सियासी-रूहानी शख्सियत का अक्स
पुस्तक समीक्षा
सुभाष रस्तोगी
हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यास लेखन की अत्यंत समृद्ध परंपरा विद्यमान है। इस परंपरा के शिखर लेखक वृंदावन लाल वर्मा ही हैं। उनके काल के भाल पर दर्ज उपन्यासों में जैसे इतिहास जीवंत हो उठा है और ऐसा प्रतीत होता है जैसे पात्र उनके उपन्यासों के कागजों से बाहर निकल कर कदमताल करते हुए पाठकों के साथ चल रहे हैं। शाज़ी ज़मां का सद्य: प्रकाशित तीसरा उपन्यास ‘अकबर’ नि:संदेह एक श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास है। यह उपन्यास लेखक की सतत खोज का नतीजा है। इस उपन्यास की यह खासियत है हालांकि इसके चरित नायक बादशाह अकबर हैं, लेकिन इसकी मार्फत पाठक मुगलिया खानदान की पांच पीढ़ियों के किरदारों से रूबरू स्वयं को पाता है। जाहिर है कि यह सहज नहीं था, इसके लिए उसे गहरे पानी पैठना पड़ा, तब जाकर मुगलिया इतिहास के नायाब मोती उसके हाथ लगे। इतिहास के प्रति शाज़ी ज़मां की रुचि और 20 सालों का रिसर्च ‘अकबर’ उपन्यास के रूप में हमारे सामने है। अकबर को बाजार से दरबार तक के ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर रचा गया है। इसके लिए लेखक ने कोलकाता के इंडियन म्यूजियम से लेकर लंदन के विक्टोरिया एंड एल्वर्ट तक कई संग्रहालयों में मौजूद अकबर या अकबर द्वारा बनवाई गई तस्वीरों का बारीकी से अध्ययन किया, बादशाह और उनके करीबी लोगों की इमारतों को देखा। अकबर के जीवन की घटनाओं को समझने के लिए बाबरनामा, अकबरनामा और हुमायूंनामा जैसी किताबों का तो अध्ययन किया ही, जैन और वैष्णव संतों तथा ईसाई पादरियों की लेखनी का भी गंभीरता से अध्ययन किया। तब जाकर लेखक विराट व्यक्तित्व के मालिक अकबर की कदम-कदम पर जोखिमों और जद्दोजहद से भरपूर भव्य दास्तान को दर्ज करने में समर्थ हो सका।
उपन्यास बताता है कि इस महान बादशाह में समय की धारा को मोड़ने का अथाह शक्ति थी, उसने अनेक युद्ध लड़े, लेकिन पराजय का मुंह कभी नहीं देखा। बादशाह ने धर्म को तर्क की कसौटी पर कसा। उन्होंने एक नया इलाही सन् शुरू किया। इसकी शुरुआत बादशाह अकबर के 14 फरवरी, 1556 को तख्तनशीनी से मानी जाती है, लेकिन वास्तव में यह शुरू हुआ इलाही सन् के पहले दिन 25 दिन बाद नवरोज से अर्थात् 11 मार्च, 1556 से। लेखक ने इस उपन्यास में बादशाह सलामत से पहले के दौर के लिए हिज्री और बादशाह अकबर के दौर के लिए इलाही सन् का इस्तेमाल किया है।
उपन्यासकार लिखता है कि इस उपन्यास की एक-एक घटना, एक-एक किरदार, एक-एक संवाद इतिहास पर आधारित है। अकबर और उससे जुड़े किरदारों ने जो-जो किया, वह काफी हद तक इतिहास में दर्ज है।’ (पृ.8)। लेखक का यह भी मानना है कि ‘ऐतिहासिक होने के बावजूद ये उपन्यास जिस तरह से बुना गया है, वो पूरी तरह मेरे अपने दिमाग की उपज है। (पृ. 10)। उपन्यास के अंत में एक वंश-वृक्ष भी संलग्न किया गया है जिसमें पहले मुगल बादशाह जहीरूद्दीन मोहम्मद बाबर से लेकर उनकी पांचवीं पीढ़ी तक के वो किरदार शामिल हैं जो इस उपन्यास में प्रासंगिक हैं। यह वंश-वृक्ष मुगल खानदान की पेचीदगी को समझने में हमारी मदद करता है। बादशाह अकबर ने पचास बरस तक इस देश पर शासन किया और उनका आधा वक्त हिंदुस्तान का सफर करते बीता।
उपन्यास की एक विशिष्टता यह भी है कि चरित नायक अकबर के जीवन की छोटी से छोटी घटना भी लेखक की दृष्टि से बची नहीं है। उपन्यास से यह पता चलता है कि बादशाह अकबर की पूरी जिंदगी साजिश के साए में गुजरी थी। पचासवें इलाही सन् अर्थात् 25 अक्तूबर, 1605 की रात बादशाह अकबर की जिंदगी की आखिरी रात थी।
इस उपन्यास की भाषा के बारे में भी लेखक से ही जानें, ‘इस उपन्यास की जुबान नहीं है जो अकबर की होती अगर वो आज जिंदा होते। यह जुबान आज की हिंदुस्तानी में जिंदा है। इसलिए मैंने उसी जुबान में लिखना मुनासिब समझा जो अकबर की जुबान की वारिस है।’ समग्रत: यह उपन्यास अकबर की सियासी और रूहानी शख्सियत दस्तावेज बनकर सामने आया है।
0पुस्तक : अकबर 0लेखक : शाज़ी ज़मां 0प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली 0पृष्ठ संख्या : 342 0मूल्य : रु. 350.