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पुलिस को क्यों नहीं मिलता लोगों का सहयोग

मीरा राय भीड़ भरे बाजारों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, पार्कों तथा सार्वजनिक मूत्रालयों में अपराध और आतंकवाद के विरुद्ध चेतावनी देते व इनके विरुद्ध लड़ाई में शामिल होने का आह्वान करते दर्जनों पोस्टरों, विज्ञापनों और नारों को शहरों की दीवारों पर देखा जा सकता है। लेकिन फिर भी देखा जाता है कि आतंकवाद के विरुद्ध […]
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मीरा राय

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भीड़ भरे बाजारों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, पार्कों तथा सार्वजनिक मूत्रालयों में अपराध और आतंकवाद के विरुद्ध चेतावनी देते व इनके विरुद्ध लड़ाई में शामिल होने का आह्वान करते दर्जनों पोस्टरों, विज्ञापनों और नारों को शहरों की दीवारों पर देखा जा सकता है। लेकिन फिर भी देखा जाता है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों को आम लोगों से वह मदद नहीं मिल पाती जिसकी उन्हें आम लोगों से अपेक्षा होती है। सवाल उठता है कि आखिर इसके क्या कारण हैं? क्या इसका मतलब यह है कि आम लोग आतंक और अपराध के विरोधी नहीं हैं? क्या लोग राष्ट्रभक्त नहीं हैं? अथवा हम लोग कायर हैं? ये तीनों कयास न केवल अतिवादी हैं बल्कि गहराई से सोचकर देखें तो ये तीनों कयास हास्यास्पद भी हैं, क्योंकि आम लोग न तो आतंकवाद या अपराधों के पक्षधर हैं और न ही आम लोग राष्ट्रद्रोही हैं। रही बहुसंख्यक लोगों को कायर मानने की बात तो यह भी एक आत्मघाती सोच होगी।
जहां तक रही बात आम लोगों की उदासीनता की तो निश्चित रूप से इसके लिए न तो लोगों की सामाजिकता जिम्मेदार है और न ही उनकी स्वार्थपरता। लोगों में आपसी भाईचारे की भी कमी नहीं है। लोगों को सामाजिक दायित्व बोध भी है। अपने देश और समाज के प्रति दायित्वों को निभाने का भी उनमें जज्बा है। फिर भी यदि आम लोग परिणाम के स्तर पर आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में भागीदार नहीं दिखाते तो इसके लिए दो चीजें जिम्मेदार हैं—पहली चीज है हमारी प्रशासनिक व्यवस्था और दूसरी चीज है आम लोगों की कठिन आर्थिक परिस्थितियां। व्यवस्था आमतौर पर एक जटिल शब्द है। कभी-कभी अपनी इसी जटिलता के कारण इसे एक अमूर्त शब्द भी मान लिया जाता है। दरअसल, हमारी आम प्रशासनिक व्यवस्था इतनी पेंचदार है कि आम आदमी इसमें भागीदारी की जल्दी से हिम्मत ही नहीं कर पाता।
दुनिया की शायद ही कोई दूसरी प्रशासनिक व्यवस्था इतनी उबाऊ, नीरस और असहयोगी किस्म की हो जितनी कि हमारी व्यवस्था और उसमें भी खासकर पुलिस महकमा है। हमारे यहां पुलिस से लोग किस तरह दूर भागते हैं इसको इसी बात से जाना जा सकता है कि आम लोगों के बीच यह जुमला बड़ा मशहूर है कि पुलिस की न तो दोस्ती भली और न ही दुश्मनी। इस जुमले से अंदा$जा लगाया जा सकता है कि हमारे यहां पुलिस की छवि क्या है? इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पुलिस के प्रति हमारे यहां लोगों का नजरिया, रवैया क्या होता है? ऐसा नहीं है कि आम लोगों का पुलिस के प्रति यह रवैया उनकी किसी गलतफहमी का नतीजा हो या कि आम लोग पुलिस के प्रति किसी जबरदस्त पूर्वाग्रह का शिकार हों। दरअसल, आम लोगों में पुलिस के प्रति जो यह डर भरे शक का नजरिया बना है, उसमें पुलिस की ज्यादतियां और अपनी ताकत का उसके द्वारा किए जाने वाले दुरुपयोग से ही बना है।
