युगचेता सृजनकार कमलेश्वर
आम आदमी का स्वर, पीड़ा व त्रासदी को अपनी अनूठी कलम से विभिन्न साहित्यिक विधाओं के माध्यम से जीवंत करने वाले साहित्यकार थे कमलेश्वर। सत्ता से लेखकीय-सम्पादकीय स्तर पर निरंतर जूझता, अनवरत संघर्ष और तीखा प्रहार करना, यही उनकी नैतिकता का परिचायक है।
आनंद शर्मा
आम आदमी का स्वर, पीड़ा व त्रासदी को अपनी अनूठी कलम से विभिन्न साहित्यिक विधाओं के माध्यम से जीवंत करने वाले साहित्यकार थे कमलेश्वर। सत्ता से लेखकीय-सम्पादकीय स्तर पर निरंतर जूझता, अनवरत संघर्ष और तीखा प्रहार करना, यही उनकी नैतिकता का परिचायक है। 6 जनवरी, 1932 को उत्तर प्रदेश के कस्बे मैनपुरी के एक साधारण से परिवार में असाधारण प्रतिभा के धनी लेखक कमलेश्वर का जन्म हुआ, जो शनै-शनै हिंदी साहित्य में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में सामने आए।
कमलेश्वर का कथा साहित्य युग का प्रतिबिंब है, और समाज का जीवंत आलेख है। उनके साहित्य में समाज अपने पूर्ण परिवेश के साथ यथार्थ रूप में अंकित हुआ है। अतीत और वर्तमान को लेखक ने समान भाव से जिया है। इस अभिव्यक्ति में अध्ययन की सूक्ष्मता और अनुभूति की गंभीरता है। कमलेश्वर एक युगचेता साहित्यकार थे। इनके साहित्य में युगीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और साहित्यिक परिस्थितियों का प्रभाव सहज ही देखा जा सकता है। साहित्यकार कमलेश्वर ने अपने युग के जटिल प्रश्नों को न केवल समझा अपितु युगानुरूप उनके सटीक उत्तर भी तलाशते देखे गए हैं।
आर्थिक मुश्किलों के कारण कमलेश्वर ने जीवन की कंटीली पगडंडी को सहज बनाने के लिए अध्ययन के साथ ही आजीविका हेतु संघर्ष किए। वहीं मन-मस्तिष्क में विचार पनपते रहे और जल्द ही कागज पर उतारने लगे। पत्र-पत्रिकाओं में यदाकदा लेखन की प्रवृत्ति सहज ही साहित्यिक अभिरुचि में परिवर्तित होती हुई तथा ‘बहार’ मासिक पत्रिका से ‘नई कहानियां’ और ‘इंगित’ साप्ताहिक के संपादक का दायित्व निर्वहन किया। लोकप्रिय पत्रिका ‘सारिका’ के माध्यम से साहित्यिक जगत में ध्रुव तारा बनकर उभरे। अपनी वैविध्यपूर्ण लेखनी से ‘मेरा हमदम मेरा दोस्त’, ‘भारती शिखर कथा-कोष’, ‘मेरे साक्षात्कार’ जैसी अविस्मरणीय ग्रंथों से हिंदी साहित्य जगत की श्रीवृद्धि करके अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी।
