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गांधी को महात्मा बनाने वाले अब्दुल्ला सेठ

पूरे सौ साल हो गए गांधी जी की भारत वापसी के। साल 1915 में नौ जनवरी को गांधी जी का जहाज मुंबई पहुंचा था, जिससे वे नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) से आ रहे थे। तब तक गांधी जी को महात्मा की पदवी मिल चुकी थी क्योंकि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में काले लोगों के अधिकार के लिए […]
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पूरे सौ साल हो गए गांधी जी की भारत वापसी के। साल 1915 में नौ जनवरी को गांधी जी का जहाज मुंबई पहुंचा था, जिससे वे नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) से आ रहे थे। तब तक गांधी जी को महात्मा की पदवी मिल चुकी थी क्योंकि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में काले लोगों के अधिकार के लिए अहिंसक संघर्ष चलाया था और वे उसमें जीते भी थे।
गांधी जी जब लंदन से बैरिस्टरी पास कर भारत आए तो पोरबंदर में उनके भाई ने कुछ अदालती कामकाज उन्हें दिलवाया पर वे यहां के वकीलों की धींगामुश्ती के आगे टिक नहीं पाए और उदास रहा करते थे। उन्हें लगता कि वे अपने भाई पर बोझ हैं। इसलिए अकसर कहीं और जाकर वकालत करने के लिए प्रयासरत थे। उसी समय उनके भाई को गुजरात में अब्दुल्ला सेठ के भाई ने संपर्क किया। अब्दुल्ला सेठ दक्षिण अफ्रीका के नेटाल में व्यापार करते थे और उन्हें किसी योग्य व भरोसेमंद भारतीय वकील की जरूरत थी। उन्होंने अपने भाई को कहा कि कोई वकील भेजो। तब तक गुजरात में लंदन से बैरिस्टरी पास करके आए वकील बहुत कम थे। उन्हें पता चला कि पोरबंदर के राजा के दीवान कर्मचंद गांधी का बेटा मोहनदास लंदन से बैरिस्टरी किए हुए है। पर तब तक कर्मचंद गांधी की मृत्यु हो चुकी थी, इसलिए उनके बड़े बेटे से सेठ के भाई ने संपर्क साधा।
युवा बैरिस्टर मोहनदास को अपने भाई का यह प्रस्ताव पसंद तो नहीं आया क्योंकि उन्हें लगा कि नेटाल जाकर उन्हें सिर्फ अर्जियां ही लिखनी होंगी। बाकी वकालत का काम तो जमे-जमाए वकील ही करेंगे। मगर रोजगार के अभाव में शर्मीले मोहनदास इस प्रस्ताव पर राजी हो गए। दक्षिण अफ्रीका के नेटाल बंदर में जब अब्दुल्ला सेठ उन्हें लेने स्वयं आए तो गांधी जी को लगा कि अब्दुल्ला सेठ के बारे में उनकी सोच गलत थी। इसके बाद अब्दुल्ला सेठ से प्रेरित होकर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में अहिंसक विरोध का जो सिलसिला शुरू किया, उससे न सिर्फ दक्षिण अफ्रीका वरन पूरे हिंदुस्तान में भी गांधी जी के प्रयोगों की चर्चा होने लगी। गांधी जी को उनके गुरु गोपालकृष्ण गोखले ने भारत आने की सलाह दी और वे नौ जनवरी 1915 को भारत लौट आए। गांधी जी ने अब्दुल्ला सेठ को याद करते हुए लिखा है-
‘ये वही अब्दुल्ला सेठ थे जिन्होंने गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका बुलाया था अपने मुकदमे की पैरवी के लिए। पर अब्दुल्ला सेठ को मुकदमे से ज्यादा लगाव अपने वकील मोहनदास कर्मचंद गांधी की देसी ठसक पर था। इसीलिए अपने मुकदमे की वाट लगाकर भी सेठ ने गांधी जी को अपने स्वाभिमान के लिए लड़ना सिखाया।’
गांधी जी उन्हीं अब्दुल्ला सेठ के बारे में लिखते हैं-
‘अब्दुल्ला सेठ पढ़े-लिखे बहुत कम थे। अक्षर-ज्ञान कम था पर अनुभव-ज्ञान बहुत बड़ा था। उनकी बुद्धि तेज थी और वह खुद भी इस बात को जानते थे। अभ्यास से अंग्रेजी इतनी जान ली थी कि बोलचाल का काम चला लेते। परन्तु इतनी अंग्रेजी के बल पर वह अपना सारा काम चला लेते थे। बैंक में मैनेजरों से बात कर लेते। यूरोपियन व्यापारियों से सौदा कर लेते, वकीलों को अपना मामला समझा देते। हिन्दुस्तानियों में उनका काफी मान था। उनकी पेढ़ी उस समय हिंदुस्तानियों में सबसे बड़ी तो नहीं, बड़ी पेढि़यों में अवश्य थी। उनका स्वभाव वहमी था।’
‘वह इस्लाम का बड़ा अभिमान रखते थे। तत्वज्ञान की बातों के शौकीन थे। अरबी नहीं जानते थे फिर भी कुरान-शरीफ तथा आमतौर पर इस्लामी धर्म-साहित्य की वाकफियत उन्हें अच्छी थी। दृष्टान्त तो जबान पर हाजिर रहते थे। उनके साथ से मुझे इस्लाम का अच्छा व्यावहारिक ज्ञान हुआ। जब हम एक-दूसरे को जान-पहचान गए तब वह मेरे साथ बहुत धर्म-चर्चा किया करते। दूसरे या तीसरे दिन मुझे डरबन अदालत दिखाने ले गए। वहां कितने ही लोगों से परिचय कराया। अदालत में अपने वकील के पास मुझे बिठाया। मजिस्ट्रेट मेरे मुंह की ओर देखता रहा। उसने कहा, ‘अपनी पगड़ी उतार लो।’
‘मैंने इनकार कर दिया और अदालत से बाहर चला आया।’
‘मेरे नसीब में तो यहां भी लड़ाई लिखी थी।’
‘पगड़ी उतरवाने का रहस्य मुझे अब्दुल्ला सेठ ने समझाया। मुसलमानी लिबास पहनने वाला अपनी पगड़ी यहां पहन सकता है। दूसरे भारतवासियों को अपनी पगड़ी उतार लेनी चाहिए।’
‘पगड़ी उतार देने का अर्थ था मान-भंग सहन करना। सो मैंने तो यह तरकीब सोची कि हिन्दुस्तानी पगड़ी को उतार कर अंग्रेजी टोप पहना करूं, जिससे उसे उतारने में मान-भंग का सवाल न रह जाए और मैं इस झगड़े से भी बच जाऊं।’
पर अब्दुल्ला सेठ को यह तरकीब पसंद न आई। उन्होंने कहा, यदि आप इस समय ऐसा करेंगे तो उसका उलटा अर्थ होगा। जो लोग देशी पगड़ी पहने रहना चाहते होंगे, उनकी स्थिति विषम हो जाएगी। फिर आपके सिर पर अपने ही देश की पगड़ी शोभा देती है। आप अगर अंग्रेजी टोपी लगाएंगे तो लोग वेटर समझेंगे।

