Tribune
PT
About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

राम एक कथाएं अनेक

बाल्मीकि रचित रामायण के बाद दसवीं शताब्दी में कंबन ने रामायण महाकाव्य लिखा, जो दक्षिण में बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ। माना जाता है कि त्रेता युग में कौशल नरेश दशरथ के घर राम ने जन्म लिया था। कुछ लोग कहते हैं कि ऋषि वाल्मीकि ने ईसा के 600 वर्ष पूर्व रामायण लिखी थी।
  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

शंभूनाथ शुक्ल

बाल्मीकि रचित रामायण के बाद दसवीं शताब्दी में कंबन ने रामायण महाकाव्य लिखा, जो दक्षिण में बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ। माना जाता है कि त्रेता युग में कौशल नरेश दशरथ के घर राम ने जन्म लिया था। कुछ लोग कहते हैं कि ऋषि वाल्मीकि ने ईसा के 600 वर्ष पूर्व रामायण लिखी थी। महाभारत जो इसके पश्चात आया बौद्ध धर्म के बारे में मौन है यद्यपि उसमें जैन, शैव, पाशुपत आदि अन्य परम्पराओं का वर्णन है। अतः रामायण गौतम बुद्ध के काल के पूर्व का होना चाहिए। भाषा-शैली से भी यह पाणिनि के समय से पहले का ग्रंथ होना चाहिए। रामायण का पहला और अन्तिम कांड संभवत: बाद में जोड़ा गया था। अध्याय दो से सात तक ज्यादातर इस बात पर बल दिया जाता है कि राम विष्णु के अवतार थे। कुछ लोगों के अनुसार इस महाकाव्य में यूनानी और कई अन्य सन्दर्भों से पता चलता है कि यह पुस्तक दूसरी सदी ईसा पूर्व से पहले की नहीं हो सकती पर यह धारणा विवादास्पद है। छह सौ वर्ष ईसा पूर्व से पहले का समय इसलिये भी ठीक है कि बौद्ध जातक रामायण के पात्रों का वर्णन करते हैं जबकि रामायण में जातक के चरित्रों का वर्णन नहीं है।
कई चीज़ें हर रामायण में भिन्न हैं। कई चीज़ें हर रामायण में भिन्न हैं। उदाहरण के लिए इस समय सर्वाधिक प्रचलित तुलसी की रामायण- राम चरित मानस में अग्नि परीक्षा और सीता वनवास प्रसंग नहीं है। लगता है तुलसी उससे बच कर निकल गए। जबकि कंबन ने अपनी तमिल रामायण में इन दोनों प्रसंगों के लिए राम की आलोचना की है। इन दोनों प्रसंगों से यह तो पता ही चलता है कि महर्षि वाल्मीकि ने उस समय की देश-काल परिस्थितियों के अनुसार राम कथा लिखी, तो परवर्ती रचनाकारों ने अपने समय के आदर्शों को लिया। अब इतना तो तय ही है कि तुलसी का समय आते-आते ये प्रसंग समाज में अमान्य हो गए थे, इसीलिए तुलसी इनसे बचे। चौदहवीं सदी में पूर्वी भारत में शंकरदेव ने असमी भाषा में रामायण लिखी। उसके भी कुछ प्रसंग भिन्न हैं। भारत के किसी भी कोने में लोक मानस ने राम को सीता वनवास के लिए माफ़ नहीं किया। बौद्ध जातकों और जैन परंपरा की रामायण विमल सूरि कृत पउम चरिउ (300-400ई.) में राम की आलोचना है। डॉक्टर रमानाथ त्रिवेदी ने लिखा है कि वाल्मीकि-रामायण में सीता के चरित्र पर राम ने संदेह नहीं किया।
संदेह का आरंभ जैन राम-कथाओं से होता है। ‘पउम चरिउ’ में वर्णित है कि नागरिकों ने राम से भेंट कर सीता के कलंक की बात कही। राम ने लक्ष्मण से कहा कि वे सीता को वन में छोड़ आएं। लक्ष्मण तैयार नहीं हुए तो राम ने यह कार्य अपने सेनापति से करवाया। राम को सीता के चरित्र पर संदेह हुआ, इसे युक्ति-संग बनाने के लिए रावण के चित्र की कल्पना हुई।
हरिभद्र (आठवीं शती) के उपदेश-पद में इसका प्राचीनतम उल्लेख है। सीता की ईर्ष्यालु सौतों ने सीता से रावण के चरणों का चित्र बनवाया, फिर उसे राम को दिखाया। राम ने उपेक्षा की तो सौतों ने दासियों के द्वारा जनता में प्रचार करा दिया। राम गुप्त-वेश धारण कर निकले, उन्हें सीता के कलंक के बारे में ज्ञात हुआ तो उन्होंने सेनापति द्वारा सीता का त्याग करा दिया। हेमचन्द्र की जैन रामायण में भी इस प्रसंग का अनुसरण है। इसमें सौतों की संख्या तीन बतायी गयी है।
रावण का चित्र बनाने की चमत्कारिक घटना जनता को सहज स्वीकार्य हो गयी। किंतु, जनता को यह स्वीकार न था कि एक पत्नी-व्रत-धारी राम की कई पत्नियां दिखायी जातीं। आगे चलकर चित्र बनाने का आग्रह करने वाली स्त्रियां सौत नहीं कुछ और दिखायी गयीं। अब दो दृष्टियों से अध्ययन करना होगा –
1. चित्र बनाने का आग्रह करने वाली कौन है, तथा
2. चित्र बनाने का आधार क्या है?
