इश्क-मजाज़ी से इश्क-हकीकी का सफर
वीणा भाटिया
बुल्लेशाह
इस देश में धार्मिक उदारता और सहिष्णुता की लम्बी परंपरा की लहर सभी प्रकार की संकीर्णताओं और विग्रहों के बीच सदा ही प्रवाहित होती रही है। इस प्रकार की भावना का निर्माण करने में सूफी संतों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। ये सूफी फकीर न धर्मांधता के शिकार थे, न किसी भाषा के व्यामोह से पीडि़त थे। यही कारण था कि अवधी, पंजाबी, सिंधी, उर्दू आदि अनेक भाषाओं में इन फकीरों ने जो रचना की, वह अत्यंत लोकप्रिय हुई और सभी प्रकार के वर्गों द्वारा स्वीकार की गई। सूफी संतों के पास जाने वाले श्रद्धालु कभी एक धर्म अथवा संप्रदाय तक सीमित नहीं रहे। आज भी इन दरगाहों पर मुसलमानो के साथ ही गैर-मुसलमान श्रद्धालुओं की संख्या भी बड़ी मात्रा में दिखाई देती है।
बुल्लेशाह अठारहवीं शती के पंजाब के सुप्रसिद्ध सूफी संत कवि थे। वह कसूर (अब पाकिस्तान में) के रहने वाले थे। उनका जीवनकाल सन् 1680 से 1752 तक माना जाता है।
बुल्लेशाह अपने समय के उन कवियों में से थे जिन्होंने धार्मिक कट्टरता, रूढिवाद, सांप्रदायिक संकीर्णता का तीव्र विरोध करते हुए मानवीय एकता और उसकी प्रेरक शक्ति ‘प्रेम भावना’ का खुलकर प्रचार किया। धर्म या मजहब मानव मात्र में प्रेम और भाईचारे की भावना को जाग्रत करने और उसे बढ़ाने में अपनी सार्थक भूमिका निभाता है, परंतु जब वह संकीर्ण सीमाओं में घिरकर भेदभाव और आपसी विद्वेष का साधन बनने लगे तो बुल्लेशाह जैसे सूफी फकीर बागी हो उठते हैं। बुल्लेशाह इस मानसिकता को व्यक्त करते हुए कहते हैं :-
बुल्ला की जाणा मैं कौण
ना मैं मोमन विच मसीतां
ना मैं विच कुफर दीआं रीतां
ना मैं पाकां विच पलीता
इक नुक्ते विच गल्ल मुकदी ए
फड़ नुक्ता छोड़ हिसाबां नूं
कर दूर कुफर दिआं बातां नूं
लाह दोजख गोर अजाबां नूं
गल ऐसे घर विच ढुकती है।
साधक अपनी ज्ञान रूपी ज्योति को जब प्रज्वलित कर लेता है तो वह न हिंदू रहता है न मुसलमान! प्रेम उसका धर्म बन जाता है। बुल्लेशाह ने इस भाव को व्यक्त करते हुए कहा था :-
ऐसा जगिआ ज्ञान पलीता।
ना हम हिंदू ना तुरकी जरूरी
नाम इश्क दी है मंजूरी
आशिक ने हर जीता
ऐसा जगिआ ज्ञान पलीता।
पंजाब के लोक-जीवन में हीर और रांझा की प्रेमकथा जहां एक ओर लौकिक जीवन के अनूठे प्रेम को प्रकट करती है, वहीं उसमें अनेक आध्यात्मिक और पारलौकिक संकेत भी छिपे हुए हैं। सूफी कवियों ने इहलोक की प्रेम-कथाओं को एक दूसरे के साथ जोड़कर कहा है कि व्यक्ति इहलौकिक प्रेम की तीव्र अनुभूति पाकर ही पारलौकिक प्रेम की ओर बढ़ता है। इसी को सूफी कवि इश्क मजाजी (भौतिक प्रेम) से इश्क हकीकी (आध्यात्मिक प्रेम) की ओर जाना कहते है।
