Tribune
PT
Subscribe To Print Edition About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

दस्तके खौफ

इन्द्रनाथ चावला ऐसे लगता है किसी ने रात के अंधेरे में गोली दा$ग दी हो या फिर शांत आकाश के सीने में कोई खंजर घोंप रहा हो। आखिर क्यों आती हैं किसी के घर का सांकल खटखटाने की आवाजों, आधी रात के सन्नाटे को चीरती हुई। सांकल खटखटाने की आवाजों सुनकर मेरी तो सांसें रुक-सी […]

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
Advertisement

इन्द्रनाथ चावला

चित्रांकन : संदीप जोशी

Advertisement

ऐसे लगता है किसी ने रात के अंधेरे में गोली दा$ग दी हो या फिर शांत आकाश के सीने में कोई खंजर घोंप रहा हो। आखिर क्यों आती हैं किसी के घर का सांकल खटखटाने की आवाजों, आधी रात के सन्नाटे को चीरती हुई। सांकल खटखटाने की आवाजों सुनकर मेरी तो सांसें रुक-सी जाती हैं। नीचे की सांस नीचे और ऊपर की ऊपर रह जाती है। छाती की धौंकनी जैसे बंद-सी हो जाती है, गला रुंध जाता है और गालें सांस रुकने से फूलकर गुब्बारे जैसी हो जाती हैं।
सांकल खटकने के डर से रातभर नींद नहीं आती। करवटें बदलती रहती हूं। आज कहीं हमारी बारी न हो। लेटे-लेटे दुआ करती रहती हूं। या खुदावंद करीम, परवरदगा-रे-आलम, आज की रात सलामती से कट जाये। जल-तू-जलाल तू आयी बला को टाल तू। आज किसी घर का सांकल न खटखटाया जाये। दिन तो जैसे-तैसे कट जाता है। अम्मी से अब्बू से बातें कर सकते हैं। शाहिद के घर जा सकते हैं। खाला जान को बुला सकते हैं। परंतु यह निगोड़ी रात काटे नहीं कटती। बड़ी लंबी और भयानक लगती हैं ये कभी न खत्म होने वाली रातें।
गांव में हर रात किसी का दरवाजा खटखटाने की आवाजों आती हैं। कुछ देर की खामोशी के बाद किसी के ची$खने-चिल्लाने का शोर दिल को दहला देता है। रोने-पीटने की आवाजों से आकाश गूंज उठता है। गोलियां आकाश का सीना छलनी करती हुई दनदनाती हैं। बंदूकों से आग उगलती हुई निकल जाती हैं। फिर किसी सिम्मत आग की लाल-लाल लपटें ऊंची उठती दिखाई देती हैं। किसी का रैन-बसेरा खाक-सियाह हो जाता है। किसी की दुनिया उजड़ जाती है।
रात के गहरे काले अंधेरे में गांव का कोई भी आदमी अपने घर का दरवाजा खोलकर पास वाले जंगल में जाने का साहस नहीं जुटा पाता। अलबत्ता कुछ लोग खिड़कियों के पर्दे सरका कर बाहर स्थिति की टोह जरूर लेते हैं। इन अमावस की काली रातों में कुछ भी तो दिखायी नहीं देता। घर से बाहर देखना तो एक तरफ, घर के अंदर भी हाथ को हाथ नहीं सूझता। कहीं कुछ कदमों की आहट होती है। चीत्कार की आवाजों सुनाई देती हैं। हाय! हाय! बचाओ-बचाओ, मत मारो, खुदा का वास्ता है। अल्लाह के लिए, मेरी बच्ची को छोड़ दो, मेरे बच्चे पर रहम करो।
हमेशा दिन निकलने पर ही पता चलता है कि कल रात किस बदनसीब का घर लूटा गया। किसकी लड़की, बीवी या बहन उठा ली गयी।
कौन कर्मजली बेवा बना दी गयी। कौन जवां लड़का बारूद की पेटियां ढोने के लिए या दहशतगर्दी की ट्रेनिंग के लिए जबरन भर्ती कर लिया गया। बस ले गये अपने साथ जंगल में बेरहम, किसी के जि$गर के टुकड़े को, किसी घर के चिराग को कुलीगिरी अथवा दहशतगर्दी की जिदगी बसर करने के लिए। रोटी के दो निवालों के एवज में उम्रभर के लिए वहशत और खून-खराबे का तोहफा देने के लिए।
जंगल की हरी मखमली घास को बिस्तर बनाते हैं वे लोग। किसी दोशीजा के नरम शरीर को नोचने और रूह को तड़पाने का मजा लेते हैं वे दरिन्दे। सुबह होने से पहले वे रातों के लुटेरे उस टूटी हुई, अधमरी, रातों में सतायी गयी जिंदा लाश को लावारिस छोड़कर रोशनी से डरकर भाग खड़े होते हैं। डरपोक और नपुंसक अपनी जान बचाते हुए उस बेकसूर, लाचार, निहत्थी, मासूम और कमसिन को तड़पता और खून के आंसू पीने के लिए बेसहरा छोड़कर किसी जंगल या गु$फा में जाकर पनाह लेते हैं या फिर किसी और गांव में नये शिकार की तलाश में टोह लेते फिरते हैं।
1 1
गांव के सबसे बूढ़े कादर मियां के घर के बाहर एक जीप सवार युवकों की टोली रुकती है। वही अंधेरा और रात का सन्नाटा है। एक युवक बंदूक के दस्ते से दरवाजा खटखटाता है। बूढ़ा कादर मियां एक लाठी के सहारे बड़ी मुश्किल से चारपाई से उठता है। सांकल खोलने के लिए हाथ बढ़ता है। काले कपड़े में मुंह छिपाये एक युवक जल्दी में दरवाज़े को बाहर से धकेलता है। कादर मियां दरवाज़े के धक्के से धड़ाम से मुंह के बल जमीन पर जा गिरता है। उसके पीछे घर में दाखिल होते हैं तीन और बंदूकधारी युवक वैसे ही नकाबपोश। अपनी काली करतूतों पर परदा डाले हुए।
