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चम्पा

दिबेन भाई को पालने के लिए चम्पा ने बड़ा तप किया। सारी खेती अपने आप कराती रही। खेतों में खड़ी हो कर चम्पा ने भाई के भाग्य में सितारे तो तब जड़े जब गांव में चकबन्दी हुई। चकबन्दी अफसर को चम्पा ने अपनी बैठक में ठहरने का न्योता दिया तो वो इंकार नहीं कर सका। […]
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दिबेन

चित्रांकन: संदीप जोशी

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भाई को पालने के लिए चम्पा ने बड़ा तप किया। सारी खेती अपने आप कराती रही। खेतों में खड़ी हो कर चम्पा ने भाई के भाग्य में सितारे तो तब जड़े जब गांव में चकबन्दी हुई।
चकबन्दी अफसर को चम्पा ने अपनी बैठक में ठहरने का न्योता दिया तो वो इंकार नहीं कर सका।
चम्पा का बजबजाता यौवन! दमकता रूप! खौटी देहयष्टी! पांच फिट सात इंच की कद्दावर मजबूत चम्पा की ओर एक बार देखने के बाद उसका निमंत्रण विश्वामित्र भी नहीं ठुकरा सकते थे। वो तो बेचारा अदना-सा चकबन्दी अफसर था।
चम्पा की बैठक से जुड़े नोहरे में बन्धी कम से कम दो भैंसें और दो गाय हमेशा दूध देती थी। यानी एक भैंस दूध देना बन्द करे, उससे पहले ही दूसरी भैंस दूध देना शुरू कर देती। इसी प्रकार एक गाय ने दूध देना बन्द किया तब तक दूसरी गाय दूध देने लगी। इस तरह दुधारू पशु के दूध देने का सिलसिला उसके यहां चलता रहता था निरन्तर।
गाय का दूध चम्पा के अपने बच्चे और भाई जयनाथ पीता था। पियो दबाकर दूध! और कसरत करो! दंड पेलो और दूध पियो। घी खाओ चूरमा खाओ।
गांव के आये चकबन्दी अधिकारी महादान सिंह के सीने में चम्पा कहीं बहुत गहरे तक छेद कर गई थी। मधुमक्खी रानी की तरह डंक मार गई थी उनके सीने में। सांझ को चम्पा स्वयं उनके लिए खाना लेकर बैठक में आई थी। बैठक और हवेली में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं था। बीस कदम के फासले पर रही होगी पुरानी हवेली जिसमें चम्पा रहती थी। यूं तो टहलवा भी उनका खाना लेकर आ सकता था पर चम्पा ने यह काम स्वयं किया। यह एक बहुत बड़ा सम्मान था जो चम्पा ने अपने अतिथि को बख्श दिया था वरना दूसरे लोगों को वह आंख के इशारे से नचाती थी। हे महाराज झूठ मत बुलवाना। हमारी जुबान पर सरस्वती देवी को बैठाये रखना-गांव वाले चम्पा की कहानी दबी जुबान से सुनाते थे तो गला खोल कर हनुमान का जैकारा ऐसे ही लगाते थे।
चम्पा साहब का खाना लेकर बैठक में पहुंची तब बीसियों आदमी बैठक में साहब को घेरे बैठे थे। उसके पहुंचते ही सब के होंठ सूखने लगे।
लाला मुरारी भी इस भीड़ में थे और बड़े माचे पर अकेले बैठे थे। एक माचे पर अकेले चकबन्दी साहब और एक पर लाला।
लाला इलाके के सबसे बड़े बीस्वादार थे। गांव के बीसियों किसान उनकी धरती जोतते-बोते थे।
जयनाथ के बाप जिल्ले की मौत हुई तो लाला के दिल में उसकी धरती बस गई थी। उसे उम्मीद थी कि एक न एक दिन इस धरती पर भी उसी का हल चलेगा।
चम्पा गांव में आ गई तो लाला की यह उम्मीद तिल-तिल करके मरने में लग गई थी।
…और एक दिन जब चम्पा की गन्ध लाला के नथुनों में घुसी तो यह उम्मीद पूरी तरह दम तोड़ गई।
चम्पा की गन्ध से चम्पई हो गया था लाला।
‘मेरे भाई की धरती के बारे में कभी सोचना भी नहीं सेठ’ – चम्पा ने सेठ के सीने पर अपनी नाक रगड़ कर कहा था।
‘कैसी बात करती है चम्पा! तेरा भाई तो अब मुझे, तुझ से भी ज्यादा प्यारा हो गया है।’ मुरारी सेठ ने कहा था—‘उसके नाम लिखा सारा कर्ज आज माफ हुआ।’ …और सेठ चम्पा की गंध सुगन्ध में लोटपोट हो गया।
और जयनाथ के नाम खाते बही में चढ़ा उसका उधार खाता भी हमेशा के लिए मिट गया था।