आनंद-रामायण में कैकेयी ने रावण का चित्र बनाने का आग्रह किया। सीता ने रावण के पैर का अंगूठा देखा था, उसे ही उन्होंने दीवार पर बनाया। कृत्तिवासी बांग्ला-रामायण में सखियों के कहने पर सीता ने फर्श पर रावण का चित्र बनाया। बांग्ला भाषा की ही चन्द्रावती-रामायण में कैकेयी की पुत्री कुकुआ सीता से ताल-पंख पर रावण का चित्र बनवाती है। इस प्रकार बांग्ला रामायणों में सौतेली सास-बहू या ननद-भाभी का विवाद चल पड़ा। माड़िया गौड़ आदिवासियों की कथा में ननद के कहने पर सीता गोबर से चित्र बनाती है। गुरु गोविंद सिंह की रामायण में सखियां दीवार पर चित्र बनवाती हैं। राम को संदेह होता है और सीता शपथपूर्वक धरती में समा जाती है। कश्मीरी रामायण में चित्र बनवाने वाली छोटी ननद है। लक्ष्मण सीता को वन-प्रदेश में ले जाते हैं। सीता सो जाती हैं तो जल-भरा लोटा टांगकर लक्ष्मण लौट जाते हैं। एक बुंदेलखंडी लोकगीत में भी ऐसा है। कई लोकवार्ताओं में भी चित्र-वृत्तांत है। यह प्रसंग पूरे देश और दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रचारित रहा। इसका विश्लेषण इस प्रकार किया जा सकता है-
1. चित्र बनाने वाली सौत, सखी, कैकेयी, कैकेयी-पुत्री, कोई ननद, रावण-पुत्री या कोई राक्षसी बतायी गयी।
2. चित्र का आधार रहा फर्श, ताल-पंख, दीवार, केले का पत्ता, थाली आदि।
3. चित्र बनाया गया पूरे शरीर, चरण या अंगूठे का।
4. विदेशी राम कथाओं में यह भी दिखाया गया कि राम के आदेश पर लक्ष्मण सीता का वध करने वन में ले गये, किंतु वे किसी पशु (कुत्ता, बकरी या मृग) को मारकर उसका रक्त या कोई अंग राम को दिखाने के लिए ले आये। आश्चर्य है कि बौद्ध-धर्म प्रभावित विदेशी रामकथाओं में ऐसा रक्तपात क्यों दिखाया गया। वैसे आनंद-रामायण में राम लक्ष्मण से सीता की दक्षिण भुजा काटने के लिए कहते हैं, क्योंकि इसी से उन्होंने रावण का चित्र बनाया था।
दक्षिण भारत में प्रचलित रामायण कथा के अनुसार भगवान श्री राम की एक बड़ी बहन भी थी जिनका नाम शांता था। शांता के बारे में भी कई कहानियां मिलती हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं। एक कथा के अनुसार रावण को अपने पितामह ब्रह्मा से पता चला कि उसकी मृत्यु कौशल्या और दशरथ के यहां जन्में दिव्य बालक के हाथों होगी इसलिये रावण ने कौशल्या को विवाह पूर्व ही मार डालने की योजना बनाई। उसने कौशल्या को अगवा कर एक डिब्बे में बंद कर सरयू नदी में बहा दिया उधर विधाता भी अपना खेल रच रहा था, दशरथ शिकार करके लौट रहे थे उनकी नजर रावण के भेजे राक्षसों के इस कृत्य पर पड़ गई लेकिन जब तक दशरथ वहां पहुंचते मायावी राक्षस अपना काम करके जा चुके थे। राजा दशरथ अब तक नहीं जानते थे कि डिब्बे में कौशल नरेश की पुत्री कौशल्या है उन्हें तो यही आभास था कि हो न हो किसी का जीवन खतरे में है। राजा दशरथ बिना विचारे ही नदी में कूद गये और डिब्बे की तलाश में लग गये। कुछ शिकार