सच्चाई यही है कि हमारे यहां पुलिस कभी नागरिक सुरक्षा का अपना दायित्व निभाती नजर नहीं आती बल्कि वह हमेशा लोगों पर अपना शासन करती है। उन पर अपनी ताकत का रौब झाड़ते ही नजर आती है। इसलिए आम लोग पुलिस को हमेशा शक की निगाह से देखते हैं। उसके साथ किसी भी तरह से संबंध बनाने से कतराते हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज स्व$ आनंद नारायण मुल्ला ने एक बार पुलिस के इसी चरित्र को उजागर करते हुए इसे ‘वर्दीधारी गुण्डे’ की संज्ञा दी थी। एक बार एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने इस लेखक से बात करते हुए कहा था कि पुलिस वालों के घर आने जाने से समाज के प्रतिष्ठित लोग कतराते हैं। क्योंकि आमतौर पर माना जाता है कि पुलिस वालों के घर वही लोग आते हैं जो अपराधी प्रवृत्ति के होते हैं।
आम लोगों का पुलिस के साथ व्यावहारिक अनुभव इतना कटु होता है कि वह चाहकर भी पुलिस के साथ अपना सहयोगी रुख नहीं बना पाते। कई बार ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति बहुत ही ईमानदारी और जज्बे के साथ पुलिस को मदद करने के लिए आगे आता है लेकिन उसे मदद करने के एवज में ऐसी भूल-भुलैया से गुजरना पड़ता है कि वह आगे से कभी इस तरह की मदद के लिए कान पकड़ लेता है। आम लोग पुलिस के साथ इसलिए भी सहयोगी रवैया अपनाने से झिझकते हैं क्योंकि कई बार पुलिस मदद करने वाले को ही इतना परेशान करती है कि उसे बरबस ही आगे कभी पुलिस को सहयोग न करने के लिए तौबा करना पड़ता है।
कहने को तो हमारे यहां डेमोक्रेसी है। माना जाता है कि प्रजातंत्र में सबसे ज्यादा ताकतवर आम जानता यानी प्रजा होती है। लेकिन ये सब किताबी बातें हैं। वास्तविकता यह होती है कि प्रजातंत्र में प्रजा की कोई हैसियत नहीं समझी जाती। प्रजातंत्र की असलियत यह होती है कि इसमें प्रजा के साथ ताकतवर संस्थाएं और उनके अधिकारी इस तरह का सलूक करते हैं जैसे कभी राजशाही में राजा अपनी प्रजा के साथ किया करती थी। दरअसल यह प्रजातंत्र भी व्यवहार में एक तरह का राजतंत्र बन जाता है। फर्क सिर्फ इतना भर होता है कि राजतंत्र में जहां एक राजा होता था वहीं प्रजातंत्र में सैकड़ों राजा उभर आते हैं। इसलिए आम जनता अपनी तमाम भावनाओं और जज्बातों के बावजूद आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं करती। यह लड़ाई एक तरह से पुलिस और दूसरी सुरक्षा एजेंसियों व अपराधियों-आतंकवादियों के बीच की लड़ाई बन जाती है।
आम जनता अगर पुलिस को जरूरी सहयोग नहीं कर पाती तो इसका एक और प्रमुख कारण आम लोगों की आर्थिक मजबूरियां भी हैं। आज भी हमारे यहां 40 फीसदी से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करते हैं और लगभग इससे आधे लोगों की इस तरह की आर्थिक स्थिति है कि वे दिन रात अपनी आर्थिक गतिविधियों में ही फंसे रहते हैं उनसे उनको मुक्ति ही नहीं मिलती ताकि किसी और विषय में कुछ सोच सकें। इसलिए ऐसे लोग चाहकर भी आतंकवाद-अपराधियों आदि के विरुद्ध किसी तरह की कोई मदद नहीं कर पाते।
इसलिए फर्ज के बावजूद लोग आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में हिस्सेदारी नहीं कर पाते। अगर सचमुच लोगों की सक्रिय भागीदारी आतंकवाद के विरुद्ध तय करनी है तो उन्हें कम से कम इस तरह की सुविधाएं तो मिलनी ही चाहिए।
0 आम लोगों के साथ पुलिस का नजरिया दोस्ताना होना चाहिए।
0 आम लोगों को अनावश्यक परेशान नहीं किया जाना चाहिए।
0 उन्हें बेमतलब की कार्यवाहियों और उबाऊ प्रतिक्रियाओं में नहीं उलझाना चाहिए।
0 उन्हें भरपूर संरक्षण मिलना चाहिए।
0 पुलिस को आम लोगों के साथ विश्वसनीयता बनानी चाहिए।
इस सबके बाद ही हम आम लोगों के पुलिस के साथ सहयोगी रवैये की उम्मीद कर सकते हैं।

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