दबा दिया करते। दो-चार दिन में जब तूड़ी की गरमाहट से आम पिलपिले हो जाते तो हम उन्हें रोटियों संग चाव से खाते थे। अब आम विक्रेता आमों को कैल्शियम कार्बाइड के पाउडर से पकाते हैं जो एक खतरनाक ज़हर है। हरियाणा में चौमासा असाढ़ से आरंभ होकर आसोज तक रहता आया है। बांगरू यानी जाट्टू की एक कहावत है—’आद्धै साढ तो राम बैरी तैं बैरी कै बी बरस्या करै।’ पहले किसान का साल असाढ़ से जेठ तक रहता था। चौमासे की दया-मया से द्रवित होकर हमारे बूड्ढे-ठेरों ने सालभर में ली जाने वाली अपनी दोनों साखों के नाम क्रमश: साड्ढू (रबी) और सामणू (खरीफ) रखे थे। गंवई-गांव में चौमासे की महिमा अपार एवं अछोर थी। यदि कहूं कि गांवों में मींह के रूप में राम बरसता था तो अत्युक्ति न होगी। बडेरू कहा करते—’बरस राम जी बरस, राम जी कद बरसैगो।’ मींह बरसता रहे तो रामजी प्रसन्न रहते हैं। बड़े-बूड्ढे मींह का बखान यूं करते थे—’बरसंता मेंहा भला, राजी रहसी राम दूध, बेटा-बेटी व मींह सबसे मूल्यवान माने गये हैं। बड़े कहते थे—मींह और बेटा-बेटी रोज-रोज नहीं होते।’ अच्छे सम्मत की खातिर ग्रामवासी अकसर बदली से यूं अनुनय करते थे—’बरस बरस हेबादली सम्मत गहरा होय।’ राम से भी बड़सिर यही प्रार्थना करते थे—’ऐसो सम्मत होय जो निपजैं सातों तूंत।’ आज के मौसम विज्ञानी व कृषि पंडित मगजपच्ची करने के बावजूद शायद ही बता पायें कि ऊपर वर्णित सात तूंत कौन-कौन से हैं? देहात के अपढ़ बुजुर्ग तत्क्षण इनका भेद खोल दिया करते। मींह को बुलाने के लिए हम यह कहकर मींह की लल्लो-चप्पो किया करते—’मींह बाबा आज्या, खांड खोपरा खाज्या’ इतनी बिनती के बाद भी जब मींह नहीं बरसता तो ग्रामजन मींह-पानी को रिझाने के लिए कई शकुन किया करते। गांववासी नेह लगाकर तालाबों की छंटाई करने लग जाते। चौपाल में चावल बनाकर समूचे गांव का जीमणा करते। गरीब-गुरबों को अन्न बांटते। लड़कियां और स्त्रियां घर-घर से तेल, गुड़ और आटा एकत्र करके जोहड़ के किनारे गुलगुले और पूड़े बनातीं तथा वृद्धाओं एवं जरूरतमंदों को जिमातीं। गेहूं-चने को उबालकर उसकी ‘घुगरी’ पंच पीरों की चोंतरी पर बांटी जाती। गभरेटी लड़कियां प्याज के बड़े-बड़े छिलकों में सरसों का तेल डालकर उनको कड़ाही की तरह आग के अंगारों पर रखकर उनमें झड़बेरी के बेर के आकार के गुलगुले उतारती। इस तरह के शकुन करने के उपरांत अकसर बरखा हो जाती थी। वे चौमासे से डेढ़ माह पूर्व आखा तीज की पूजा में बरते जाने वाले माटी के चार कोरे मटकों पर क्रमश: असाढ़, सावन, भादों व आसोज के नाम लिख लेते। फिर उनमें मिट्टी पानी के साथ चने के दाने बीज देते। जिस माह के मटके में जैसे कल्ले फूटते, उस माह वे वैसा ही मींह बरसने का अंदाजा लगा लेते। ताज्जुब यह है कि उनका अनुमान कतई खरा निकलता। पपीहा भी मींह की बाट में आतुरता से गाता है। चौमासे में इसके मीठे बोल दूर से सुनायी देते हैं। चौमासे के बाद इसके गीत अगले चौमासे में सुने जा सकते हैं। बाकी के दिनों यह चुप रहता है। चौमासे को बुलाने के लिए सबसे ज्यादा गीत कोयल गाती है। कोयल बसाख में गीत गाना शुरू करती है। जेठ और