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डॉ. रामविलास शर्मा : आलोचना का नया स्थापत्य

जन्म शताब्दी गोविंद मिश्र रामविलास शर्मा हिन्दी भाषा और साहित्य के ‘आचार्य’ श्रेणी के उन आखिरी आलोचकों में से हैं, जिन्होंने हिन्दी भाषा, आलोचना और इनसे जुड़े स्थापत्य को एक नया रूप दिया है। उन्होंने परंपरा और अपने देश की पुनर्खाेज की है। उनका सबसे बड़ा अवदान, बौद्धिक स्तर पर उपनिवेशी सोच से मुक्ति का […]
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जन्म शताब्दी

गोविंद मिश्र

रामविलास शर्मा हिन्दी भाषा और साहित्य के ‘आचार्य’ श्रेणी के उन आखिरी आलोचकों में से हैं, जिन्होंने हिन्दी भाषा, आलोचना और इनसे जुड़े स्थापत्य को एक नया रूप दिया है। उन्होंने परंपरा और अपने देश की पुनर्खाेज की है। उनका सबसे बड़ा अवदान, बौद्धिक स्तर पर उपनिवेशी सोच से मुक्ति का प्रयास रहा है। राम विलास शर्मा, माक्र्सवादी आलोचक होने के बावजूद, निपट देशीय भावबोध और दृष्टि से जुड़े रहे। वह जिस युग में होश संभाल रहे थे, वह गांधी का युग था, जिसमें पश्चिमी सोच और दर्शन की रैडिकल आलोचना तैयार हो रही थी। वह आलोचक के साथ- साथ वह कवि, कथाकार, नाटककार भी थे। अज्ञेय ने उन्हें अपने तार सप्तक में शामिल किया था लेकिन डॉ. शर्मा ने अपने लिए आलोचना का ही क्षेत्र चुना। आलोचना के क्षेत्र में उन्होंने विशद लेखन किया है। छायावादोत्तर काल के वह सबसे प्रमुख आलोचक हैं।
उनके कई काम बहुत ही ऐतिहासिक हैं। उनमें से एक है छायावादी कवि निराला के साहित्य की पुनव्र्याख्या। आज निराला के साहित्य की जो हम समझ देखते हैं, उसका सारा श्रेय डॉ. शर्मा को ही जाता है, वरना निराला की महत्ता को अन्य माक्र्सवादी आलोचकों ने खारिज कर दिया था। डॉ. शर्मा और अन्य माक्र्सवादी आलोचकों में यही आधारभूत अंतर है कि डॉ. शर्मा ने किसी भी सिद्धांत का अनुकरण आंख बंद करके नहीं किया। राम विलास शर्मा एक साहित्यिक आलोचक ही नहीं, सामाजिक चिंतक भी थे। उनमें गहरे सौन्दर्यबोध के साथ सामाजिक चेतना भी थी। उनमें इतिहास, भाषा विज्ञान, साहित्य, समाज विज्ञान, राजनीतिक अर्थशास्त्र और कभी-कभी संगीतशास्त्र एक-दूसरे से खेलते हुए मिलेंगे। डॉ. शर्मा ने अपनी आलोचना को पश्चिमी समाज विज्ञानों का उपनिवेश नहीं बनने दिया। निश्चय ही किसी भी आलोचनात्मक लेखन की महत्ता इसमें है कि वह अपने समय की प्रचलित धारणाओं को कितनी गहराई से चुनौती देता है और इस मापदंड में वह एकदम खरे उतरते हैं।
इतना ही नहीं उन्होंनें ज्ञान को पश्चिमी तर्क-पद्धति के वर्चस्व से मुक्त किया। उनसे पहले किसी भी आलोचक ने साहित्य और समाज विज्ञानों के बीच इतना मजबूत व्यावहारिक संबंध स्थापित नहीं किया था। अपने इसी समाज विज्ञान के अध्ययन के दौरान ही उन्होंने सामाजिक परिवर्तन में संस्कृति के महत्व को कम महत्व नहीं दिया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में आस्था होने के बाद भी इस धारणा का खंडन किया कि संस्कृति अर्थतंत्र के आधार पर बनी हुई ऊपरी इमारत है।
डॉ.  शर्मा ने 1857 के बारे में बनी इस धारणा को बदला कि 1857 का विद्रोह मात्र एक पुनरुत्थानवादी घटना थी। यह एक महत्वपूर्ण बात है कि उन्होंने 1857 की घटना के साथ-साथ वेद, गौतम बुद्ध, लोकजागरण और नवजागरण को भी निरंतरता में ही देखा। रामविलास के आलोचात्मक चिंतन के बुनियादी लक्ष्य हैं:-एक, हड़प्पा और वैदिक संस्कृति में अंतद्र्वद्व की जगह दोनों के अंतर्मिश्रण के तथ्य देकर प्राचीन सांस्कृतिक अखंडता की स्थापना। दो,अमीर खुसरो से लेकर तुलसीदास से होते हुए आधुनिक काल तक की हिन्दी की प्रगतिशील, साहित्यिक परंपरा और नवजागरण काल तक की निरंतरता को प्रमाणित करना। तीसरी, अंग्रेजी राज्य की प्रगतिशीलता का खंडन करना।