‘जाइये आप लोग! अब साहब को दो रोटी खाने दीजिए।’ चम्पा ने कहकर बैठक की पलैहण्डी पर खाने की थाली रखी तो वहां बैठे लोग खिसकने लगे।
सेठ मुरारी चम्पा को निहार रहे थे और चम्पा खाने का सामान सजा रही थी।
बैठक खाली होने लगी थी।
महादान सिंह, जैसे चम्पा की गन्ध से बेसुध हो रहे थे।
‘आप की रोटी भी मंगा दूं सेठ!’ चम्पा ने माचे पर जमे मुरारी को चेताया।
‘नहीं! चलता हूं। घर पर मेरा इन्तजार हो रहा होगा।’ कह कर मुरारी भी माचे के नीचे उतारे हुए अपने जूते टटोलने लगा।
पानी का गिलास माचे के साथ रखी मेज पर रख कर चम्पा ने पानी की सुराही भी वहीं जमा दी – ‘हाथ मुंह धो लीजिए साब! बाल्टी और लोटा नाली के पास रखा है।’
महादान कहां खो गये थे, यह वो स्वयं नहीं जानते थे।
मुरारी लाला तब तक उठकर बैठक के दरवाजे तक आ गये थे पर उन्हें लग रहा था जैसे उनके पांवों में मन-मन के पत्थर बंध गये हैं। एक-एक कदम उठाना और फिर उसे आगे रखना उनके लिए भारी पड़ रहा था। आज से पहले गांव में आने वाला हर दरबारी, हर अधिकारी, हर सन्तरी, हर मन्त्री पहले उनके दरवाजे पर कोर्निश बजाता था। पर आज जैसा तो कभी नहीं हुआ था कि अफसर की खुशामद करने के लिए अपने ही गांव में उन्हें किसी दूसरी देहरी पर जाना पड़े और वहां से भी बेइज्जत होकर उठना पड़े गांव के मुजारों की तरह। मुरारी हमेशा इस गांव का राजा रहा है। हरमतपुर का शहंशाह। उसकी आंखों के इशारे समझ कर ही गांव में पंछियों ने अपने पर फड़फ़ड़ाये! अन्यथा यहां का पत्ता तक नहीं खड़खड़ाया।
मुरारी को आज पहली बार लगा कि गांव का मौसम बदल रहा है। नये पटवारी ने गांव में चम्पा के खाली पड़े एक पुराने मकान को अपना निवास बनाया था तो तब उसे इतना महसूस नहीं हुआ था। उसने इस बात को गंभीरता से लिया भी नहीं था हालांकि उसे तभी समझ जाना चाहिये था कि आकाश में हवा का दबाव बदल रहा है। इसलिए मौसम भी बदलेगा।
गांव की अंधेरी गलियों में लाला संभल-संभल कर चल रहा था। आज पहली बार उसे अन्धेरे का सामना अपने गांव में करना पड़ा था।
चम्पा ने हाथ-पांव पौंछने को साहब को तौलिया पकड़ाया। बैठक में बहुत ज्यादा रोशनी नहीं थी हालांकि सौ वाट का बल्ब जल रहा था। गांवों में बिजली के वोल्टेज कम रहने के कारण सौ वाट का बल्ब मोमबत्ती की तरह टिमटिमा रहा था। महादान साब को भी आज मालूम पड़ गया था कि गांव में हो तो सौ वाट का बल्ब दीये की तरह टिमटिमाता है, जबकि बड़े शहर में दीये को भी हस्तकला के नमूने के तौर पर इस तरह इज्जत बख्श दी जाती है कि लोग दंग रह जाते हैं।
महादान सिंह, जिनके सामने उनके मातहत क्या हुक्काम भी अपनी बात पूरी नहीं कह पाते थे, आज एक देहाती औरत-चम्पा के सामने कम वोल्टेज में सौ वाट के बल्ब की तरह टिमटिमा रहे थे।
उनका तेज लगता था सिमट कर या तो चम्पा में समा गया था या चम्पा के चेहरे के दर्प के आगे बुझ गया था।
‘जीमिये साब!’ चम्पा ने कहा।
भोजन की थाली माचे पर रखी थी। चम्पा ने उस पर ढका सफेद अंगौछा उठा दिया। महादान माचे पर पालती मार कर बैठ गये।
उनके नथुनों में गर्म खीर और घी में डूबी लोनी-रोटियों की महक, चम्पा की सुगन्ध में रल्ल-मल्ल होकर मॅह-मॅह करने लगी।
बिना कोई नशा किये ही उनकी आंखें मिचमिचा रही थीं। …कोशिश करने पर भी पूरी तरह खुल नहीं रही थीं।
‘आपने खाया?’ उन्होंने चम्पा से पूछा।
‘अरे! हम ऐसे कैसे खा सकते हैं! साब! घर में अतिथि भूखा बैठा हो और चम्पा खाना खाकर बैठ जाये तो अनरथ नहीं हो जायेगा।’ चम्पा ने उनके थोड़ा करीब आकर कहा-‘आप जीमना शुरू कीजिए। यही हमारा परम सौभाग्य है।’
उन्होंने खीर में चम्मच डुबाई तो ईलायची की सुवास से कमरा महक गया।
