कैसे थमेगा जानलेवा कारोबार
पुष्परंजन
तय करना कठिन है कि राइन नदी के किनारे बसा जर्मनी का शहर ‘कोलोन’ किस कारण विश्व विख्यात है। रोमन साम्राज्य के अवशेषों के कारण, ‘डोम’ नाम से मशहूर कैथेड्रल के कारण, या फिर किले और कई सारे म्यूजियम के कारण, अथवा स्वाद में कसैली कुछ अलग किस्म की ‘कोल्श बीयर’ के कारण? आज से बारह साल पहले जो पर्यटक राइन नदी के किनारे 1248 में बने विश्व विख्यात कोलोन कैथेड्रल को देखने आते, वे जर्मन रेडियो ‘डॉयचेवेले’ की गगनचुंबी इमारत का एक चक्कर लगाना नहीं भूलते। उस अ_ाइस मंजिली इमारत में हिंदी, उर्दू, संस्कृत, अरबी समेत 30 भाषाओं में रेडियो कार्यक्रम का प्रसारण करने के लिए दुनियाभर के चुनिंदा पत्रकार, तकनीशियन दिन-रात काम करते थे। वह इमारत कभी सोती नहीं थी। अक्तूबर, 2001 मेें सरकार ने पूरी इमारत की आबो-हवा में फेफड़े, आंत, किडनी में कैंसर पैदा करने वाले घातक कणों की जांच कराई, उसकी वजह दीवारों और छतों में इस्तेमाल एस्बेस्टस थे। 2003 में उस इमारत को तोडऩे का फैसला ले लिया गया।
जर्मनी में सरकारी इमारत से एस्बेस्टस हटाने का दूसरा बड़ा फैसला नवंबर 2003 में ही हुआ। तब सरकार ने तय किया कि 1976 में बने संसद भवन (पालात्स देयर रिपब्लिक) को तोड़ दिया जाएगा, और उसमें लगे सारे एस्बेस्टस निकाले जाएंगे। 6 फरवरी, 2006 को बर्लिन स्थित संसद भवन को तोड़ा जाना आरंभ हुआ, जिसमें एक करोड 20 लाख यूरो (लगभग एक अरब रुपये) का खर्च आया। तोड़े गये संसद भवन से 35 हजार टन स्टील निकाली गई जिसे दुबई में बनी सबसे ऊंची इमारत ‘बुर्ज खलीफा’ में लगाया गया। इस घटना के दो माह पहले सितंबर, 2003 में जर्मनी के द्रेसदेन में एस्बेस्टस के विरुद्ध सम्मेलन हुआ, जिसमें इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ$ युल्का तकाला का आकलन था कि हर साल एस्बेस्टस जनित रोगों से एक लाख श्रमिक मरते हैं। नौ वर्षों में दुनिया बदली नहीं है। ‘एशिया-पैसेफिक सोसायटी ऑफ रेस्पिरोलॉजी’ ने जून, 2011 में रिपोर्ट दी थी कि एस्बेस्टस से प्रभावित रोगियों की संख्या एशिया में काफी बढ़ चुकी है क्योंकि दुनियाभर में जितने लोग इसे इस्तेमाल कर रहे हैं, उसके 64 प्रतिशत उपभोक्ता एशिया में हैं।
28 मई, 2012 तक दुनिया के पचपन देश एस्बेस्टस पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा चुके हैं। इसकी वजह एस्बेस्टस से होने वाली घातक बीमारियां हैं। पहला है फेफड़े का कैंसर ‘एस्बोस्टिस’, जो आमतौर पर उन टेक्सटाइल्स श्रमिकों को हो जाता है, जो लंबे समय तक बिना किसी सुरक्षा मास्क के एस्बेस्टस मिश्रित कपड़े तैयार करते हैं। ऐसी बीमारी को विकसित होने में दस से बीस साल लगते हैं। दूसरी बीमारी है ‘मेसोथेलिओमा’, यह कैंसर आमतौर पर एस्बेस्टस फैक्टरी में काम करने वालों के फेफड़े में लगता है। फेफड़े का कैंसर उन कामगारों को भी होता है, जो सिगरेट नहीं पीते। इसके अलावा किडनी, आंत में भी एस्बेस्टस के कणों से कैंसर विकसित होता है। इसका पता बीस से तीस साल बाद चलता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है।
टाटा मेमोरियल अस्पताल मुंबई के वरिष्ठ सर्जन डॉक्टर जार्ज करिमुंदाकल कहते हैं कि एस्बेस्टस से भारत में कितने लोग प्रभावित हैं, या कितनों की हर साल मौत होती है, इस बारे में बिल्कुल भरोसे के लायक कोई आंकड़ा न तो सरकार के पास उपलब्ध है, न ही किसी एनजीओ के पास। हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं। क्योंकि इससे प्रभावित बहुत कम लोग मुंबई या दूसरे महानगरों का रुख इलाज के लिए कर पाते हैं, अधिकतर लोग मजदूर या निम्न मध्यम वर्ग के लोग होते हैं। डॉक्टर जार्ज करिमुंदाकल कहते हैं, ‘फेफड़े में कैंसर का इलाज काफी महंगा होने का कारण कीमियोथेरेपी है। इसकी सर्जरी भी सस्ती नहीं होती। सर्जरी और कीमियोथेरेपी के बावजूद एस्बेस्टस से हुआ कैंसर इतना घातक होता है कि उसके मरीजों के बचने का प्रतिशत काफी कम होता है। ज्यादा से ज्यादा 20 प्रतिशत। बच भी गये तो कुछेक वर्षों में निपट जाते हैं।’