के कारण और कुछ नदी में तैरने के कारण वे बहुत थक गये थे यहां तक उनके खुद के प्राणों पर संकट आ चुका था वो तो अच्छा हुआ कि जटायु ने उन्हें डूबने से बचा लिया और डिब्बे को खोजने में उनकी मदद की। तब डिब्बे में बंद मूर्छित कौशल्या को देखकर उनके हर्ष का ठिकाना न रहा। देवर्षि नारद ने कौशल्या और दशरथ का गंधर्व विवाह संपन्न करवाया। अब विवाह हो गया तो कुछ समय पश्चात उनके यहां एक कन्या ने जन्म लिया लेकिन यह कन्या दिव्यांग थी। उपचार की लाख कोशिशों के बाद समाधान नहीं निकला तो पता चला कि इसका कारण राजा दशरथ और कौशल्या का गौत्र एक ही था इसी कारण ऐसा हुआ समाधान निकाला गया कि कन्या के माता-पिता बदल दिये जायें यानि कोई इसे अपनी दत्तक पुत्री बना ले तो इसके स्वस्थ होने की संभावना है ऐसे में अंगदेश के राजा रोमपाद और वर्षिणी ने शांता को अपनी पुत्री स्वीकार कर लिया और वह स्वस्थ हो गई। युवा होने के बाद ऋंग ऋषि से शांता का विवाह करवाया गया।
एक अन्य कथा के अनुसार राजा कौशल्या की एक बहन थी वर्षिणी जिनका विवाह राजा रोमपाद के साथ हुआ था लेकिन उनके यहां कोई संतान नहीं थी। वहीं राजा दशरथ और कौशल्या की एक पुत्री थी जिसका नाम था शांता वह बहुत ही गुणवान और हर कला में निपुण थी। एक बार राजा रोमपाद और वर्षिणी राजा दशरथ के यहां आये हुए थे। वर्षिणी ने हंसी-हंसी में ही कह दिया कि काश मेरे यहां भी शांता जैसी संतान होती बस यह सुनते ही राजा दशरथ उन्हें शांता को गोद देने का वचन दे बैठे इस प्रकार शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। राजा रोमपाद का शांता से विशेष लगाव हो गया वह अपनी पुत्री को बहुत चाहते थे। एक बार कोई ब्राह्मण द्वार पर आया लेकिन वह अपनी पुत्री के साथ वार्तालाप करते रहे और ब्राह्मण खाली हाथ लौट गया। ब्राह्मण इंद्र देव का भक्त था। अपने भक्त के अनादर से इंद्र देव कुपित हो गए और अंगदेश में अकाल के हालात पैदा हो गये। तब राजा ने विभंडक ऋषि के पुत्र ऋंग ऋषि को यज्ञ करवाने के लिये बुलवाया यज्ञ के फलस्वरुप भारी बारिश हुई और राज्य धन-धान्य से फलने-फूलने लगा ऐसे में राजा रोमपाद और वर्षिणी ने अपनी पुत्री का विवाह ऋंग ऋषि के साथ कर दिया।
एक अन्य लोककथा के अनुसार यह भी माना जाता है कि जब शांता का जन्म हुआ तो अयोध्या में 12 वर्षों तक भारी अकाल पड़ा। राजा को सलाह दी गई कि उनकी पुत्री शांता के कारण ही यह अकाल पड़ा हुआ है ऐसे में राजा दशरथ ने नि:संतान वर्षिणी को अपनी पुत्री शांता दान में दे दिया। कहीं फिर अयोध्या अकालग्रस्त न हो जाये इस डर से शांता को कभी अयोध्या वापस बुलाया भी नहीं गया। वहीं एक और लोककथा मिलती है जिसमें यह बताया जाता है कि राजा दशरथ ने शांता को सिर्फ इसलिये गोद दे दिया था चूंकि वह लड़की थी और राज्य की उत्तराधिकारी नहीं बन सकती थीं। कुछ कहानियों में भगवान राम की दो बहनों के होने का जिक्र भी है, जिनमें एक का नाम शांता तो एक का कुतबी बताया गया है। लेकिन ये सब क्षेपक हैं, जिन्हें बाद में लोगों ने अपनी-अपनी सुविधा से जोड़ लिया। पर हर राम कथा में नायक राम ही हैं और खलनायक रावण। लोक के हित के लिए राम रावण का वध करते हैं और उसके छोटे भाई प्रजा वत्सल विभीषण को लंका का राज सौंपते हैं। राम का यही रूप पूज्य है। लोक में श्लाघ्य है।

