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प्रगतिशील सोच नहीं देती फिल्में

वामपंथी राजनीति से विरत, लेकिन एक जमाने में पश्चिम बंग के नक्सलबाड़ी आंदोलन से सीधे जुड़े रहे उत्पलेंदु ने स्वीकार किया कि वे दल की केंद्रीय समिति तक पहुंच गए थे, लेकिन वहां से निकलकर उन्होंने खुद को सिद्ध फिल्मकार ही नहीं, समर्थ कथाकार भी सिद्ध किया।

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बलराम
वामपंथी राजनीति से विरत, लेकिन एक जमाने में पश्चिम बंग के नक्सलबाड़ी आंदोलन से सीधे जुड़े रहे उत्पलेंदु ने स्वीकार किया कि वे दल की केंद्रीय समिति तक पहुंच गए थे, लेकिन वहां से निकलकर उन्होंने खुद को सिद्ध फिल्मकार ही नहीं, समर्थ कथाकार भी सिद्ध किया। फिल्मों को राजनीतिक चेतना से लैस अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने वाले उत्पलेंदु के बांग्ला में छपे कहानी संग्रह हैं ‘बाघ का शिकार’ और ‘प्रसव’ तो किसान आंदोलन पर उन्होंने ‘गांव चलो’ जैसा उपन्यास भी पाठकों को दिया है। राजनीतिक बंदियों के लिए आवाज बुलंद करने वाली डाक्यूमेंट्री ‘मुक्ति चाई’ से चर्चित हुए उत्पलेंदु ने तीनों चर्चित फिल्में ‘मोयनातदंतो’ (कान फिल्मोत्सव में गोल्ड मेडल), ‘चोख’ (राष्ट्रीय पुरस्कार) और ‘देवशिशु’ (लोकार्नो फिल्मोत्सव में गोल्ड मेडल) अपनी ही लिखी कहानियों पर बनाईं।
सन‍् 1948 में कोलकाता में जन्मे इतिहास के स्नातक उत्पलेंदु जल्लाद के जीवन पर ‘फांसी’ और नृत्यांगना के जीवन पर ‘छंद नीड़’ जैसी छोटी-बड़ी डेढ़ दर्जन से अधिक फिल्में बना चुके हैं। वे भारत के उन गिने-चुने फिल्मकारों में से हैं, जो सत्यजित रे की तरह फिल्मों के लिए कथा-पटकथा, संवाद और संगीत जैसे काम खुद ही करते रहे। संगीत पर डाक्यूमेंट्री ‘देवब्रतो विश्वास’ और ‘म्यूजिक ऑफ सत्यजित रे’ (गोल्ड मेडल) भी उत्पलेंदु के नाम दर्ज हैं। उत्पलेंदु से उनके जीवन और सृजन पर बात करने के लिए हम कई घंटे साथ रहे। हिंदी, अंग्रेजी और कभी-कभी बांग्ला में हुए वार्तालाप को टेप से लिपिबद्ध करने का काम नरेन ने किया।
फिल्म निर्माण में आने से पहले सक्रिय राजनीति से जुड़े, फिर अलग हो गए। यह बदलाव कैसे आया?
इस सवाल का जवाब आसानी से नहीं दिया जा सकता, क्योेंकि जब मैं फिल्म के क्षेत्र में उतरा तो राजनीतिक स्थितियां और थीं, अब दूसरी हैं। उस वक्त आपातकाल लगा हुआ था। आपातकाल के बाद स्थितियों में बदलाव आया, लेकिन परिवर्तन महज ऊपरी और तात्कालिक रहा। आपातकाल के बाद पश्चिम बंग में वाम मोर्चे की सरकार बनी। फिर राजनीतिक अस्थिरता का भी एक दौर आया तो हमने देखा कि एक के बाद एक मंत्री बदले जा रहे हैं। छात्र जीवन से ही सक्रिय वामपंथी राजनीति के करीब रहा। घर के वातावरण का वामपंथी होना इसका कारण बना। जब सीपीआई में बिखराव आया तो घर के लोग सीपीएम के पक्षधर हो गए और मैं एसएफआई से जुड़ गया। नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ तो उसकी ओर आकृष्ट हो गया। इसका कारण यह हो सकता है कि छात्र जीवन में जब हम राजनीति करते हैं तो दृष्टि उतनी प्रखर नहीं होती, जितनी तीव्र आकांक्षाएं होती हंै। सो, पूरी तरह सक्रिय होकर सीपीआई (एमएल) की राजनीति करने लगा। बाद में दल विभक्त हो गया तो मैं अलग हो गया। फिर भी, आंदोलन के मूल आदर्श में आज भी मेरी आस्था है।
