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उम्मीद की किरण

कहानी के.एल. दिवान ‘सर जी-जी नमस्ते!’ ‘नमस्ते बेटे!’ ‘शाम को पढ़ाओगे?’ ‘हां, शाम को आना। पढ़ाऊंगा।’ ‘मैं तो शाम को दिल्ली चली जाऊंगी।’ मैं सामने खड़ी राजस्थान की खानाबदोश कबीले की चार साल की पिंकी को गौर से देखता हूं, उसकी आंखें नम हैं। मैं उसे अपने पास बुलाना चाहता हूं। मगर बुलाता नहीं। मैं […]
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कहानी

चित्रांकन : संदीप जोशी

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के.एल. दिवान
‘सर जी-जी नमस्ते!’
‘नमस्ते बेटे!’
‘शाम को पढ़ाओगे?’
‘हां, शाम को आना। पढ़ाऊंगा।’
‘मैं तो शाम को दिल्ली चली जाऊंगी।’
मैं सामने खड़ी राजस्थान की खानाबदोश कबीले की चार साल की पिंकी को गौर से देखता हूं, उसकी आंखें नम हैं। मैं उसे अपने पास बुलाना चाहता हूं। मगर बुलाता नहीं। मैं अपने मन की बात जानता हूं। पिंकी भीगी आंखों से मेरे पास आएगी तो मेरा मन कुछ ऐसा महसूस करेगा कि मेरी आंखें भी भीग आएंगी, मेरी आंखों का गीलापन देख शायद पिंकी और भारी मन से नगर को छोड़ेगी। मैं उसकी तरफ देखता रह जाता हूं। वह भी खामोश है। बस दूर खड़ी मेरी ओर तक रही है। कुछ देर बाद हाथ हिला, बाय-बाय करती हुई थोड़ी दूरी पर बने अपने झोपड़े की ओर मुड़ जाती है। मैं उसकी ओर देखता रह जाता हूं। एक आह भरता हूं। अनजाने ही आंखें भीग जाती हैं। रूमाल निकालता हूं। उन्हें पोंछता हूं।
इधर पिछले कई दिनों से पास के झोपड़ों में रहने वाले तेरह-चौदह परिवारों में से किसी न किसी परिवार के बालक-बालिका की आवाज मेरे कानों से टकराती है।
‘सर जी-जी नमस्ते!’
‘नमस्ते बेटा।’
‘हम तो शाम को दिल्ली चले जाएंगे।’
‘फिर कब आओगे?’
मेरे इस प्रश्न से उस छोटे बालक-बालिका की आंखें डब-डबा आती हैं। उसकी हल्की-सी, धीमी-सी आवाज मेरे कानों में पहुंचती— ‘सर! कभी नहीं।’
और मेरा मन रो-सा उठता। मैं एक अजीब-सी बेचैनी महसूस करने लगता। उस बालक-बालिका की डब-डबाई आंखें पल दो पल को मेरी ओर ताकती और फिर वह धीरे-धीरे भारी कदमों से अपने झोपड़े की ओर बढ़ जाती है। मुझे लगता है, मेरे भीतर कुछ ऐसा है जो उसे मेरी ओर खींच रहा है। उसे अपने झोपड़े की ओर बढऩे में दिक्कत हो रही है।
इन झोपड़ों में छोटी उम्र के पच्चीस-तीस बच्चे रहते हैं। दो से चार-पांच साल तक के। किसी भी स्कूल में नहीं जाते। सारा-सारा दिन इधर-उधर भटकते रहते हैं। आज से दो साल पहले मैंने दो-तीन बच्चों को बुलाकर अक्षर ज्ञान कराना शुरू किया। कभी दो-तीन बच्चे आते। कभी पांच-दस और कभी बीस-पच्चीस। इसी बीच मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि उनके कबीले में किसी को भी अक्षर ज्ञान नहीं है। वे शाम को पांच बजे मेरे पास आते हैं। मैं उनको एक घंटा समय देता हूं। वे पढ़ते भी हैं और मुझे तंग भी खूब करते हैं। मुझे उनको पढ़ाना अच्छा लगता है। उनका तंग करना कभी सहन कर लेता हूं। कभी गुस्सा आ जाता है। किसी-किसी बच्चे को मार भी बैठता हूं। तब मुझे बहुत अफसोस होता है। जिस बच्चे को मार पड़ जाती है वह कुछ देर रूठता है फिर ठीक हो जाता है। इतना सब होने पर भी मैंने कभी यह महसूस नहीं किया कि हम भीतर ही भीतर एक-दूसरे से ऐसे जुड़ गये हैं कि अलग होने पर रो पड़ेंगे।