कादर मियां आवाज देता है, ‘कौन हो तुम? क्या चाहते हो?’
‘घबराओ मत। तुम्हारी लड़की से निकाह करने आये हैं।’
‘क्या करते हो। किस गांव के हो। बाप कौन है तुम्हारा?’
‘रशीद। इस बूढ़े को बताओ हम कौन हैं।’
‘हमें नहीं जानते क्या! हमें तो सारा गांव जानता है।’
दूसरा बोलता है, ‘अभी बताता हूं तुम्हें। यह रहा दूल्हा और हम सब हैं बाराती। खाने का जल्दी इंतजाम करो। बारातियों को लड़की की शादी में खाना नहीं खिलाओगे क्या? दस्तरखान लगाओ। असली कश्मीरी खाना चाहिये हमें।’
कादर मियां और अजनबी लोगों में तकरार सुनकर उसकी बीवी और लड़का परदे के पीछे से बाहर निकलते हुए उसके पास आ खड़े होते हैं। वे जानना चाहते हैं कि आखिर माजरा क्या है।
‘मैंने कहा ना चले जाओ यहां से। तुम कश्मीरी मालूम नहीं देते। कुछ अदब और सलीके से बात करो।’
‘बहुत बड़-बड़ करते  हो, बूड्ढ़े। चुप रहो, वरना सदा के लिए चुप करा दूंगा।’
मियां हम सब काम सलीके से करते हैं। निकाह पढ़ाने के लिए मौलवी भी साथ लाये हैं। एक तुम हो कि बे-अदबी दिखा रहे हो, घर आये मेहमानों के साथ।’
‘रशीद! बूड्ढा चुप होने वाला नहीं। निकाह की तैयारी करो।’
‘कैसा निकाह! न दूल्हा। न बाराती। न पैगाम। न मेहंदी। यह सब गैर-कानूनी है। तशद्द है। जुल्म है।’
‘मौलवी निकाह शुरू करो।’
‘दुल्हन कहां है?’
‘ यह सब नाजायज है। गुनाह है। कुफर है।
रशीद! बूड्ढे को समझाओ। लगता है सठिया गया है। हमें कानून समझाता है। जायज-नाजायज हम इस बूड्ढे से सीखेंगे क्या? सारी वादी में किसका  कानून चलता है? किसके हाथों में है कानून? कानूनी और गैर-कानूनी क्या है? इसका फैसला हम करेंगे।
‘हम कोई जबरदस्ती नहीं करने जा रहे। तुम्हारी लड़की उठाकर नहीं ले जा रहे। कायदे और रस्मो-रिवाज के मुताबिक निकाह करके ले जाएंगे। हमारे मजहब में चार की इजाजत है। यह तो मालूम है ना तुम्हें। अपने आपको बड़े नसीब वाला समझो जो तुम्हारी लड़की को रशीद जैसा शौहर मिल रहा है।
बेबस बूड्ढ़ा मौलवी, रोती हुई एक कमसिन-मासूम हसीना लड़की से सवाल करता है- उसकी आंखों में लाचारी साफ दिखायी दे रही है। वह अपने सिर की तरफ तनी हुई बंदूक की नाली को एक उड़ती नजर से देखता है। फिर पूछता है, ‘बीवी गुलजार जवाब दो। तुम्हें रशीद मियां से निकाह मंजूर है। जल्दी जवाब दो।’
‘हां कह दो। हम सब काम कायदे और दीन-इमान के मुताबिक करना चाहते हैं।’
गुलजार चुप है। ‘लड़की की रजामंदी के बगैर यह निकाह नहीं  हो सकता। गैर-वाजब और गैर-कानूनी है यह सब।’
‘चुप रहो अब। ज्यादा बको मत। हम तुम्हारी बकावास सुनने के लिए तुम्हें पकड़कर यहां नहीं लाये। जैसा कहते हैं वैसे करो। निकाह पढ़ो जल्दी से। हमारे पास टाइम बहुत कम है। ऐ बेवकू$फ लड़की, मौलवी के सवाल का जवाब दो। कहो कबूल है। वरना….’
कादर मियां जमीन से उठते हुए कहता है, ‘तुम मेरी लड़की के साथ यह जुल्म नहीं कर सकते। निकाह जबरन नहीं हो सकता। मैं किसी गुमनाम आदमी से अपनी लड़की का निकाह कभी नहीं होने दूंगा।’
रशीद बूड्ढे की कनपटी पर बंदूक की नाली रखते हुए कहता है, ‘$खामोश हो जाओ, वरना खोपड़ी उड़ा दूंगा।’ बूढ़ा कांपने लगता है। रोती हुई और गले में रुधी हुई भारी आवाज से कुछ बुदबुदाता है।
‘ऐ लड़की, जल्दी बोलो- कबूल । कबूल। वरना बूड्ढे के साथ तुम्हारी अम्मां और भाई को भी खत्म कर दूंगा। मौलाना जल्दी करो। लड़की रजामंद है।’
मौत के डर से घबराया और सहमा हुआ मौलवी नीची निगाहों से फिर सवाल करता है, ‘क्यों गुलजार बीवी आपको एक सौ रुपये की रकम के एवज, बतौर मेहर, रशीद मियां से निकाह कबूल है?’ रशीद के सब साथी लड़के शोर मचा देते हैं, ‘लड़की ने हां कर दी। शादी मंजूर है। कबूल-कबूल।’ लड़कों के शोरो-गुल में किसी को कुछ सुनाई नहीं देता। मौलवी निकाह पढ़ता है।
‘उठो शादी की दावत खिलाओ। दस्तरखान लगाओ। मेहमानों की खिदमत करो।’ लड़के खाने के लिए फिर शोर मचाते हैं।
आधी रात के अंधेरे में एक भी पड़ोसी गुलजार को रुखसत करने घर से बाहर नहीं निकलता। सब लोग लुटेरों के खौफ से अपने-अपने घरों में लिहाफों में दुबके मुंह छिपाये पड़े हैं सुबह होने की इंतजार में।
नकाबपोश लुटेरे कादर मियां की रोती कुरलाती बेटी को जबरन घर से बाहर घसीट रहे हैं। बूढ़ा कादर, उसकी बीवी और लड़का गुलजार को पकड़ते हैं। रु$खसत होने से रोकते हैं।
‘निकाह हो चुका है। यह मेरी बीवी है। गुलजार को खींचते हुए रशीद कड़क कर बोलता है। ये नहीं मानेंगे इस तरह।’ फिर गोलियों की दनदनाहट होती है। कादर मियां से गुलजार का हाथ छूट जाता है। रोती-चिल्लाती गुलजार को लुटेरे जीप में लादकर ले जाते हैं।