शंभूनाथ शुक्ल

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‘इन वचनों में दुनियावी समझदारी थी, देशाभिमान था और कुछ संकुचितता भी थी। समझदारी तो स्पष्ट ही है। स्वाभिमान के बिना पगड़ी पहनने का आग्रह नहीं हो सकता था। संकुचितता के बिना वेटर की उपमा नहीं सूझती। गिरमिटिया भारतीयों में हिन्दू, मुसलमान और ईसाई तीन विभाग थे। जो गिरमिटिया ईसाई हो गए, उनकी संतति ईसाई थी। 1893 ईस्वी में भी उनकी संख्या बढ़ी थी। वे सब अंग्रेजी लिबास में रहते। उनका अच्छा हिस्सा होटलों में नौकरी करके जीविका उपार्जन करता। इसी समुदाय को लक्ष्य करके अंग्रेजी टोपी पर अब्दुल्ला सेठ ने यह टीका की थी। उनके अंदर वह भाव था कि होटल में वेटर बनकर रहना हल्का काम है। आज भी यह विश्वास बहुतों के मन में कायम है।’
‘कुल मिलाकर अब्दुल्ला सेठ की बात मुझे अच्छी प्रतीत हुई। मैंने पगड़ी वाली घटना पर पगड़ी का तथा अपने पक्ष का समर्थन अखबारों में किया। अखबारों में उस पर खूब चर्चा चली। अनवेलकम विजिटर (अनचाहा अतिथि) के नाम से मेरा नाम अखबारों में आया और तीन-चार दिन के अंदर अनायास ही दक्षिण अफ्रीका में मेरी ख्याति हो गई। किसी ने मेरा समर्थन किया, किसी ने मेरी गुस्ताखी की भरपेट निन्दा की। मेरी पगड़ी तो लगभग अंत तक कायम रही।’ (आ. क. 1927)

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