Advertisement

सबके अपने अपने राम

बारहवीं शताब्दी में लिखी गई रामायण को एशिया का महाकाव्य (एपिक ऑफ़ एशिया) कहा जाता है। एशिया में सभी जगह राम कथा मिलती है। होबुत्सुशु नामक ग्रन्थ में रामायण की कथा जापानी में उपलब्ध है, लेकिन ऐसे प्रकरण भी हैं, जिनसे कहा जा सकता है कि जापानी इससे पूर्व भी राम-कथा से परिचित थे। ‘साम्बो-ए-कोताबा’ में दशरथ और श्रवण कुमार का प्रसंग मिलता है। ‘होबुत्सुशु’ की राम-कथा और रामायण की कथा में भिन्नता है। जापानी कथा में शाक्य मुनि के वनगमन का कारण निरर्थक रक्तपात को रोकना है। वहां लक्ष्मण साथ नहीं है, केवल सीता ही उनके साथ जाती हैं। सीता-हरण में स्वर्ण-मृग का प्रसंग नहीं है, अपितु रावण योगी के रूप में राम का विश्वास जीतकर उनकी अनुपस्थिति में सीता को उठाकर ले जाता है। रावण को ड्रैगन (सर्पराज)-के रूप में चित्रित किया गया है, जो चीनी प्रभाव है। यहां हनुमान के रूप में शक्र (इन्द्र) हैं और वही समुद्र पर सेतु-निर्माण करते हैं। कथा का अन्त भी मूल राम-कथा से भिन्न है।
थाईलैंड में रामायण
थाईलैंड में जब भी नया शासक राज सिंहासन पर बैठता था, वह उन वाक्यों को दोहराता था, जो राम ने विभीषण के राजतिलक के अवसर पर कहे थे। भारत के बाहर थाईलैंड में आज भी संवैधानिक रूप में राम राज्य है। वहां भगवान राम के छोटे पुत्र कुश के वंशज सम्राट ‘भूमिबल अतुल्य तेज’ राज्य कर रहे हैं, जिन्हें नौवां राम कहा जाता है। थाईलैंड के पुराने रजवाड़ों में भरत की भांति राम की पादुकाएं लेकर राज्य करने की परंपरा पाई जाती है। वे सभी अपने को रामवंशी मानते थे। यहां ‘अजुधिया’ ‘लवपुरी’ और ‘जनकपुर’ जैसे नाम वाले शहर हैं।
सन 1340 ई. में राम खरांग नामक राजा के पौत्र थिवोड ने राजधानी सुखोथाई (सुखस्थली)-को छोड़कर ‘अयुधिया’ अथवा‘अयुत्थय’ (अयोध्या)- की स्थापना की। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि राम खरांग के पश्चात नौ शासकों के नाम राम-शब्द की उपाधि से विभूषित थे। वे राम प्रथम, राम द्वितीय आदि नामों से अभिहित होते थे। यहां वाल्मीकिकृत रामायण के आधार पर अनेक महाकाव्यों की रचना हुई। इसमें सर्वप्रथम ग्रन्थ है रामकियेन अर्थात राम-कीर्ति। इसके लेखक महाराज राम प्रथम माने जाते हैं। इसमें कुछ अंश कम्बोडिया की अपूर्ण कृति रामकेति से भी लिये गये हैं।
म्यांमार की रामकथा