नक्सलबाड़ी आंदोलन में आपकी पैठ कहां तक हुई?
मैं केंद्रीय समिति तक जा पहुंचा था।  कार्य पद्धति को एकदम निरपेक्ष एवं वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित करने की जरूरत है कि लक्ष्य की प्राप्ति क्यों नहीं हुई? मनुष्य की राजनीतिक चेतना विकसित होती है तो परिवर्तित स्थितियां सामने आती हैं और हमें अतीत का मूल्यांकन करते हुए वर्तमान के सामने खड़े होकर नव निर्माण करना होता है। इसी नजरिये से मेरी पहली डाक्यूमेंट्री ‘मुक्ति चाई’ और फीचर फिल्म ‘मोयनातदंतो (पोस्टमार्टम) का निर्माण हुआ। इन फिल्मों में कोई प्रत्यक्ष राजनीति नहीं है, लेकिन इनके रेशे-रेशे में राजनीतिक विसंगतियों की अंतर्धारा बह रही है। मेरी दूसरी फीचर फिल्म ‘चोख’ (औरत) का राजनीतिक वक्तव्य अपेक्षाकृत स्पष्ट है। तीसरी फिल्म ‘देवशिशु’ धार्मिक अंधविश्वासोें पर व्यंग्यपूर्ण आघात करती है। धर्म के विषैले गुंजलक में जकड़े भारत के साधारण जन शोषण को अपनी नियति मान बैठे हैं। इसके खिलाफ विकसित हो रही चेतना के स्वस्थ अंकुरण की उम्मीद भरी कहानी है ‘देवशिशु’। आज भी प्रतिबद्ध फिल्मकार धार्मिक पाखंड पर उंगली तक नहीं उठाते।
आपकी छवि प्रतिबद्ध फिल्मकार की है। ऐसे में फिल्मों की विषयवस्तु का चुनाव कैसे करते हैं?
मैं स्लोगनधर्मी फिल्में नहीं बनाना चाहता। बार-बार ‘चोख’ जैसी फिल्में भी बनाने के पक्ष में नहीं हूं, क्योंकि यह हरकत अर्थ और असर रखने वाली पुनरावृत्ति के सिवा कुछ न होगी, जो निश्चित रूप से अपना प्रभाव खो बैठेगी। वास्तविक जिंदगी में हम देख रहे हैं कि सिर्फ स्लोगनों से कुछ नहीं होता। मेरे नजरिये में जो परिवर्तन आया, वह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए संवेदनशीलता के चलते आया। उससे फिल्में चुनने में मदद मिलती है।
सरकारी ऋण से ‘देवशिशु’ , ‘रंग’, ‘अपरिचिता’ और ‘विकल्प’ जैसी फिल्में बनाते हुए आजादी महसूस की?
उत्पलेंदु चक्रवर्ती के अपने उसूल हैं। वह सरकार से किसी किस्म का समझौता नहीं कर सकता। गौतम घोष ने सरकारी कार्यक्रमों पर कई वृत्तचित्र बनाए, लेकिन मैं तो ‘विकल्प’, ‘रंग’ और ‘अपरिचिता’ जैसी उद्देश्यपरक फिल्में ही बनाऊंगा।
सामाजिक परिवर्तन का काम करने के लिए सांस्कृतिक क्षेत्र में ही क्यों आए?
राजनीति करने का अर्थ सांस्कृतिक कर्म न करना तो नहीं होता न! जिनकी राजनीतिक चेतना का स्तर ऊंचा होता है, उनकी सांस्कृतिक चेतना भी ऊंची होती है। लेनिन ने आइजेंस्टाइन और दोवजांकों जैसे फिल्मकारों को बुला-बुलाकर अच्छी फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। मायकोवस्की के साथ कविता और गोर्की के साथ कथा साहित्य पर जमकर बहस करते थे लेनिन। गोर्की तो हताश होकर आत्महत्या करने जा रहे थे। तब लेनिन ने ही उन्हें संभाला और बचाया था।
सामाजिक बदलाव में फिल्मों की भी कोई भूमिका हो सकती है क्या?
अगर हम यह भ्रम पालते हैं कि हमारी फिल्में सामाजिक बदलाव की दिशा में तुरंत कोई भूमिका निभाने लगेंगी तो हम मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं। मुट्ठी भर बौद्धिकों तक ही तो हमारी ये फिल्में पहुंच पाती हैं। मुल्क कुंठा, हताशा और दिशाभ्रम के दौर में है। जमीन इतनी दलदली है कि कोई भी विचार वृक्ष जड़ें पनपा ही नहीं पाता। ऐसे में हमारी फिल्में खास कुछ कर नहीं सकतीं।

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