ग़ज़ल की मलिका का रुतबा
बेगम अख्तर
सदी बीत गई लेिकन बेगम अख्तर जैसा कोई नहीं हुआ। गज़ल का रुतबा भले ही पहले जैसा न हो, लेिकन जब बात गज़ल की हो तो पहले बेगम अख्तर का नाम आता है। उन्हें कुछ कुदरत ने दिया, कुछ हालात ने, लेिकन जो मिला उसने उन्हें संवारा और निखारा ही। जन्मशती के बहाने वंदना शुक्ला बेगम की जिंदगी के छुए-अनछुए पहलुओं को साझा कर रही हैं।
िचत्रांकन : संदीप जोशी
बीते अक्तूबर के दौरान कुछ ग़ज़ल की महफिलें जमीं; मकसद था बेगम अख्तर की जन्मशती मनाने का। हालांकि, इन आयोजनों में अपेक्षित भीड़ न जुटी, लेकिन लोग ग़ज़ल की महामलिका बेगम की यादें ताजा करने को आये। लेकिन कालांतर में ग़ज़ल की महफिलें बीते दिनों की बात हो गईं।
ऐसे दौर में जब फनकार एक दशक भी मुश्किल से लोगों की स्मृतियों में जगह बना पाते हैं, बेगम ने एक सदी के बाद भी ग़ज़ल के चाहने वालों के दिलो-दिमाग में अपनी जगह बनाये रखी। बेगम का ग़ज़ल की दुनिया में वही मुकाम रहा जो कि ओपेरा गायन में पावारोटी का रहा है। जिसे उन्होंने ओपेरा समारोहों को नई ऊंचाइयां दीं, वैसे ही बेगम अख्तर ने अपने व्यक्तित्व के अनुरूप ग़ज़ल को नया आकर्षण, विचारों की गहराई, सुकून देकर इसे अनुपम बना दिया। उसे ऐसा रूप दिया कि संगीत आत्मा से जुड़ता नजर आया।
दुनिया की महान कलाएं मनुष्य को उद्वेलित करने की क्षमताएं रखती हैं। उनके संगीत ने न केवल एक पीढ़ी को मंत्रमुग्ध किया बल्कि एक कला को नई ऊंचाइयां दी। उनके संगीत में ऐसा जादू था कि उसने कई नामचीन शायरों को जन्म दिया।
उनके कालजयी कलाम ने कैफी आज़मी जैसे शायर को गहरे तक प्रभावित किया। शास्त्रीय संगीत की नामचीन हस्ती पं. जसराज कहते हैं कि ग्रामोफोन पर उनका कलाम सुनकर ही मैंने शास्त्रीय संगीत की दुनिया मे कदम बढ़ाए। अंग्रेजी में लिखने वाले शायर आगा शाहिद अली ने कल्पना से परे अंग्रेजी में गज़लें लिखीं, ये तब संभव हुआ जब वे बेगम के हुनर के मुरीद हुए। बेगम उनकी मां की मित्र थीं।
बेगम की ग़ज़ल
वास्तव में ग़ज़ल हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति पर सशक्त व चिरस्थायी प्रभाव की प्रतीक रही है। गालिब, मीर, मोमिन, दाग तथा शकील बदायूंनी को समझने के लिए एक परिपक्व सोच की जरूरत है। लेकिन जब हम सहजता से उनके कलाम से रूबरू होते हैं तो यह बेगम की गायकी की निपुणता का ही परिचायक है। बेगम ग़ज़ल को किस नजरिये से देखती थीं? उन्होंने एक बार कहा था कि ग़ज़ल के मायने हैं संवाद, आप शायर की आवाज को श्रोताओं तक लेकर जाते हैं। यदि आप उस शायर की आवाज को नहीं सुनते तो आप को ग़ज़ल गाने का हक नहीं है।
वाकई उन्होंने ग़ज़ल को नये आयाम दिये। ऐसे वक्त में इसे लोकप्रिय बनाया जब फिल्मी संगीत खासा लोकप्रिय था। उन्होंने ग़ज़ल को अपने मिजाज में अलग अंदाज दिया, उसे परिष्कृत करके ग़ज़ल पर अपनी छाप छोड़ी।