असाढ़ में अनवरत गाती है। सावन उतरते-उतरते इसकी जबान थक जाती है। महोक राम बरसने के बाद गीत गाना आरंभ करता है और छह माह तक निरंतर गाता रहता है। मेढक भी तालाब तिलरने के उपरांत अपना राग अलापना शुरू करते हैं। मेढक दिन में कम और रात में अधिक गाते हैं। मेढक ऊंचे स्वर में टर्राकर चौमासे की अगुआई करते हैं। जल देवता के संग इनका नेह-नाता सदियों से है। बांगरू कहावत है—’टरडृू मींडक गावैं गीत, इंदर इन्ह का काम्मल मीत।’ बीसवीं सदी के मध्य तक हरियाणा में पावस के मित्र पक्षियों की डार की डार विचरती थी। किंतु 21वीं सदी तक आते-आते  ज्यादातर पक्षियों का खातमा हो गया है। चौमासे में जो कीट-पतंग दिखते थे, वे भी नहीं रहे। गंडेवा, गिजाई, भंभीरी, भौरा, राम की गा, डांस, पट्टबीजणा, टरड़ू मींडक और तीज जैसे उपयोगी जीव अब चौमासे में कहीं नहीं दिखते। तीज नामक लाल मखमली जीव के नाम पर झूलों के त्योहार का नाम तीज पड़ा था। तीज कभी सूखी नहीं जाती थी। तीज आने तक लेट-जोहड़ मींह के पानी से गड्ढे ठुक जाया करते। नीम, बड़ व पीपल की सिखरी में चढ़कर हम जोहड़ में डांक मारा करते। भैंस के ऊपर बैठकर बारी लिया करते और बाद में भैंस की पूंछ पकड़कर घंटों पानी में तैरा करते। पानी में कई खेल खेला करते। किंतु अब जोहड़ों का पानी नहाने योग्य नहीं रहा। जो थोड़े से तालाब बचे हैं, उनमें मछली पालन होता है। जोहड़ों की पाल पर पेड़ लगाने वाले लोग नहीं रहे। मींह (जलदेव) को रिझाने के लिए अब कोई व्यक्ति वनोपज को देवी अरण्यानी के रूप में नहीं पूजता। बाग-बगीचे नहीं रहे। चौमासे में हरियल अथवा सिंधारा तीज, सलूनो और गुग्गा नवमी के मेलों की मनोहर एवं मांगलिक छटा देखते ही बना करती।  हरियाल बाग में पींघ-पिंझोली पड़ा करती। कोकिल कंठी नारियां पेंग बढ़ाती हुई सावनी गीत गाया करती। एक गीत मुझे अब तक याद है जिसमें एक तरुणी अपनी मां से बाग में झूलने के लिए आग्रह कर रही है—
‘साम्मण की मस्त बहार स री,
तीज्जां का आज त्युहार स री,
हां री म्यरी मां… हां री म्यरी मां,
झूलण जांगी बाग म री।’
नवोढाएं झूलती हुई हाथ लह्फा कर अपनी सासू का नाक तोड़ा करती। हमारा सारा दिन पींघ पर बीतता था। सारा सावन बगड़ में खड़े नीम पर पींघ घली रहती। स्वत पककर नीचे पड़ी पीली-पीली निंबोलियां खाते रहते और झूलते रहते। महीना-महीनाभर मां के हाथ की बनी सुहालियां और सक्करपारे खाने को मिला करते। सरसों के तेल, गुड़ और आटे से बनी उस देसी मिठाई की महक आज तक भीतर में रमी हुई है।
अपनी बड़ी बहन की कोथली तीजों के दिनों बरसों तक मैं ही देकर आया करता। मेरी मां धड़ी-छह सेर सुहाली कम से कम बांधा करती। सलूनो के दिन मेरी बहन पौंहची बांधती तो खुशी से फूला न समाता। गुग्गा नवमी के दिन गांव में ‘छड़ी का मेला’ भरता तो हमारी मौज हो जाती। मेले में अलगोज्जा खरीदकर कई दिन बजाते। चाव से कुश्तियों का दंगल देखते। चौमासे में ग्रामजन आल्हा और बारहमासा गाया करते। बारह मासिया की दो पंक्तियां याद आती हैं—
‘पान सुपारी पतासा, कैसे काटूं चौमासा,
पिया गये परदेस, मिलन की लग रही आसा।’
