मुगलकालीन सत्ता संघर्ष का जीवंत दस्तावेज
राधेश्याम शर्मा
‘मुगल महाभारत: नाट्य चतुष्टय’, ऐसी पुस्तक है, जिसमें बड़े विस्तार से व्यक्ति, समाज, देश, शासन-सत्ता यानी साम्राज्य, दिल को झकझोरने वाले इतिहास, सत्ता की खातिर युद्ध, यातना, कत्लेआम के हालात तथा नाट्य कला के माध्यम से जीवन-जनजीवन के सारे उतार-चढ़ाव, आपसी व्यवहार, असली इरादों की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उस काल के पात्रों, घटनाओं, दरबारों एवं महत्वपूर्ण चरित्रों की चित्रावली भी इस 936 पृष्ठों के ग्रंथ में विद्वान लेखक ने संकलित की है। इसमें इतिहास के क्रूर पहलुओं को नाटक के संवाद के माध्यम से दिलचस्प एवं प्रभावी ढंग से पेश किया गया है।
पुस्तक ने काफी विशद् रूप से मुगल वंशवृक्ष (बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब, शाह आलम, बहादुरशाह, हजांदार शाह, फर्रुखसियर, रफीउद्दजीत, रफीउद्दौला, इब्राहिम बेग और मुहम्मद शाह) की तथा उस दौर के साम्राज्य के साथ-साथ भयंकर आपसी पारिवारिक कलह एवं उनके इरादों की पृष्ठभूमि की जानकारी भी दी है। इससे जाहिर है कि लगभग प्रत्येक गद्दीनशीनी या सत्तारोहण में पिता-पुत्र एवं भाइयों में भयंकर संघर्ष हुआ और कत्लेआम भी हुए। इसमें बाबर-हुमायूं, हुमायूं-अकबर, अकबर-जहांगीर, जहांगीर-शाहजहां, शाहजहां-औरंगजेब, उसके भाइयों तथा औरंगजेब के बाद के क्रूर संघर्षों की जानकारी दी गयी है। सारे सम्राटों के उद्गार चौंकाते हैं। जहांगीर का यह कथन कि ‘सम्राट का कोई पिता, भाई नहीं होता। जो तुम्हारे और सिंहासन के बीच आता है, तुम्हारा शत्रु है।’ बाबर की यह प्रश्रवाचक काव्योक्ति नाटकों के प्रत्येक नायक एवं नायिका पर लागू होती है— ‘क्या कुछ है जो मैंने न देखा हो? क्या एक चक्कर है भाग्य के पहिए का? क्या है ऐसी कोई एक हूक या इक विषाद जो न भुगता हो मेरे जख्मी दिल ने?’
नाट्य चतुष्टय में क्लासिकल ग्रीक और क्लासिकल संस्कृत नाट्य परंपराओं के रंग तत्वों का सम्मिश्रण है यानी शुरुआत के नाटकों में गंभीरता और अंतिम नाटक में गंभीरता के साथ-साथ कुछ पैने हास्य-व्यंग्य का पुट। लेखक के अनुसार शाहजहां के बड़े बेटे दारा शिकोह और दूसरे बेटे औरंगजेब के बीच सत्ता पर कब्जा करने का जो खूनी युद्ध हुआ, वह मुगल साम्राज्य और भारत के लिए निर्णायक ही नहीं, वरन परिभाषिक भी साबित हुआ। पुस्तक की भूमिका के अनुसार भारत के इतिहास में पारिवारिक संकट ने महाअनर्थकारी ‘राष्ट्रीय’ आयाम न इससे पहले लिया और न इसके बाद।
चारों नाटक मुख्यत: शाहजहां-औरंगजेब कालीन हैं। प्रसंगवश पुराने संदर्भ दिए गए हैं। पहले नाटक में नायिकाएं यानी राजकुमारियां दो विरोधी समीकरणों में लिप्त हैं। जहांआरा, रौशनआरा और गौहरआरा अपने-अपने पसंदीदा भाई को राजगद्दी दिलाने के मनसूबे में लगी हैं। तीनों कुंआरी हैं। शादी करना चाहती हैं। औरंगजेब के एक भाई अकबरे-आजम ने मुगल राजकुमारियों का विवाह निषिद्ध कर दिया था। उधर वे हथेली पर मेहंदी लगाने को आतुर हैं। सारे संवाद, हालात, दर्दनाक संघर्ष, सत्ता की भूख के लिए किसी भी हद तक जाने की मनोवृत्ति को उजागर करते हैं। दूसरे नाटक की नायिका साम्राज्य की प्रथम महिला