तब लोग एेसे नहीं थे
बायस्कोप/आशा पारेख
असीम
मैं फिल्मों में कैसे आयी…इस बारे में सोचती हूं,तो कुछ धुंधले से अक्स उभरते हैं। मैंने पहली बार चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर कैमरे का सामना किया था। इस फिल्म का नाम था आसमान। यह शायद 1952 की बात है। इसके बाद एक नृत्य समारोह में मुझे देखकर फिल्मकार बिमल राय ने मुझे पसंद किया। इसके कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे बाप-बेटी फिल्म में मौका दिया। तब मेरी उम्र मात्र बारह साल थी। उस उम्र में मैंने कभी अभिनेत्री बनने का सपना नहीं देखा था। नायिका बनने का ख्याल और चार साल बाद जेहन में आया। 16 साल की उम्र में मैं जगह-जगह जाकर आडिशन देने लगी। वैसे इस बीच सुबोध मुखर्जी और नासिर हुसैन ने मेरे लिए एक रास्ता खोल दिया था। वह फिल्म थी 1958 की दिल देके देखो।
वह बातें कुछ-कुछ याद आती हैं
इसके बाद नासिर हुसैन ने मुझे लेकर बहुत सारी फिल्में बनायी। ऐसे में बतौर हीरोइन अपने पहले दिन की शूटिंग का जिक्र करना लाजिमी है। जाहिर है दिल देके देखो के बारे में ही बात करूंगी। मैंने अपना पहला शॉट शम्मी कपूर के साथ दिया था। यह शूटिंग हुई थी एक स्टूडियो में। यह शॉट एक गाड़ी के इर्द-गिर्द था। वह शॉट इतना छोटा था कि मैं और शम्मी जी एक गाड़ी में उठ कर बैठेंगे।
शम्मी कपूर का सहयोग
लेकिन उस छोटे के शॉट को फिल्माने में शम्मी जी ने मेरी काफी मदद की थी क्योंकि मैं उस समय बिल्कुल नयी थी। फिल्मांकन की छोटी-छोटी बातें मैं ज्यादा नहीं समझती थी। हां,छोटी उम्र से अभिनय करती थी,इसलिए कैमरे के सामने ज्यादा विचलित नहीं हुई। नासिर जी और शम्मी जी के सहयोग के चलते वह काम मेरे लिए बहुत आसान हो गया था।
वह अच्छे इंसान भी होते थे
उस दौर के कलाकार इंसान के तौर पर भी कितने अच्छे होते थे। आज तो सुनती हूं कि कोई किसी की मदद नहीं करना चाहता है। अब ऐसा लगता है,सौभाग्य से उस समय मैं अभिनय करने आयी थी। इसलिए निश्चिंत होकर इतने दिन काम कर सकी। घूंघट,जब प्यार किसी से होता है,घराना,भरोसा,जिद्दी, मेरे सनम,तीसरी मंजिल,दो बदन,लव इन टोकियो,आये दिन बहार के,बहारों के सपने,उपकार ,मेरा गांव मेरा देश,मैं तुलसी तेरे आंगन की आदि किन-किन फिल्मों का जिक्र करूं। ये सारी फिल्में मेरे लिए यादगार हैं। तब कितने अच्छे लोग होते थे। और काम कितने प्यार से होता था। आज तो काम कम और खानापूरी ज्यादा हो रही है।
लाइट मैन की तलाश
यहां एक छोटी सी घटना का जिक्र जरूर करना चाहूंगी। चरित्र अभिनेता राम मोहन के साथ मैंने कई फिल्में की हैं। फिल्म कारवां की शूटिंग के दौरान एक लाइट मैन के साथ मेरा अच्छा परिचय हो गया था। ऑफ कैमरा मेरी उससे काफी बातचीत होती थी। ऐसे में एक बार जब वह लाइट मैन तीन-चार दिन तक सेट पर नहीं आया,तो मैंने इस बारे में राम मोहन जी से पूछा। राम मोहन जी शुरू से ही फिल्म इंडस्ट्री की वर्कर एसोसिएशन के साथ जुड़े रहे हैं। उन्होंने तब मेरी काफी मदद की। उन्होंने लाइट सप्लायर से उस लाइट मैन के बारे में पूछा। उसे भी उसका सही पता मालूम नहीं था ,उसने एक अधूरा सा पता दिया। यह पता जुहू की किसी चॉल का था। इस पते पर उस लाइट मैन को ढूंढना आसान नहीं था। लेकिन शाम को शूटिंग पैक-अप होने के बाद जब मैंने राम मोहन जी उस लाइट मैन से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो वह झट तैयार हो गये। मैं उनके साथ उस लाइट मैन को तलाश करने निकल पड़ी। जुहू की उस चॉल के पास गाड़ी को रोक कर उसके बारे में पूछना शुरू कर दिया। लेकिन पंद्रह-बीस मिनट की खोज-बीन के बाद वह लाइट मैन हमें नहीं मिला। हम हताश होकर अपने अपने घर लौट गये।
मददगार राम मोहन जी
मगर दूसरे दिन सेट पर राम मोहन जी से मिलते ही मैंने कहा – प्लीज उसका सही पता उसके साथियों या सप्लायर से पूछिए। राम मोहन जी ने उस दिन वैसा ही किया। उसके पते की पुख्ता जानकारी उन्होंने हासिल कर ली। इस बार जुहू पहुंचकर उन्होंने एकदम सही चॉल के पास गाड़ी रोकी। उस लाइट मैन की चॉल एकदम अंतिम छोर में थी। वह लाइट मैन बीमार बिस्तर में पड़ा हुआ था। मैंने उसे देखते ही डपटते हुए कहा- कम से कम अपना सही पता तो वहां किसी को बता देते। मैंने तुरंत राम जी को कहा-इसके यहां डाक्टर भिजवाने की व्यवस्था कीजिए। राम मोहन समझ गये ,मैं पैसे की पूरी तैयारी करके आयी हूं। बाहर आकर उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि वह उसका पूरा ख्याल रखेंगे। इसके बाद जब तक लाइटमैन पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हुआ,राम मोहन जी बराबर उसका हालचाल मुझे बताते रहे। इस छोटी सी घटना के जरिये मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहती हूं कि तब के लोग ऐसे होते थे।