आज कोई भी बच्चा नहीं आया है। कुछ परिवार चले गये हैं। बाकी आज चले जायेंगे। मेरा मन उदास हो उठता है। मैं आंखें मूंद लेता हूं। मन की आंखों के सामने निशा, ममता, अनिता, नीतू, चार-चार पांच-पांच साल की लड़कियां आकर खड़ी हो जाती हैं। वे पढ़कर जाने वाली हैं। मैं उनसे हाथ जोड़कर नमस्ते करता हूं। यह नमस्ते उनके लिए संकेत है कि अब मैं पढ़ाना बंद करना चाहता हूं। जाने से पहले वे आकर मेरी मेज के पास बैठ जाती हैं। मेज के नीचे से बार-बार मेरे पैरों को छूती हैं। फिर हर बार अपने हाथों को अपने माथे से लगाती हैं।
मैं उनको समझा रहा हूं—’बेटे! कहना मानते हैं। लड़कियां पैर नहीं छुआ करतीं। तुम सब देवियां हो। तुम मेरे पैर छूओगी तो मुझे पाप लगेगा।’ उन पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे फिर से पैर छूना प्रारंभ कर देती हैं। शायद उनका मासूम मन अभी पाप-पुण्य की बात को समझता ही नहीं। वे मेरे पैर छूती रहती हैं। हाथों को माथे से लगाती हैं। जब मन में आता है, खड़ी हो जाती हैं। बार-बार मेज को हाथ लगाती हैं, पुस्तकों को छूती हैं। फिर माथे को हाथ लगाती हैं। मुझे उन पर गुस्सा आता है। मैं कहता हूं—’ठीक है मत मानो। मैं कल से तुमको नहीं पढ़ाऊंगा।’ यह सुनते ही सब शांत हो जाती हैं। एक-एक करके हाथ जोड़ती हैं और ‘सर जी-जी नमस्ते’ कहती हुई कमरे से बाहर चली जाती हैं।
पांच-छह साल की, छोटे कद की, सांवले रंग वाली भारी शरीर वाली निशा लौट आती है। दरवाजे के पास खड़ी हो गई है। ‘निशा क्या बात है?’ मैंने उसे पूछा।
‘सर जी दरवाजा बंद कर दूं।’
‘नहीं! दरवाजा बंद नहीं करना। अंधेरा हो जाएगा। मुझे काम करना है।’
परंतु वह मेरी बात अनसुनी कर देती है। दरवाजा बंद करती है। बाहर से कुण्डी भी लगा देती है। मेरा पारा चढ़ जाता है। झुंझलाहट एवं गुस्से में आकर धीरे-धीरे चलता हुआ दूसरे दरवाजे से बाहर आता हूं। निशा कुंडी को पकड़ कर खड़ी है। मुझे देखते ही भागकर निकल जाने की कोशिश करती है। मैं पकड़ लेता हूं, खूब धुनाई कर देता हूं। वह रोती हुई अपने झोपड़े की ओर चली जाती है। मुझे अफसोस होता है। इतना गुस्सा क्यों? मुझे उसे इस तरह नहीं पीटना चाहिए था। शायद अब वह कभी पढऩे न आये। मुझे ख्याल आता है। घर पर दो वर्ष की पोती है। कितना तंग करती है मुझे। जब मन करता है, मुंह नोच लेती है। राइटिंग टेबल के पास आती है, कागज खींच कर इधर-उधर बिखेर देगी। नयी पुस्तक ‘प्रेम पुष्प शतक’ काव्य संग्रह आया है। मैंने उससे कहा—’देखो, कितनी अच्छी बुक है।’ और उसका उत्तर था—’गंदी बुक’ और तब से वह टेबल पर उस पुस्तक को देखते ही खींचकर इधर-उधर फेंक देती है और कहती है ‘गंदी बुक’। क्या मैंने कभी उसको डांटा है या मारा है—नहीं, कभी भी नहीं—तो फिर इनको क्यों। सोचता हूं उसके झोंपड़े पर चला जाऊं। साथ में कुछ टॉफिया भी लेता जाऊं। मगर तभी वह चार लड़कियों, तीन लड़कों के साथ आकर दरवाजे पर डटकर खड़ी हो जाती। बिल्कुल निडर। उसे इस प्रकार बच्चों की टोली के साथ देखकर मैं मुस्करा पड़ता हूं। मगर उनमें से कोई भी नहीं मुस्कराता। तभी निशा जोर से
चिल्लाती है—
‘सर जी-जी।’
‘हाय! हाय!’
