राष्ट्रवाद की बहस के बीच गांधी-टैगोर
गांधी जयंती
शिवानन्द द्विवेदी
भारतीय इतिहास के सबसे प्रासंगिक हस्ताक्षरों में गांधी जी का नाम सर्वाधिक लोकप्रिय एवं स्वीकार्य है। 2 अक्तूबर को पोरबंदर में जन्मे गांधी जी का दृष्टिकोण सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के किसी पुरोधा की तरह था। उनके राष्ट्र प्रेम का अनोखा दृष्टिकोण उन्हें राष्ट्रवादी बनाता है। राष्ट्रवाद ही वो बिंदु है जिस पर गांधी जी और गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर के बीच वैचारिक विभेद की बहस लम्बे समय तक चलती रही थी। वे राष्ट्र को प्रथम वरीयता देते थे जबकि टैगोर राष्ट्र को कई मायनों में गैर-जरूरी मानते हुए राष्ट्रवाद की अालोचना करते थे। आज जब एक बार फिर गांधी जी को याद करने का वक्त हो तो इस देश में राष्ट्रवादी विचारधारा की बहस फिर से चल रही है। उनके राष्ट्रवादी चिन्तन को ठीक से समझने के लिए आज जरूरी है कि गांधी जी और टैगोर के बीच के विमर्शों को एक बार फिर टटोला जाये।
राष्ट्रवाद पर चल रही तत्कालीन बहस के क्रम में बोलते हुए गांधी जी ने एक फ्रांसीसी समाचार-पत्र से बातचीत में कहा था कि माई नेशनलिज्म इंटेस इंटरनेशनलिज्म। इस सन्दर्भ में उनका यह कहना कि उनके राष्ट्रवाद में ही गहरा अन्तर्राष्ट्रवाद है, कहीं ना कहीं आज भी प्रासंगिक प्रतीत होता है। वहीं दूसरी तरफ टैगोर अपने अंतर्मन में पाश्चात्य आदर्शों के साथ-साथ राष्ट्रीय संस्कारों का सुन्दर समायोजन रखते थे। वो राष्ट्र के सन्दर्भ में सकारात्मक थे मगर राष्ट्रवाद पर हमेशा चिन्तित नज़र आये। गौर करने वाली बात यह है कि यहां राष्ट्र और राष्ट्रवाद को दो अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया गया है। यहां राष्ट्र अगर अन्तर्राष्ट्रीय इकाई है तो राष्ट्रवाद एक अन्तर्राष्ट्रवाद विरोधी सोच। टैगोर का मानना था कि राष्ट्रवाद से प्रतिस्पर्धा कि भावना उत्पन्न होती है और प्रतिस्पर्धा संघर्ष का मूल कारण है।
अगर सिद्धांतों के आधार पर गांधी जी के स्वराज का विश्लेषण करें तो स्वराज को लेकर उनकी सोच अत्यंत स्पष्ट थी। वे स्वराज को सर्वोपरि मानते थे। उनका स्वराज भाषा, साहित्य, संस्कृति एवं समाज सबके लिए था। वे भाषा, संस्कृति के संरक्षण पर बल देते थे और इसी कारण उनका हिंदी प्रेम उन्हें घोर राष्ट्रवादी बनाता है। उन्होंने हिंदी के संरक्षण पर बल दिया और इसके लिए उन्हें कई बार आलोचना भी झेलनी पड़ी थी। उनको इस बात की चिंता थी कि कहीं हिंदी पर अंग्रेजी का ऐसा वर्चस्व ना हो जाये कि हिन्दुस्तान में हिंदी को अपने अस्तित्व के लिए ही संघर्ष करना पड़े। सन् 1921 को एक पत्रिका को दिए अपने लेख में उन्होंने लिखा था कि महान समाज सुधारक राजा राममोहन राय और बेहतर समाज सुधारक होते अगर वो अपने विचारों को प्रकट करने का माध्यम हिंदी रखे होते। भारतीय समाज में यह अंधविश्वास घर कर रहा है कि आज़ादी के विचारों को अपनाने के लिए अंग्रेजी अपनाना अनिवार्य है…। हालांकि गांधी जी द्वारा राजा राममोहन राय की आलोचना में बोले गए स्वर से टैगोर काफी निराश हुए। एक पत्र के माध्यम से इस आलोचना का जवाब देते हुए टैगोर ने लिखा-राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारक के लिए गांधी का ऐसा मानना अतिवाद है। कई भाषाओं के ज्ञान की वज़ह से राममोहन राय समाज के विभिन्न समुदायों , संवर्गों, क्षेत्रों तक अपना सन्देश देने में सफल रहे हैं…। टैगोर के इन कथनों पर सफाई देते हुए गांधी जी ने कहा था कि मैं भी आज़ाद हवा में उतना ही विश्वास रखता हूं जितना यह महान कवि। मैं अपने घर के चारों तरफ बंद दीवारें और खिड़कियां नहीं चाहता। मैं समस्त संस्कृतियों का अपने आंगन में स्वागत करता हूं मगर यह कभी नहीं स्वीकार करता कि कोई मेरे ही पांव उखाड़ दे।
उनका यह कथन इस बात का प्रमाण है कि गांधी जी अंतर्राष्ट्रीय सामंजस्य और एकता में निष्ठा तो रखते थे लेकिन इसके लिए राष्ट्र का बलिदान उन्हें कभी स्वीकार्य नहीं था। राष्ट्र के प्रति उनका यही घोर समर्पण उन्हें अन्तर्राष्ट्रवाद से दूर ले जाता है। गांधी के इन विचारों पर टैगोर कभी संतुष्ट नहीं दिखे। टैगोर गांधी के असहयोग आन्दोलन के प्रति भी निराशा का भाव रखते थे। अपने यूरोप भ्रमण से आने के बाद टैगोर ने कहा-जब तमाम विश्व समुदाय मानवीय एकता को राष्ट्रीयता के दायरे से बाहर निकाल कर वैश्विक मंच तलाशने में जुटा है, तब हम असहयोग जैसे निराधार आंदोलनों से स्वराज की नींव रखने के लिए लड़ रहे हैं, जिसका अंत सिर्फ संघर्ष तक सीमित है। टैगोर के इन तर्कों पर स्पष्टीकरण देते हुए महात्मा गांधी ने कहा—हमारा असहयोग अंग्रेज प्रशासन की शर्तों पर है। भारतीय राष्ट्रवाद आक्रामक नहीं अहिंसावादी है, इसमें विनाश नहीं जन एकता की संभावना है, यह मानवतावादी है। बिल्ली के जबड़े में फंसे चूहे के बलिदान का कोई महत्व नहीं होता। गुरुदेव टैगोर को जवाब देते हुए गांधी का ये कथन इस बात को पुख्ता करता है कि राष्ट्र की मूल संस्कृति और उसके दायरे को लांघकर गांधी को कुछ भी स्वीकार्य नहीं था। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं।