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बाबू! बड़ा मालदार निकला

सागर में गागर मनोज लिमये वर्तमान समय में बाबुओं के घर से हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की तर्ज पर लगातार मिल रही चल-अचल संपत्ति मेरे मस्तिष्क पर हावी होती जा रही है। बाबू प्रजाति में ऐसे फिलासॉफिकल डायमेंशन मुझे पहले कभी नजर नहीं आए थे। आज मुझे सरसरी तौर पर अपने बाबू नहीं होने का जो अफसोस हो […]
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सागर में गागर
मनोज लिमये
वर्तमान समय में बाबुओं के घर से हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की तर्ज पर लगातार मिल रही चल-अचल संपत्ति मेरे मस्तिष्क पर हावी होती जा रही है। बाबू प्रजाति में ऐसे फिलासॉफिकल डायमेंशन मुझे पहले कभी नजर नहीं आए थे। आज मुझे सरसरी तौर पर अपने बाबू नहीं होने का जो अफसोस हो रहा है वो पीड़ा कालिदास की शकुंतला की पीड़ा से भी बड़ी है। अपने अल्प अनुभव और सीमित ज्ञान से मैं बाबुओं के विषय में जितना जानता था वो तमाम भ्रांतियों की दीवारें ताश के पत्तों के समान भरभरा कर गिर रही हैं। देवनागरी की प्रचलित दो कहावतों (पहली- अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता और दूसरी-अकेली मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है) में से चयन करना मुश्किल हो गया है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि इस करोड़ीमल बाबू वाले प्रकरण में कौन-सी कहावत का अनुयायी बनूं। यदि पहली को सही मानता हूं तो अर्थ होगा कि प्रत्येक बाबू करोड़पति नहीं होता और दूसरी के पक्ष में मतदान किया तो अर्थ होगा कि पूरी की पूरी बाबू प्रजाति ही शायद करोड़पति है। देवनागरी भी कठिन समय में सहयोगी दलों की तरह साथ छोड़ रही है।
बाबुओं के घर से निकल रही यह संपत्ति इस बात की द्योतक है कि आगामी समय में बाबू बनने की डिमांड चहूं ओर पुरजोर होने वाली है। आज बाबू शासकीय नौकरी में लक्ष्मी पूजा के महत्व को शिरोधार्य करते हुए आईएएस अधिकारियों की तर्ज पर लोकप्रियता के शिखर छूने का जोखिम उठा रहे हैं। बाबुओं के घर से निकलती यह करोड़ों रुपयों की बारात फाइलों के बोझ में दुबके हुए बैठे अन्य बाबुओं को भी संशय के घेरे में ला रही है। जिन कार्यालयीन बाबुओं ने दिनभर में दो-तीन पान चबा लेने को रईसी समझा हो, जिन्होंने सब्जी मंडी में लोकी-गिलकी के भाव-ताव में अपना सर्वस्व न्योच्छावर कर दिया हो तथा जिन्होंने शाम के वक्त पजामे-बनियान में रेकेट हाथ में थाम रोजर फेडरर के अंदाज में सिर्फ मच्छर मारे हों ऐसे पवित्र बाबुओं के बारे में समाज की राय का यकायक बदल जाना चिंतनीय विषय है।
बाबुओं के पास से करोड़ों रुपए निकलने के एक समाचार ने समानांतर व्यवस्था के अन्य विभागीय पदाधिकारियों को भी चिंतामग्न कर दिया है। वो दिन दूर नहीं जब हम जगह-जगह  बाबू बनाने वाले कोचिंग क्लासेस के बड़े-बड़े होर्डिंग देखें। बच्चे भी शायद अब बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस बनना न चाहें और न ही पालकों का कोई दबाव इस दिशा में होगा। बड़े ओहदों पर जाने की तैयारियों में भी कोई व्यर्थ ही अपना अर्थ और श्रम क्यों जाया करेगा? जब पहली पायदान पर ही लक्ष्मी जी भर-भर के कृपा दृष्टि लुटाने को आतुर हों, तब ऊपरी पायदान को लक्ष्य बनाने का क्या फायदा या यूं कहें कि जब खिड़की से ही चांद के दर्शन हो रहे हों तो छलनी लेकर छत पर टहलने से क्या मतलब?
रात्रि के समय खाना खाने के पश्चात पान खाने की संस्कृति मुझे चौराहे वाले पान ठेले पर खेंच ले जाती है। पान अभी लगा भी नहीं था कि पान वाले के रेडियो पर गीत के बोल सुनाई दिए-छेला बाबू तू कैसा दिलदार निकला चोर समझी थी मैं थानेदार निकला…। इस गीत को न तो मैंने पहले कभी गंभीरतापूर्वक सुना था और न ही इसके शब्दों की गंभीरता को भांप पाया था। पान की दुकान से पान की जुगाली करते-करते वापसी के समय गीत के शब्दों ने मुझे विचार सागर में गोते लगाने को मजबूर कर दिया। इस गीत ने कुछ क्रांतिकारी कार्य किया था या नहीं इस बात का मुझे ज्यादा इल्म नहीं परंतु इस गीत ने निम्न-मध्यवर्गीय बाबुओं की सामाजिक प्रतिष्ठा की पुनस्र्थापना का जो महत्वपूर्ण कार्य किया होगा वो निश्चित प्रशंसनीय था। इस गीत के लिखे बोल आज के बाबुओं के परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित हो गए हैं—छेला बाबू तू कैसा दिलदार निकला चोर समझी थी मैं भ्रष्टाचार निकला…।

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