जेबुन्निसा मुगल राजवंश के अनिवार्य सिद्धांत को आगे बढ़ाते हुए सम्राट पिता के खिलाफ विद्रोह करने वाली और सलीमगढ़ में बंदी बनने वाली पहली शहजादी बनी। सलीमगढ़ कैदखाने की खासियत यह बतायी गयी है कि वहां यदि कोई व्यक्ति जाता था तो फिर उसकी लाश ही वापिस आती थी। छोटे भाई शहजादे अकबर के साथ उसका विद्रोह औरंगजेब के साम्राज्य के विनाश एवं विघटन का पहला चरण साबित हुआ। उसके बाद सम्राट और प्रधानमंत्री के बाद सामंत सत्ता-केंद्र बन गए, जिसमें दो भाई—अब्दुल्ला और हुसैन अली भी शामिल हैं। तीसरे नाटक में यही दो भाई अंक के मुख्य पात्र हैं। बड़ा भाई अपनी राजनीतिक सत्ता में घुन लगे मुगल साम्राज्य को धर्मनिरपेक्ष एवं प्रतिनिधित्व बनाते हुए बचाने की ऐतिहासिक कोशिश करता है, लेकिन छोटा भाई और कई नस्लों के सरगना अपने-अपने स्वार्थ से प्रेरित और संचालित हैं।
चौथा भाग बताता है कि 26 बरस से दक्खिन में मराठों से अंतहीन युद्ध झेल रहे मध्यकालीन इतिहास के सबसे जटिल और कुटिल चरित्र औरंगजेब जिंदापीर को नींद नहीं आती, जबकि अपने वंश में वह सर्वाधिक संख्या में वध करने के बाद देश के सबसे विशाल साम्राज्य का निर्माण कर चुका है। लेखक के अनुसार औरंगजेब ने अपने लम्बे शासनकाल में मुक्त भाव से ‘रक्तवर्षा’ की। दरअसल लेखक के अनुसार मुमताज महल, शाहजहां और भाई दारा शिकोह उनके सपने में आकर उन्हें प्रताडि़त करते हैं। तब एक मनोचिकित्सक ज़ुबेदा उनका इलाज करती है। साम्राज्य का लगातार विस्तार करने के लिए संघर्षरत औरंगजेब निद्रा-सुख से वंचित रहते हैं। दक्खिन में मराठों से संघर्ष में उन्हें चैन नहीं मिलता। 26 बरस तक लगातार संघर्षरत औरंगजेब आखिर दिल्ली लौटकर लाल किले में खुद की बनायी मोती मस्जिद में अंतिम प्रार्थना तक नहीं कर पाते।
पुस्तक के अनुसार देहावसान के बाद उनके निजी कोष में साढ़े तीन रुपए पाए गए जो टोपियां सीने की कमाई थी। साढ़े तीन रुपए और मिले जो कुरान की प्रतियां बनाने की आमदनी थी। वे अपने कपड़े खुद रफू करते थे। यह बात अलग है कि हरम में बेगमें और हूरें भी थीं। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार इसी राशि से उनका अंतिम संस्कार किया गया और बची रकम से फकीरों को भोजन कराया गया। विशाल साम्राज्य के बादशाह होकर तथा भारी मात्रा में कत्लेआम एवं निर्दयी होकर ज्यादती करने वाले औरंगज़ेब खाते अपनी व्यक्तिगत कमाई में से थे, वह भी रूखा-सूखा लेकिन एकछत्र साम्राज्य की हविश उनमें प्रबल थी। औरंगजेब की मौत के समय उसका साम्राज्य 21 प्रदेशों में बंटा था।
पुस्तक में नाटकों के बाद सारा इतिहास विस्तार से दिया गया है। तब के साम्राज्य, देश और आज के भारत को परिभाषित करने वाली ऐतिहासिक तिथियां भी दी गयी हैं। कैसे हर बादशाह के काल में परिवार में बगावत हुई। भाई ही भाई के या पिता के खून के प्यासे हो गए और पारिवारिक या बाहरी विरोध का दमन करने के लिए कितनी बेरहमी हुई। औरंगजेब कालीन इतिहास ज्यादा विस्तार से दिया है। पिता को साढ़े सात साल यानी अंतिम सांस तक कैद रखना, अंतिम समय में पानी के लिए भी तरसाना, उनकी अंत्येष्टि में शामिल नहीं होना, भाइयों का कत्ल, अत्यधिक प्रिय बहन जहांआरा