वह भारतीय सांस्कृतिक परिदृश्य में ऐसे वक्त में अवतरित हुईं जब संक्रमणकाल के दौर से गुजरते देश में सतही चीजें केंद्र में रही। प्रभुत्ववादी सामंती युग के क्षरण के दौर में ग़ज़ल को नई तासीर, भाषा व संगीत का मिजाज दिया। उस दौर में जब संगीत को राजदरबार और कोठों की चीज माना जाता था, वह खुद ही ऐसी ही पृष्ठभूमि से आईं। लेकिन अपनी प्रतिभा के बूते उन्होंने इस दहलीज को लांघकर नई ऊंचाइयां हासिल की। अख्तरी बाई का जन्म फैजाबाद की एक तवायफ के घर होता है। एक वकील से विवाह किया। संगीत की राह से समाज में सम्मान से जीने का जरिया बनाया। गंभीर रूप से बीमार पड़ी, लेकिन जीवन निर्वाह के लिए फिर संगीत का सहारा लिया। जिस वक्त देश अपनी वास्तविक पहचान को हासिल करने को उन्मुख था, वह समांतर रूप से अपनी अस्मिता की तलाश में रत थीं।
वह अशांत दौर जब भारत आज़ादी के लिए उन्मुख था, यह वक्त उमंग, सपनों और अवसाद के साथ आजाद भारत की तरफ कदम बढ़ाने का समय था। इतिहास के करवट के दौर ने कलाकारों की संवेदनाओं को भी गहरे तक छुआ। इस दौर ने बेगम अख्तर जैसी संवेदनशील कलाकार को भी झकझोरा। नई सांस्कृतिक धारा के अनुरूप बेगम ने अपने संगीत में नये गुणों का समावेश किया। वह शास्त्रीय व आधुनिक धारा के बीच सशक्त वाहक बनीं। इस दौर में राजनीति व कला जगत में नई धारा को आत्मसात करने की ललक थी। यदि उनकी संगीत जगत में विशिष्ट पहचान बनी तो उसकी वजह यह थी कि उन्होंने अपनी प्रतिभा को बदलते मानकों की ऊंचाइयों तक पहुंचाया तथा अपने श्रोताओं से तारतम्य स्थापित किया। इससे जहां उन्हें खासी लोकप्रियता मिली वहीं संगीत को भी पनाह। अंतर्मुखी प्रतिभा की धनी बेगम अखतर सम्मोहित करने वाली प्रस्तुति के जरिये संगीत प्रेमियों के दिलो-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ने में कामयाब रहीं।
बेगम अख्तर की गायन-शैली का मूल्यांकन करने के लिए दीर्घकालीन शोध की जरूरत पड़ेगी। कैसे उन्होंने महफिलों के संगीत को रेडियो और रिकार्डिंग स्टूडियो तक पहुंचाया। साथ ही सस्ती लोकप्रियता के लिए उन्होंने संगीत की गुणवत्ता से समझौता नहीं किया। यही वजह रही कि वह कला समीक्षकों से लेकर आम लोगों में खासी लोकप्रिय रही।
एक लंबा सफर
ग़ज़ल का उद्भव मूलत: दसवीं सदी में ईरान में हुआ। संभवत: इसका विकास फारसी परिवेश में ऐसे पद्य के रूप में हुआ जो राज, उपकारी व आदर्श व्यक्तित्वों की प्रशंसा में रचा गया हो। भारतीय उपमहाद्वीप में ग़ज़ल की दस्तक 12वीं सदी में तब हुई जब मुगल आक्रांताओं ने कदम रखा। फारसी लोगों ने कविता व साहित्य की भाषा के रूप में उर्दू का प्रयोग किया। एक समय शासकों की स्तुति में गायी जाने वाली ग़ज़ल ने कालांतर में शृंगारिक गीतों, अभिव्यक्त न किये जाने वाले प्रेम और आध्यात्मिकता का रूप ले लिया।