बुल्लेशाह के लिए इश्क हकीकी का सबसे बड़ा प्रतीक रांझा है और उसका जन्मस्थान तख्त हजारा उसके लिए मक्के से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह कहते हैं कि हाजी लोग मक्के की यात्रा करते हैं, परन्तु मेरा मक्का तो रांझा और तख्त हजारा है।
बुल्लेशाह लिखते हैं :-
हाजी लोक मक्के नू जांदे
मेरा रांझा माही मक्का।
हाजी लोक मक्के नू जांदे
असा जाणा तख्त हजारे
जिस वल यार उसे वल काबा
भावें फोल किताबां चारे।।
व्यक्ति इस अलौकिक प्रेम की लगन में नित नई बहारे देखता है। उस समय उसे अपना-पराया सब कुछ भूल जाता है। उसकी अपनी धार्मिक मान्यताएं भी उसके सामने छोटी हो जाती हैं। वह सभी का हो जाता है बुल्लेशाह के शब्दों में—
इश्क की नवीओ-नवीं बहार
जद मैं सबक इश्क दा पढि़आ
मस्जिद कोलों जी उड़ा हटिआ
डेरे जा ठाकर दे वडिय़ा
जित्थे वजदे नाद हजार
इश्क दी नवीओ-नवी बहार।
बुल्लेशाह धार्मिक संकीर्णता और कर्मकांड के विरुद्ध एक विद्रोही कवि थे। ऐसे विद्रोही कवियों को अपने समय में धर्म और समाज के कट्टïरपंथियों का तीखा विरोध सहना पड़ता है। परन्तु बुल्लेशाह जैसे फ$कीर सच्ची बात कहने से कभी नहीं झिझकते — यह जानते हुए भी कि सच बात कहने से चारों ओर तूफान मच सकता है :-
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
झूठ आखां ते कुझ बचदा ए।
सच आखिआं भांबड़ मचदा ए।
जी दोहां गल्लां तो जच्चदा ए।
जच-जच के जिहना कहिंदी ए।
मुंह आई बात न रहिंदी ए।
धार्मिक बाह्याडंबर करने वाले लोग अपने आपको कर्मकांडों की आड़ में छिपा लेते हैं :-
कहू किस थीं आप छिपाई दा।
कहू मुल्ला होए बुलेंदे हो
कहू राम दुहाई देंदे हो
कहू सुन्नत मजब दसेंदे हो
कहू माथे तिलक लगाई दा,
किते चोर बने, किते काजी हो
कहू किस थीं आप छिपाई दा।
परन्तु संसार का चलन तो निराला है। लोगों ने अपने चारों ओर झूठ का इतना पसार कर रखा है कि सच सुनकर लोग लडऩे पर आमादा हो जाते है।
बुल्लेशाह सूफी फकीर थे। उन पर भारतीय अद्वैतवाद, गुरुमत और मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।
बुल्लेशाह पंजाबी भाषा के कवि थे, परन्तुं उस युग के संत कवि किसी एक भाषा से बंधे हुए नहीं होते थे। उन्हें समाज के विभिन्न वर्गों में अपनी बात पहुंचानी होती थी, इसलिए जब जैसी जरूरत होती थी, वे अपनी भाषा में नया रंग भर लेते थे! भाषा का यह खुला रूप बुल्लेशाह की इस कविता में दिखाई देता हैं-
अब लगन लगी किह करीए।
ना जी सकीए ते ना मरीए।
हुण पी बिन पलक न सरीए
अब लगन लगी किह करीए।
उदारता और सहिष्णुता से भरपूर सूफी परंपरा में बुल्लेशाह जैसा मतवालापन और फक्कड़ – मिजाजी, मजहब की तंगदिली को पूरी तरह नकार देने वाला व्यक्तित्व दूसरा नहीं दिखाई देता।