को भी आखिरकार शाहजहां के साथ कैद होना, जिसने औरंगजेब को पुनर्जीवन दिलाया था और औरंगजेब ने उसे पत्र तक लिखा था कि मेरे हर बाल की जुबां होती तो तेरे उपकारों का वर्णन नहीं कर पाता। पुस्तक में वर्णित औरंगजेब एवं मुगल साम्राज्य की नीति, रणनीति एवं ज्यादतियों की दास्तान चौंकाती है और झकझोरती है। पुस्तक में लिखी इतिहास की यह घटना भी हैरत भरी है कि औरंगजेब ने अपने बड़े भाई दारा का, जो शाहजहां का प्रिय था, कटा सिर शाहजहां को उपहार स्वरूप दिया था। यहां उनके कुछ उद्गार ध्यान देने योग्य हैं कि ‘हम न हंसते हैं, न हंसने देते हैं’, ‘भूमि में, पानी में जितने जंगली जीव हैं, उनमें सबसे बर्बर विधर्मी हैं’।
शाहजहां की ऐय्याशी बेहिसाब थी। उनके भोग-विलास की जानकारी भी पुस्तक में दी गई है। जहांगीर द्वारा अपने बेटे शाहजहां के पीछे शाही फौज भेजना और अपने छोटे बेटे परवेज को हिदायत देना कि ‘शाहजहां को जि़दा गिरफ्तार करो या सल्तनत के बाहर खदेड़ दो’। हकीकत को स्पष्ट करता है।
चारों नाटकों के अलावा अलग अध्यायों में मुगलकालीन इतिहास को लेखक ने बड़े तथ्यों को जुटाकर पेश किया है। बहुत खोजपूर्ण सामग्री एकत्र करके प्रस्तुत की गयी है। प्रस्तुति भी बड़े रोचक ढंग से संजीदगी के साथ की गयी है जो पाठक को आप्लावित करती है, चौंकाती है, द्रवित करती है और झकझोरती है। भाषा बहुत अच्छी है तथा भाषा का प्रवाह भी प्रशंसनीय है। सारी घटनाओं एवं सारे तथ्य तो समीक्षा में देना संभव नहीं है, लेकिन यह अनोखी एवं दुर्लभ प्रस्तुति है। उर्दू-फारसी शब्दों का काफी मात्रा में प्रयोग किया गया है, जिससे आम पाठक को समझने में कठिनाई होती है। साम्राज्य के दरबार, युद्ध, विरोधियों के दमन और निकटवर्ती लोगों के साथ कूटनीति, कैदखानों की रोंगटे खड़े करने वाली जानकारियां तथा बादशाहों के जो उद्गार दिए हैं, वे व्यक्तित्व एवं हालात को समझने में मदद करते हैं। अंत में म्यूजियम या अन्य स्थानों से एकत्र अर्थपूर्ण चित्रावली से सारे इतिहास को समझने में मदद मिलती है। लेखक सुरेन्द्र वर्मा की शैली अत्यधिक प्रभावी एवं प्रशंसनीय है।
सारा घटनाक्रम यह सोचने की सामग्री तो बहुत देता है कि सत्ताधारी परिवार में आपसी संघर्ष एवं फूट इतनी व्यापक थी, फिर भी इतने विशाल देश के राजा और प्रजा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आपस में ही लड़ते रहे, खून बहाते रहे और उनकी फूट साम्राज्य को जीवन देती रही। पुस्तक के अनुसार हुमायूं के दो भाइयों ने, अकबर के दो भाइयों ने बगावत की। अकबर के बेटे जहांगीर ने सलीम बनकर पिता के खिलाफ बगावत की। खुद शाहजहां भी पिता जहांगीर के खिलाफ विद्रोह की अलख जगाते रहे और ईरान के शाह की मदद लेने की कोशिश की। बाद में जहांगीर खुद अपने बेटे शाहजहां के बैरी बन गए। पुस्तक कुल मिलाकर सोचने, मंथन करने और आज के हालात में चिंतन के साथ आचरण की ढेर सारी सामग्री देती है। यानी बताती है कि एक के बाद दूसरा महाभारत इस देश में अनवरत जारी है।
०पुस्तक : मुगल महाभारत : नाट्य चतुष्टय ०लेखक : सुरेन्द्र वर्मा ०प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003 ०पृष्ठ संख्या 936 ०मूल्य : रुपये 1000.