Advertisement

**

पौ फूटने पर गांववाले देखते हैं-कादर मियां के घर की जगह एक गरम राख के ढेर में कुछ टूटे हुए बर्तनों को जंगली कुत्ते इधर-उधर पलट रहे हैं। अधजली लाशें दफन के इंतजार में। कहां है कादर भाई की जोए-रिहायश। वह टाट के परदे वाला मकान जिसके आंगन में गुड्डे-गुड्यिों से खेलकर गुलजार इस बदनसीब जवानी की सीढिय़ां चढ़ी थी।
अस्मत को चीथड़ों में समेटती हुई  भूख और प्यास से कमजोर। वहशी दरिंदों के जुल्म से सतायी हुई, थकी-हारी एक रात की दुल्हन-गुलजार, अपने अब्बू और अम्मी की लाशों को टिकटिकी बांधे देख रही है। उस राख के ढेर के पास बैठी जो कभी उसका घर था, आश्रय था। बेबस गुलजार अपने अब्बू और अम्मी को सहारे के लिए बेतहाशा आवाजें देती है।
उसके हुसनो-शबाब की कसमें खाने वाले जवां मर्दों के इतने बड़े हजूम में उसका हाथ थामने वाला आज एक भी श$खस नहीं। चचेरे भाई, ममेरे और फुफेरे सब निगाहें नीची किये एक-एक करके आगे बढ़े चले जाते हैं। कुछेक आसमान की तरफ दो हाथ उठाकर एक नजर देखते हैं। गोया उसे अल्लाह के हवाले कर देते ।

Advertisement
×