समकालीन समाज का गहन अध्ययन और संवेदनशीलता से कमलेश्वर का लेखन मैनपुरी से प्रारंभ होकर इलाहाबाद, दिल्ली, मुंबई और फिर दिल्ली जैसे त्रासदपूर्ण महानगरीय जीवन की यंत्रणाओं का जीवंत दस्तावेज हिंदी साहित्य की अनमोल निधि हैं। कहानी, उपन्यास, आलोचना, संपादन, पत्रकारिता, फिल्म लेखन, रिपोर्ताज, संस्मरण आदि साहित्यिक पड़ावों पर उनकी विलक्षण शैली और कलेवर हिंदी साहित्य को विशिष्ट देन हैं। यथार्थवादी सोच से परिपूर्ण कमलेश्वर की पहली कहानी ‘कामरेड’ एटा से प्रकाशित होने वाली छोटी सी किंतु महत्वपूर्ण पत्रिका ‘अप्सरा’ में, वहीं 1957 में पहला कहानी संग्रह ‘राजा निरबंसिया’ ने पाठकों को पढ़ने के लिए मजबूर किया। ‘नीली झील’, ‘मुर्दों की दुनिया’, ‘जाॅर्ज पंचम की नाक’, ‘खोई हुई दिशाएं’, ‘मांस का दरिया’, ‘तलाश’, ‘दिल्ली में एक और मौत’, ‘ऊपर उठता हुआ मकान’, ‘एक अश्लील कहानी’ के माध्यम से दमघोटू दिल्ली की गलाकाट स्पर्धा से आहत बेचारे मानव की विडंबनाओं का चित्रण किया। वहीं कभी ना थमने वाली और अनवरत अंधी दौड़ की अमानुषिक चक्की में पिसते बंबई के निरीह मानव को ‘मानसरोवर के हंस’, ‘इतने अच्छे दिन’, ‘लाश’, ‘बयान’, ‘दुनिया बहुत बड़ी है’, ‘फटे पाल की नाव’ जैसी हृदयस्पर्शी कहानियों ने हिंदी कहानी साहित्य में एक विलक्षण स्थान बनाया।
कमलेश्वर की रचनात्मक सक्रियता और कर्मशीलता, उनके उपन्यासों ‘एक सड़क, सत्तावन गलियां’, ‘डाक बंगला’, ‘लौटे हुए मुसाफिर’, ‘तीसरा आदमी’, ‘समुद्र में खोया हुआ आदमी’, ‘काली आंधी’, ‘आगामी अतीत’, ‘वही बात’, ‘सुबह, दोपहर, शाम’, ‘रेगिस्तान’ नामक उपन्यासों के शब्द-शब्द में झलकता है। उनका कालजयी उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ हिंदी साहित्य में एक अलग मुकाम स्थापित करने में सफल रहा। उनके इस उपन्यास के 16 से अधिक संस्करण छपना और अंग्रेजी सहित कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में उसका अनुवाद कमलेश्वर की रचनाधर्मिता को नये आयाम देने में सफल रहा। जीने की लालसा में तिल-तिल मरते मानव को कमलेश्वर ने न केवल कथा साहित्य में चित्रांकित किया अपितु उसकी त्रासदी का वर्णन करते हुए संस्मरण, निबंध, आलोचना और संपादन के माध्यम से युगबोध और युगसत्य को उद्घाटित किया।
कमलेश्वर का लेखक केवल साहित्यिक विधाओं में बंधकर नहीं रहा अपितु उसकी उड़ान आकाशवाणी, दूरदर्शन और सिनेमा के माध्यम से आए दिन नई सोच, नई उमंग और नए दर्शन को लेकर सामने आई। कमलेश्वर ने आकाशवाणी के लिए लगभग 700, दूरदर्शन के लिए 250 से अधिक स्कि्रप्ट लिखने के साथ साथ इन दोनों पत्रकारिता के सशक्त माध्यमों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। सिनेमा के क्षेत्र में ‘मौसम’, ‘आंधी’, ‘पति, पत्नी और वो’, ‘डाक बंगला’, ‘रजनीगंधा’, ‘आनंद आश्रम’, ‘अमानुष’, ‘छोटी-सी बात’ जैसी फिल्मों के माध्यम से समय, संदर्भ और स्थितियों के कालचक्र में फंसे आम आदमी की विवशताओं का प्रभावी अंकन किया। विविधतापूर्ण लेखन में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उन्हें पद्म भूषण, साहित्य अकादमी और भारत भारती जैसे पुरस्कारों से विभूषित किया गया।