म्यांमार में ईसा पूर्व ही राम-कथा यहां पहुंच चुकी थी। ईसा के दो शताब्दी पहले से विष्णु एवं बुद्ध के प्रणाम मिलते हैं, लेकिन यह आश्चर्यजनक बात ही है कि राम-कथा का साहित्यिक सृृजन सत्रहवीं शताब्दी के पूर्व का उपलब्ध नहीं होता। प्रथम रचना रामवस्तु इसी काल की मिलती है और इसमें राम कथा को बौद्ध कलेवर में प्रस्तुत किया गया है। इसके नायक बोधिसत्व राम हैं, जो कि तुषित स्वर्ग से देवताओं की प्रार्थना पर अवतरित हुए हैं। दूसरी रचना महाराम है, जो अठारहवीं शताब्दी के अन्त अथवा उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में रची गई थी। यह कृति भी गद्य में ही है। यह मूलतः रामवस्तु का ही विस्तृत एवं अलंकृत रूप है। तीसरी मुख्य गद्य रचना ‘राम-तोन्मयो’ है जो 1904 ईं. में साया-हत्वे ने लिखी। इसमें पात्रों के नाम तथा प्रसंगों को बदल दिया गया है। चौथी रचना है राम-ताज्यी, जिसे अ-ओ-पयो ने 1774 ई. में लिखा है। यह गीतिकाव्य है, जिसे इसके रचयिता ने बंगाल के बाउल गायकों की भांति नगर-नगर, ग्राम-ग्राम घूम-फिर कर गाया तथा इस प्रकार ‘रामख्यान’ का प्रचार-प्रसार किया। पांचवीं रचना राम-भगना है, जिसे 1784 ई. में ऊ-तो ने लिखा। इसका कथानक राम-सुग्रीव मैत्री तक ही सीमित है। छठी रचना अलौंग राम-तात्यो है, जिसे साया-हतुन ने 1904 ईं. में रचा। यह भी गीतिकाव्य है। सातवीं रचना नाटक थिरी राम गद्य एवं पद्य दोनों में है। यह नाटक भी 8वीं-9वीं शताब्दी के प्रारम्भ या अंत मेें 1320 ताड़पत्रों पर लिखा गया था। आठवीं रचना भी गद्य-पद्यमय नाटक पोन्तव राम है, जिसे ऊ-कू नने 1880 ई. में लिखा था। नवीं रचना है, पोन्तव राम-लखन, जिसे ऊ-गांग गोने 1910 ई. में लिखा था। मुख्यतः यह कृति राम के प्रति सीता के प्रेम की कहानी है। म्यांमार में 1767 ई. से रामलीला (थामाप्वे) भी रात को खेली जाती है।
कम्बोडिया में राममयी संस्कृति
कम्बोडिया (कम्पूचिया) में पहली शताब्दी से ही राममयी संस्कृति का प्रचार-प्रसार मिलता है। छठी सातवीं शताब्दी के खण्डहरों तथा शिलालेखों में रामायण के प्रणम मिलते हैं। रामकेर या रामकेर्ति कम्बोडिया का अत्यधिक लोकप्रिय महाकाव्य है, जिसने यहां की कला, संस्कृति, साहित्य को प्रभावित किया है। इसके लेखक के नाम के बारे में पता नहीं चला है। इसकी प्राचीनतम हस्तलिपियां 17वीं शताब्दी की उपलब्ध होती हैं। इसके अनेक पाठभेद हैं और कोई सर्वमान्य रूप नहीं है, फिर भी यह राष्ट्र की आत्मा की सुन्दरतम अभिव्यक्ति है। इसकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि यहां के शासक जयवर्मन सप्तम के जीवन की घटनाएं राम के जीवन की घटनाओं से बहुत मिलती हैं। आज भी यह कथा सत्य एवं न्याय की विजय की प्रतीत मानी जाती है।
इन देशों में पहुंची रामकथा
फिलीपीन्स में राम-कथा महारादिया लावना नाम से 13वीं-14वीं शदाब्दी की प्राप्त होती है। इसमें राम-कथा तथा पात्रों का स्वरूप बदला हुआ है। यहां की राम-कथा में राम को मन्दिरी, लक्ष्मण को मंगवर्न, सीता को मलाइला तिहाइया कहा जाता है। फिलीपीन्स की राम-कथा में भी असत्य पर सत्य की विजय दिखाई गयी है। रावण बुरा है, वह परास्त होता है (मारा नहीं जाता), राम-सीता का दाम्पत्य स्थापित होता है।
मलेशिया मुस्लिम देश होने पर भी वहां भारतीय संस्कृति का प्रभाव रहा है। मलयेशिया में रामकथा का प्रचार अभी तक है। वहां मुस्लिम भी अपने नाम के साथ अक्सर राम लक्ष्मण और सीता नाम जोड़ते हैं। यहां राम-कथा साहित्य, छाया नाटक तथा रामायण-नृत्य में मिलती है। मलय रामायण की प्राचीनतम प्रति सन 1633 ई. में बोदलियन पुस्तकालय में सुरक्षित की गयी। यह अरबी लिपि में है, जिससे स्पष्ट है कि इस पर इस्लाम का प्रभाव है। इसके तीन पाठ रोकड़ा वान रेसिंगा, शेलाबेर और मैक्सवेल के मिलते हैं। मलय राम-कथा के साहित्यिक पाठ प्रायः हिकायत सेरी राम के नाम से प्राप्त होते हैं, किंतु डब्ल्यू.ई. मैक्सवेल द्वारा सम्पादित ग्रन्थ का नाम श्रीराम है। एक और ग्रन्थ हिकायत महाराज रावण भी मिलता है, जो हिकायत सेरी राम से मिलता है। हिकायत सेरी राम ग्रन्थ में रावण के चरित्र से लेकर राम-जन्म, सीता-जन्म, राम-सीता विवाह, राम वनवास, सीता हरण और सीता की खोज, युद्ध, सीता त्याग तथा राम-सीता के पुनःमिलन तक की कथा है। डाॅ. कामिल बुल्के ने इस ग्रन्थ पर पड़े प्रभावों के सम्बन्ध में लिखा है कि इस पर जैन तथा बंगाली राम-कथाओं का प्रभाव निर्विवाद है। उड़िया राम-साहित्य, रंगनाथ तथा कम्ब रामायण अर्थात भारत के पूर्वी तट की रचनाओं का प्रभाव सेरी राम पर पड़ा है।
लाओस का प्राचीन नाम मोंग जिंग थांग अथवा लेम थांग है, जिसका संस्कृत नाम स्वर्णभूमि प्रदेश है। लाओस में राम-कथा संगीत, नृृत्य, चित्रकारी, स्थापत्य और साहित्य की धरोहर के रूप में ताड़-पत्रों पर सुरक्षित है। राजमहल और व्येन्त्याने-नगर की नाट्यशाला में राम-कथा का संगीत-रूपक के रूप में मंचन होता है। राम-कथा यहां दो रूपों में मिलती हैं-एक रूपान्तर ‘फालम’ (प्रिय लक्ष्मण, प्रिय राम) जो व्येत्स्या को प्रदेश से प्राप्त हुआ है, दूसरे पोम्पचाक (ब्रह्मचक्र) जो उत्तरी लाओस की मेकांग घाटी से प्राप्त हुआ है। पहली रचना एक जातक-काव्य है। भगवान बुद्ध जेतवन में एकत्र भिक्षुओं को श्रीराम की कथा सुनाते हैं। इसकी रचना लवदेश में हुई थी, इसी कारण यह यहां के लोगों को सर्वप्रिय है। इन दोनों रूपान्तरों की राम कथा एवं पात्र-सृृष्टि वाल्मीकि-रामायण की अपेक्षा थाईलैंड, इंडोनेशिया, मलाया आदि में मिलने वाली राम-कथा से अधिक मिलती है।
तिब्बत में भी राम
तिब्बत में राम-कथा का प्रवेश मुख्यतः बौद्ध जातकों के कारण हुआ। डाॅ. कामिल बुल्के के अनुसार राम-कथा अनामक जातक तथा दशरथ जातक के माध्यम से तिब्बत पहुंची। इन दोनों जातकों का क्रमशः तीसरी और पांचवीं शताब्दी में चीनी भाषा में अनुवाद हुआ था। इसके अतिरिक्त राम-कथा का लिखित रूप 13वीं शताब्दी में प्राप्त होता है। द बुस के दमार-स्तोन-चोस-ग्लांक ने अपने गुरु सा-स्क्या पण्डित से सुनी कथा के आधार पर लिखा,

Advertisement
×