रूमी व हाफिज जैसे कई ग़ज़लकार सूफी धारा के प्रणेता थे तो कुछ सूफी दर्शन से प्रभावित थे। अधिकांश गज़लों को आध्यात्मिक दर्शन के संदर्भ में देखा जा सकता है। जिसमें उपमा के जरिये बह्म के प्रति प्रेम को अभिव्यक्त किया गया।
18वीं व 19वीं सदी काे ग़ज़ल का स्वर्णिम काल कहा जाता है जो दिल्ली व लखनऊ के केंद्रों में विशेष रूप से विकसित हुआ। सदियों की लंबी यात्रा करके ग़ज़ल अफगानिस्तान, सिंध, पंजाब, बीजापुर, दक्षिण भारत होते हुए मौजूदा स्वरूप में उत्तर भारत पहुंची।
धीमे पड़ते सुर
उन्नीसवीं सदी के मध्य से नौवें के दशक इस उपमहाद्वीप में ग़ज़ल खूब फली-फूली। मिली-जुली संस्कृति के पराभव के साथ ही ग़ज़ल भी हाशिये पर आने लगी। उन्नीसवीं सदी में जहां तवायफखानों में ग़ज़ल की धूम रही, वहीं पिछले कुछ दशकों में भी एक वक्त ऐसा आया जब उपमहाद्वीप में इसे खासी लोकप्रियता मिली। भारत में जगजीत सिंह, अनूप जलोटा और पंकज उधास जैसे गीतकारों ने इसकी लोकप्रियता में इजाफा किया। वहीं पाकिस्तान में मेहदी हसन, गुलाम अली व बंगलादेश की रूना लैला ने संगीत के जरिये इन देशों को जोड़ा।
ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब ग़ज़ल का ऐसा जादू लोगों पर चला तो यह वर्तमान लोकप्रिय संगीत में जगह क्यों नहीं बना पाई? हालांकि, उर्दू के अंग्रेजी अनुवाद की सुविधा भी हुई, लेकिन ग़ज़ल केवल शब्दों को समझनाभर नहीं है बल्कि इसके लिए शायर के साथ गहरी अनुभूति भी जरूरी है। एक समय जो ग़ज़ल का गुण था, वही इसकी सीमा के संकुचन का कारक बना। जैसे फैज़ व इकबाल ने अपनी रचनाओं के जरिये दोनों देशों के अवाम के दिलाेदिमाग का छुआ, वैसे बाद के ग़ज़लकार नहीं कर पाए जो कि नई पीढ़ी की दिल की भाषा बन सके। आज की नई पीढ़ी जो भाषा के संक्षिप्तीकरण के जरिये अभिव्यक्ति में विश्वास करती हो, जिसका कविता व कला से जुड़ा संस्कृति फलक संकुचन की ओर अग्रसर हो, उससे ग़ज़ल के गहरे अर्थों की समझ की अपेक्षा बेमानी होगी।
आखिरकार ग़ज़ल उर्दू में लिखी जाने वाली कविता है। ऐसे वक्त में जब परंपरागत उर्दू प्रचलन से बाहर है तो उसकी वजह राजनीतिक अधिक, सांस्कृतिक कम है। यही वजह है कि ग़ज़ल की लोकप्रियता में कमी आई है। भले ही ऐसे लोग इसकी कमी महसूस न करें जिनकी यह प्राथमिकता नहीं रही। लेकिन लोकप्रियता की कमी के बावजूद एक तबका ऐसा जरूर है जो इसे खूब पसंद करता है।