पूरी दुनिया में चीन के बाद भारत दूसरे नंबर पर है, जहां एस्बेस्टस सबसे अधिक इस्तेमाल में है। भारत में 2008 में तीन लाख 50 हजार मीट्रिक टन एस्बेस्टस की खपत हुई थी। उस साल अपने देश के एस्बेस्टस उद्योग को 85 अरब डॉलर की आय हुई थी। दिल्ली स्थित एस्बेस्टस सामग्री निर्माताओं की संस्था ‘एसीपीएमए’ की मानें तो अपने यहां हर वर्ष तैंतीस प्रतिशत मांग बढ़ रही है। अर्थात आज की तारीख में कोई छह लाख मीट्रिक टन एस्बेस्टस भारतीय बाजार में बिक रहा है। ‘एसीपीएमए’ ने अपनी वेबसाइट पर 2009 तक का आंकड़ा डाल रखा है, उस साल तैंतीस लाख, सत्तर हजार, दो सौ सत्तर मीट्रिक टन एस्बेस्टस सामग्री का निर्माण भारत में हुआ था। एस्बेस्टस की खपत सबसे अधिक भारत के ग्रामीण इलाकों में है। किसी जमाने में कनाडा एस्बेस्टस का सबसे बडा उत्पादक और निर्यातक देश था। अब उसकी जगह रूस ने ले ली है। जनवरी 2012 में ‘एस्बेस्टस मार्केट रिव्यू’ की रिपोर्ट आई, जिसके अनुसार, ‘रूस पूरी दुनिया का 51 प्रतिशत एस्बेस्टस उत्पादन करता है। 18 प्रतिशत एस्बेस्टस उत्पादन करने वाला चीन दूसरे नंबर पर है, चौदह प्रतिशत एस्बेस्टस बनाने वाला ब्राजील तीसरे और ग्यारह प्रतिशत एस्बेस्टस का उत्पादन करने वाला कजाखिस्तान चौथे नंबर पर है। नौ प्रतिशत एस्बेस्टस बनाने वाला कनाडा पिछड़ते-पिछड़ते पांचवें पायदान पर पहुंच गया है।’ कनाडा के किसी भी प्रांत में एस्बेस्टस का एक टुकड़ा नहीं बिक सकता। लेकिन आज भी कनाडा बड़े पैमाने पर एस्बेस्टस भारत को निर्यात कर रहा है। 1997 में कनाडा चार लाख, तीस हजार मीट्रिक टन एस्बेस्टस भेजकर कीर्तिमान स्थापित कर चुका था।
भारत स्थित एस्बेस्टस सामग्री निर्माताओं की संस्था ‘एसीपीएमए’ की बुनियाद 1985 में रखी गई थी। वित्त मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी का अनुमान है कि जब से यह संस्था बनी है, उसने लॉबी करने के लिए पांच-छह करोड़ डॉलर से अधिक की रकम जुटा रखी है। ऐसा आरोप है कि सर्वशक्तिमान ‘एसीपीएमए’ को देश की बारह बड़ी फैक्टरियों और कनाडा की ‘क्राइसोटाइल इंस्टीच्यूट’ से पैसा मिलता है ताकि वह लॉबीबाजी कर सके। लेकिन ‘एसीपीएमए’ के वरिष्ठ अधिकारी ए$ मोदी इससे इनकार करते हैं कि हमें विदेश से पैसा मिलता है।
‘बैन एस्बेस्टस नेटवर्क ऑफ इंडिया’ संक्षेप में बाणी के विरुद्ध बयान देते हुए ‘एसीपीएमए’ ने तर्क दिया कि ऐसी संस्थाओं को यूरोपीय संघ और दूसरी बहुराष्ट्रीय कंपनियां पैसे देती हैं, ताकि स्टील जैसी धातु से बने उनके उत्पाद भारतीय बाजार में बिक सकें। ‘एसीपीएमए’ की दृष्टि में सफेद रंग का क्राइसोटाइल एस्बेस्टस में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे कैंसर होता हो। ‘एसीपीएमए’ ने नौ कारखानों के सात सौ दो कामगारों के स्वास्थ्य का परीक्षण कराया और उस बिना पर यह मान लिया गया कि एस्बेस्टस से किसी किस्म का खतरा नहीं है। 2004-2005 में हुए इस तथाकथित परीक्षण में श्रम मंत्रालय से संबद्ध ‘डीजीएफएएसएलआई’ जैसी संस्था को भी शामिल किया गया, ताकि इसकी विश्वसनीयता बनी रहे। इस बात को आठ साल बीत गये। क्या इसके बाद भी कोई जांच रिपोर्ट आई है? इस बारे में एक रहस्यमय चुप्पी है। जबकि एस्बेस्टस उद्योग में लाखों कामगार लगे हैं, जिनमें मर्द, औरत और बच्चे हैं। क्या इनकी जांच कागजों तक ही सीमित नहीं है?
(लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नयी दिल्ली स्थित संपादक हैं)