वह आर्थिक संबंध में ही नहीं वरन धर्म, साहित्य और संस्कृति के संदर्भ में भी भारतीय अतीत के शुरू के कालों से ही विकास के लक्षण दिखाते हैं। अपनी किताब ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र’ (1953) से उनका भारत पर जो चिंतन शुरू हुआ, वह ‘भारत में अंग्रेजी राज्य और माक्र्सवाद’ (1982), ‘भारतीय इतिहास की समस्याएं’ (1986), ‘भारतीय साहित्य की भूमिका’ (1996), ‘भारतीय नवजागरण और यूरोप’ (1996) तथा सन् 1999 में ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ तक में एक विस्तृत फलक पाता है। आधुनिक आलोचना और उत्तर औपनिवेशिक चिंतन में परंपरा के मूल्याकंन का एक खासा स्थान है। डॉ.  शर्मा ने आर्य -द्रविड़ विवाद में भी हस्तक्षेप किया। उनका मानना था कि आर्यों को बाहर का बताना अंग्रेजों की एक चाल थी क्योंकि यूरोपीय यह  बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि विश्व में यह मान्यता बने कि उनसे पहले भी एक जाति उनसे भी अधिक सभ्य थी।
साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने प्रेमचंद, भारतेन्दु, निराला, रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी पर आलोचनात्मक पुस्तकें लिखकर आधुनिक कालीन साहित्य की प्रगतिशीलता को स्थापित किया। सन् 1941 में डॉ. शर्मा ने ही प्रेमचंद पर आलोचनात्मक पुस्तक लिखकर उनकी महत्ता को स्थापित किया था। सन् 1953 में भारतेन्दु पर ‘भारतेन्दु युग’ पुस्तक लिखी।
सन् 1946 में उनकी निराला पर पुस्तक प्रकाशित हुई लेकिन निराला पर उनका बड़ा काम दो खंडों में ‘निराला की साहित्य साधना’ सन् 1972 में प्रकाशित हुई। इसके बाद निराला हिन्दी साहित्य में निराले ही साबित हो गए। इन दोनों ही पुस्तकों में उन्होंने निराला के संपूर्ण साहित्य, गद्य और पद्य दोनों, की व्याख्या और मूल्याकंन किया है। इसी प्रकार हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पर लिखी पुस्तक 1995 में सामने आई। महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन करती उनकी पुस्तक ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी का नवजागरण’ पुस्तक 1977 में प्रकाशित हुई।
डॉ. शर्मा ने तमाम विवादों का भी सामना किया। उन्होंने अज्ञेय, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, रांगेय राघव की कड़ी आलोचना की और इन सबको कम आंकने को लेकर हमेशा निशाने में आते रहे। इसी प्रकार  वेदों पर और प्राचीन संस्कृति पर काम करने को लेकर वह अपने ही माक्र्सवादी साथियों के निशाने पर बने रहे। लेकिन इन विवादों के बावजूद उनका काम और महत्व इतना ज्यादा है कि वह खुद भी बीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य की एक महान विभूति हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी वे अत्यंत सादगीपूर्ण और गंभीर अध्येता थे। उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले उन्नाव में एक साधारण से परिवार में उनका जन्म हुआ फिर झांसी, आगरा और अंत में दिल्ली उनका कर्मस्थान बना। यह संयोग ही था कि निराला भी उन्नाव जि़ले के थे।

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