‘चंदणा गीत’ भी चौमासे का मर्मभेदी गीत होता था। चौमासा अब भी आता है पर हमने उसकी सुध बिसरा दी है।

बारिश की भविष्यवाणी

चौमासे से पूर्व गांवों-कस्बों में पवन परीक्षा के मेले जुड़ा करते जिनमें सयाने लोग मींह और फसल संबंधी भविष्यवाणी किसानों को विस्तार से बताया करते। सोण साधने वाले बडेरू प्रकृति, पवन, सूर्य, चंद्र, पशु-पक्षी एवं बादलों का रंग-ढंग देखकर सुकाल-दुकाल की बात अगाऊ बता देते थे। मेरा परदादा इंद्राज साढ के महीने में सोण लिया करता और चौमासे के चारों महीनों के मींह-पानी की बाबत गांववासियों को अगाऊ चेता दिया करता। साढ में सोण लेने के कारण गांववासी उनको सोणी के नाम से पुकारा करते। वह कहा करता—’चैत चिड़पड़ा, साम्मण खडख़ड़ा।’ अर्थात् यदि चैत का महीना गीला रहेगा तो सावन सूखा रहेगा। मेरा बाप मेरे दादा द्वारा रची एक और कहावत यूं सुनाया करता—
‘अक्खा कोदो नीम बन, आम्मां बौरी धान।
जै केस्सू फूलै नहीं, मेंहा नहीं निदान।।’
अर्थात् आक बढिय़ा फूलने पर कोदो (सांवा की जाति का एक मोटा अन्न), नीम कोहर से लदने पर कपास और आम वेग से बौरने पर धान की पैदावार ज्यादा होगी। लेकिन यदि ढाक (पलाश) मंद खिलेगा तो मींह नहीं बरसेगा। बुजुर्ग सूर्य और चंद्रमा के आधार पर भी मींह का अंदाज लगाते थे। मेरे नाना कहा करते—
‘सूरज कुंडल चांद जलैहरी।
कटज्यां टीब्बे, भरज्यां डहरी।’
अर्थात दिन में सूर्य और रात को चंद्र के इर्दगिर्द मंडलाकार तेज चमक हो तो मूसलाधार मींह बरसेगा। पेड़-पौधे और कीड़े-मकोड़े मौसमी बदलाव को हमसे ज्यादा पहचानते हैं। नन्ही-सी कीड़ी एक क्षण में सब भांप लेती है, जिसके लिए हमें कंप्यूटर पर ढेरों मगजपच्ची करनी पड़ती है—
‘कलसे पानी गरम हो, चिडिय़ा न्हावै धूर।
अण्डा ले चींटी चढैं, भड्डरि बरखा पूर।’
भड्डरि का कहना है कि घड़े का पानी स्वत: गरम होने लगे, चिडिय़ां धूल में न्हायें और चींटियां अपने अंडों को लेकर ऊपर चढ़े तो भारी मींह का योग है। हमारे बड़े पशु-पक्षियों के हाव-भाव से मींह-पानी का पता लगा लिया करते—
‘ढेले ऊपर चील्ह जो बोले,
गली-गली में पानी डोले।’
यानी ढेले पर बैठकर चील बोलती है तो ठाड्ढा राम बरसता है। कोयल, पपीला, महोक, बगुला दर्जी पक्षी और मोर आदि पक्षी भी चौमासे को न्योतने हेतु अगाड़ी रहते हैं। मोर मानसुनी हवा को फौरन पहचान लेता है—
‘बोलै मोर महातुरी, खाट्टा होय जो छाछ।
मेंह मही पर परन को, जानो काछे काछ।’
मतलब यह कि मोर यदि अधिक अधीरता से बोलता हो और सीत अपने आप खट्टा हो जाये तो समझो कि मींह धरा से मिलने के लिए कछनी काछे खड़ा है। चौमासे की चम्हाट से पूरित रसभीनी फुहारों के जिस माधुर्य को मोर जी जान से लूटता है, उसे हम कदापि नहीं पा सकते। मोर चौमासे के जितना पास है, हम उससे उतना ही दूर हैं। टिटहरी के जरिये भी बडेरे चौमासे का अतापता लगाते थे। मेरी मौसी पतोरी बताया करती कि जिस साल टिटहरी अपने अंडे ऊंची जगह देती है उस साल छिकमां मींह बरसता है। लेकिन जिस बरस वह ढलवां जगह को अंडे देने के लिए चुनती है तो मींह कामचलाऊ-सा होता है।

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