हो सकता है कि कुछ लोगों को पहली बार पश्चिमी वाद्य यंत्रों के साथ जगजीत सिंह का नये ढंग से ग़ज़ल पेश करना रास न आया हो, कुछ हद तक मेहदी हसन व गुलाम अली द्वारा भी। लेकिन उन्होंने पूर्णत: एक नये श्रोता वर्ग को गज़ल से जोड़ा। हो सकता है कि उर्दू भाषा की समझ न होने के कारण ये लोगों की स्मृतियों में अधिक समय तक न रह पाई।
नये मिजाज की जरूरत
वास्तव में ग़ज़ल एक मिली-जुली संस्कृति के रूप में मुगलों के साथ भारत आई। यह नई भारतीय पहचान के साथ पुष्पित-पल्लवित हुई। परिवेश में बदलाव के साथ इसका क्षरण स्वाभाविक है। लेकिन खतरनाक प्रवृत्ति यह है कि कलाकार स्व-पोषित सेंसरशिप के तहत कार्य करते हैं। वे बाजार की जरूरत के मुताबिक रचना करते हैं। ऐसे में न तो उसका कला की दृष्टि से मूल्यांकन हो पाता है, न ही श्रोताओं द्वारा।
संस्कृति मानव द्वारा अर्जित अनुभवों को नई राह देती है। यह तकनीकों का ऐसा खाका बनाती है जो मानव जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर करके नया रास्ता दिखाती है। यह हमारी कलाओं और हमारे समाज की जिज्ञासाओं का स्तर बताती है।
आधुिनकता की चाह को अच्छे-बुरे संदर्भों में देखें, यह एक एेसी िस्थति है जो हमारी कविता, कला, संगीत, सािहत्य व राजनीित के प्रति हमारे दृष्टिकोण में बदलाव लाती है। पुरानी विरासत परिवर्तन से मुकाबला करती है। यह अनवरत प्रकि्रया है। वक्त के साथ पुरानी आभा का क्षरण स्वाभाविक भी है। उसकी जीवंतता आंतरिक शक्ति पर निर्भर करती है। लेेेेकिन सहेजे न जाने से इसके अस्तित्व को चुनौती मिल सकती है। बहरहाल, गजल को जीवंतता देने के लिए एक और बेगम अख्तर की जरूरत महसूस की जा रही है।
ज़िंदगी की धूप-छांव
- बेगम अख्तर अख्तरी बाई के रूप में अवध की राजधानी फैजाबाद में एक तवायफ मुश्तरी बाई के यहां जन्मी।
- उसकी जुड़वां बहन जोहरा चार साल की उम्र में चल बसी। उनके जीवन के दुख-दर्द और प्यार उनके संगीत में शिद्दत से उभरते हैं।
- वर्ष 1920 में कलकत्ता के एक मंच पर अभिनय किया और महफिल में प्रस्तुित दी। कालांतर 1930 में वह बंबई पहुंची व नौ फिल्मों में अभिनय किया। उन्होंने महसूस किया कि वे फिल्मों के साथ तारतम्य नहीं बैठा सकती।
- वर्ष 1939 में लखनऊ लौटी और अपना सेलून(कोठा) खोला। उन्होंने 78 आरएमपी डिस्क भी तैयार की। इस तरह वह एक सेेेलीब्रेटी बन गई।
- 1940 बड़ा उथल-पुथल का समय था। उनके सेलून की महिलाएं अपने कद्रदान खोने लगीं । उन्होंने लखनऊ के एक प्रतिष्ठित खानदान के वकील इश्ितयाक अब्बासी से रिश्ता जोड़ा। भारी सामािजक दबाव के बावजूद उन्होंने 1945 में विवाह किया। इस तरह वह बेगम अख्तर बनीं। विवाह के बाद उनके लिए संगीत यात्रा को जारी रखना मुश्किल हो गया।
- वे बीमार पड़ गई। संगीत में उनकी आत्मा बसती थी। डॉक्टरों ने उन्हें संगीत शुरू करने को कहा। उनके पति ने उन्हें इस शर्त पर इजाजत दी कि वे लखनऊ में नहीं गाएंगी।