‘ठहरिये!’ चम्पा ने खीर में बूरा डाल कर कटोरे को गर्म ताए हुए घी से भर दिया-’शुरू कीजिए।’
उन्होंने घी-बूरा को खीर में रला मिला कर, चम्मच मुंह में रखा तो मुंह किशमिश और बादाम की गिरियों से पट गया।
बिना व्हिस्की के भोजन को कभी हाथ भी न लगाने वाले महादान साहब ने आज चम्पा के हाथों बना घी-दूध का भोजन डट कर खाया।
चम्पा ने आग्रह करके उन्हें घी में डूबी हुई रोटियां खिलाईं।
सादा निरामिश भोजन इतना स्वाद भी होता है, यह आज वो बहुत दिनों बाद महसूस कर रहे थे। पता नहीं दस साल पहले से या पन्द्रह साल पहले से उन्होंने घर में कभी ऐसा भोजन खाया नहीं था। अफसर बनने से पहले कभी खाया हो तो उन्हें याद नहीं आ रहा था।
उनके अहलमन्द और पेशकार के निवास का प्रबन्ध चम्पा ने पटवारी के साथ उसके निवास पर कर दिया था।
तृप्त हुए महादान।
चम्पा ने उनके हाथ धुलाये और तौलिया दिया।
‘आप दूध कितनी देर बाद पियेंगे?’ चम्पा ने पूछा और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना स्वयं ही कहा-‘एक घंटे बाद लेकर आऊंगी, सोना नहीं तब तक।’
महादान सिर्फ उसका मुखमण्डल निहारते रहे और एक मूक संगीत की धुन पर थिरकती उसकी देह की लय को महसूस करते रहे।
भोजन करा के चम्पा चली गई पर उसकी देहगन्ध से महादान मुक्त नहीं हो पाये।
टहलुवे ने साहब का बिस्तर लगा दिया।
महादान की भूख जैसे घी और दही से तृप्त होने के बाद और ज्यादा बढ़ गई थी।
बिस्तर पर लेटते ही उनकी आंखें झपक गईं। …हालांकि चम्पा ने कहा था कि सोना नहीं।
छह फिट के कद्दावर जवान थे महादान। गोरा रंग, तीखे नैन-नख्श और रौबीला चेहरा। बदन पर कीमती लिबास, गले में दस तोले की सोने की जंजीर। हाथ में सोने का कड़ा और अंगुलियों में हीरे की अंगूठियां।
घन्टे भर बाद चम्पा दूध लेकर आई तो वो बेसुध सोये पड़े थे।
‘सो गये साब!’ चम्पा ने उनके पांव को हिला कर कहा, ‘दूध नहीं पियेंगे।’
वो हड़बड़ा कर उठ बैठे।
चम्पा ने दूध का गिलास उन्हें थमा दिया।
बादाम और किशमिशों के साथ घी का छोंका लगा गर्म दूध।
उन्होंने एक-एक घूंट पूरा स्वाद लेकर पिया।
‘तुम्हारे खाने में नशा बहुत है चम्पा।’ उन्होंने कहा ‘खाकर भूख बढ़ती है और नींद आती है।’
‘तो पेटभर कर खाइयेगा न साब!’ चम्पा की हंसी में पायजेब के घुंघरुओं की खनखनाहट थी-‘कन्हैया जी की भूमि पर दूध, घी, दही और भोली भाली ग्वालिनों के अलावा और क्या मिलता है साब!’
…प्रसन्न हुए महादान।
‘तेरे भाई को मैं राजा बना कर जाऊंगा-चम्पा!’ उन्होंने कहा था।
और उन्होंने जयनाथ को सचमुच गांव का राजा ही बना दिया।
गांव के गऊ गौरे में जयनाथ को तीन सौ बीघा का एकमुश्त चक उन्होंने दिया और निकट के गांव पहलादपुर के वन क्षेत्र में तीन सौ बीघा का दूसरा चक दिया। इस तीन सौ बीघा धरती को ग्रामीण बनी कहते थे।
अपने निर्णय की घोषणा उन्होंने गांव के सभी लोगों को इकट्ठा करके की। पहलादपुर गांव के 300 बीघा वन क्षेत्र की लकड़ी और पेड़ गांव सभी के रहेंगे। अपने खर्च पर गांव सभा इन वृक्षों को कटवा कर जैसा चाहे उपयोग में ला सकती है पर जयनाथ की धरती गांव सभा को छह महीने के भीतर ही खाली करके देनी होगी। यदि गांव सभा इन वृक्षों को तय समय सीमा में नहीं कटवायेगी तो धरती की वन सम्पदा का स्वामी भी जयनाथ हो जायेगा।’ उन्होंने निर्णय सुनाकर इसकी नकल गांव सभा के प्रधान मुरारी लाला को थमा दी।
कन्हैया जी की धरती पर जीत तो राधा रानी की ही होती है। यहां भी वही हुआ।
निर्णय की प्रति हाथ में लिये लाला मुरारी के चेहरे पर कालिख के अलावा कोई रंग नजर नहीं आ रहा था।

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