‘सर जी-जी…।’
‘हाय! हाय!’
तीन बार नारे लगाने के बाद वह चुप हो जाती है। थोड़ी खामोशी के बाद उसकी मांग है—’टॉफी दो।’
‘अच्छे बच्चे किसी से भी कुछ नहीं मांगते। टॉफी नहीं मिलेगी।’
‘दे दे ना!’
‘सर जी-जी टॉफी दे दो न!’
मैं जानता हूं बिना टॉफी लिये वह यहां से नहीं जाएगी। बड़ी जिद्दी लड़की है। अपनी बात मुझ से मनवा कर ही रहती है। एक दिन मेरी पढ़ाने की इच्छा नहीं थी। सभी बच्चों को समझाकर वापस भेज दिया मगर निशा ने जिद ही पकड़ ली। पढ़कर ही जाऊंगी। आखिर में उसने मांग की, एक से बीस तक गिनती कहलवा दो और मुझे उसकी मांग पूरी करनी पड़ी।
उसे एक से बीस तक गिनती कहला दी जब गई। उस दिन भी जानता था टॉफी दूंगा तभी वह जाएगी नहीं तो न जाने कब तक जिद पकड़कर खड़ी रहेगी। मैंने उसे टॉफियां दीं। उसकी बात मानी वह चली गई।
इधर कुछ बच्चे अपने आप एक से बीस तक लिख लेते हैं। हिन्दी और अंग्रेजी के कुछ अक्षरों का ज्ञान भी हो गया है। कुछ हिन्दी-अंग्रेजी की कविताएं भी याद हो गई हैं। हिन्दी और अंग्रेजी में प्रार्थनाएं भी कह सकते हैं। इसके साथ ही सबसे बड़ी बात है कि इन्होंने साफ रहना सीख लिया है। कुछ दिन पहले पड़ोस की दया भी कह रही थी। ‘इन्होंने पढऩा-लिखना सीखा हो न सीखा हो साफ रहना तो सीख गए हैं।’
इनके संपर्क में आने के बाद मैंने भी काफी कुछ सीखा है। अब आपसे क्या छुपाना मेरे सिर पर बाल नहीं हैं। कभी कोई बच्चा मुझे गंजा सर भी कह देता—एक बार इनमें से किसी ने मुझे टकला भी कहा था। कुछ बच्चे रट लगाते—सर जी नमस्ते छोले खाओ सस्ते, पानी पीओ ठण्डा, सिर पे मारो डंडा। शुरू-शुरू में मुझे गुस्सा आता मगर धीरे-धीरे मैंने अपने आप पर काबू पाना सीख लिया। तब मैं सोचा करता था—’इन्हें मैंने ही तो बुलाया है, शिक्षा के लिए। इनमें जो कमियां हैं उन्हें दूर करने की कोशिश मुझे ही करनी होगी। यूं घबराने या गुस्सा करने से क्या होगा!’ और खुद को समझाते-समझाते मैंने एक कविता भी लिख डाली और उस कविता का प्रेरणा-स्रोत मैं उन बच्चों को ही मानता हूं। उनके प्रति आभारी हूं। आप कविता सुनना चाहोगे? लो सुनो—
‘मैं को मिटा कर देखो/ मन में/ प्यार जगाकर देखो/ बड़ा मजा आएगा/ क्रोध की अग्नि/ शांत पड़ जाएगी/ मन्द-मन्द/ सुगंधित/ शांत/ विचारधारा/ तन मन को/ आनंदित कर जाएगी/ जि़ंदगी मुस्कराहट बन जाएगी/यह तन/ यह मन/ जी लेता/ कुछ ऐसे ही क्षण/ जब-जब/ पास के झोपड़े के/ पिछड़े/ छोटे-छोटे/ दसों/ मासूम बालक/ प्यार से/ पूछ लेते/ ओ! मास्टर/ पढ़ाओगे हमें/ या फिर/ दूर से देखते ही/ नाचते-नाचते/ पुल्कित मन से/ चिल्ला उठते/ मास्टर आया/ मास्टर आया/ या फिर/ मुस्कराते-मुस्कराते/ बिल्कुल निडर/ किसी अनोखी भावना के वशीभूत गा उठते/ मास्टर जी नमस्ते/ छोले खाओ सस्ते/ सिर पे मारो डंडा/ पानी पीओ ठण्डा/ या फिर आती/ किसी बालक की/ मुस्कराती आवाज वह देखो/ वह देखो/ वह बैठा एक गंजा मास्टर/ जो हमें पढ़ाएगा/ अच्छे-अच्छे गीत सुनाएगा/ अच्छे-अच्छे गीत सिखाएंगा/ हमें अच्छा बनाएगा/ सच मानो/ ऐसी/ घडिय़ों में मैं को मिटा देना/ बड़ा आनंद दे जाता/ कभी होंठों पे/ मुस्कराहट नाच उठती/ कभी/ गूंज उठते कहकहे ही कहकहे/ मन ही मन/ सच मानो/ ‘मैं’ को मिटाकर देखो/ मन में/ प्यार जगाकर देखो/ बड़ा मजा आएगा/ जि़ंदगी मुस्कराहट बन जाएगी।’
सब परिवार चले गये हैं मगर उनके झोपड़े अभी वहां खड़े हैं। पोलिथीन की छतें, कुछ बांस, कहीं पर बिना बल्ब के इधर-उधर लटके बिजली के होल्डर—उन्होंने प्लाट का किराया देना था जाते समय दे नहीं सके। प्लाट मालिक ने उनका सामान रोक लिया। खाली पड़े झोपड़ों को देखता हूं। मन उदास हो उठा है। रात को वहां रोशनी नहीं होती, मन उदास हो उठता है। अब मुझे देख कोई नाचता नहीं/ चिल्लाता नहीं। मन उदास हो उठता है। मैंने एक सपना देखा था कि इस खानाबदोश कबीले के कुछ बच्चों को इस लायक बना दूंगा कि वे बाल-कहानियों की पुस्तकें-पत्रिकाएं पढऩे लगेंगे—उनको पढ़ाई का आनंद मिलने लगेगा। फिर वे अपने कबीले के और बच्चों को अक्षर ज्ञान करायेंगी—दीप से दीप जलेगा/ अंधकार मिटेगा। परंतु—
‘सर जी-जी नमस्ते!’
मैं चौंक पड़ता हूं। एक परिचित आवाज मेरे कानों से टकराती है। मुड़कर देखता हूं सामने पिंकी खड़ी है—’तुम!’
इससे पहले कि वह मेरा प्रश्न सुनती वह एक सांस में बहुत कुछ कह गई—’लौट आई हूं। और सब भी लौट आयेंगे। दिल्ली में नहीं रहने दिया। पुलिसवालों ने भगा दिया। हमारा सामान भी छीन लिया। निशा की मां को बहुत मारा, सर जी-जी शाम को पढ़ाओगे।’
‘हां बेटे पढ़ाऊंगा।’
ऐसा कहते मेरी आंखें नम हो जाती हैं। मन भी अजीब-सा महसूस कर रहा है। समझ नहीं पा रहा हूं। ऐसा क्यों है। खानाबदोश कबीले के लौट आने की खुशी का प्रभाव है। या कि राजनेताओं की ऊंची उड़ानों की तमन्नाओं को पूरा करने के लिए गरीब लोगों की रोटी तक छीन लेने का दर्द।
कुछ भी हो मन में उम्मीद की एक किरण जगमगा उठती है। मैं अपना सपना साकार करने के लिए अपनी कोशिश जारी रख सकूंगा। एक छोटे से कबीले में ही सही, दीप से दीप जलेगा, अंधकार मिटेगा, रोशनी फैलेगी।

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