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अम्मा से मॉम

अम्मा से मॉम या मॉमी बनने तक के सफर में मांओं की भूमिका में कितना कुछ बदल गया है। मगर भूमिका ही क्यों, उनकी दुनिया में भी तो ज़मीन-आसमान का अंतर आ चुका है।

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अलका कौशिक

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अम्मा से मॉम या मॉमी बनने तक के सफर में मांओं की भूमिका में कितना कुछ बदल गया है। मगर भूमिका ही क्यों, उनकी दुनिया में भी तो ज़मीन-आसमान का अंतर आ चुका है। वह दुनिया जो कभी सिर्फ घर की दहलीज़ के इस पार सिमटी रही थी अब कभी समंदर पार किसी बोर्डरूम में तनाव में घिरती है, कभी खेल के मैदान पर एक-एक सेकंड की दूरियों से हार-जीत के फैसलों के उल्लास या निराशा के दौर झेलती है तो कभी क्लाइंट-बॉस की फटकार के कड़वे घूंट पीती है या कभी शतरंज की बिसात पर फिसलती उंगलियों से एक मायाजाल बुनती है। मां के रोल को सिर्फ घर-आंगन लीपते हुए चूल्हे पर कभी रोटियां सेंकते तो कभी उंगली जलाते हुए या पीटीएम में बच्चे की उंगली थाम स्कूल में हाजिरी देने वाली पारंपरिक तस्वीरों के आइने में अब नहीं समझा जा सकता। आधुनिक मातृत्व निरूपा रॉय के ज़माने की कुर्बानी या समर्पण का पर्याय नहीं है। उसमें ख्वाहिशों, आकांक्षाओं, अरमानों से लेकर बेफिक्री, मस्ती, बिंदासपन, बेख्याली, बेतरतीबी या यूं कह लो कि अपने लिए भी जी लेने की अदम्य इच्छा का घालमेल हो चुका है।

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बदल रहा है मदरहुड का मिजाज़
नई शहरी मां को नैपी सिलने या बच्चे के लिए गुदड़ी तैयार करने, जुराबें-कनटोप बुनने जैसी कितनी ही आफतों से आजादी मिल चुकी है। उसकी रातों की नींद का इंतज़ाम करने के लिए डायपर हैं तो उसकी ऑनलाइन और ऑफलाइन दुनिया को आबाद रखने के लिए घर पर मेड-कुक-नैनी की एक बड़ी फौज भी है। आधुनिक मां अब नए हेयरकट में अपनी प्रोफाइल पिक्चर उसी फ्रीक्वेंसी से बदलती है जैसी मां बनने से पहले किया करती थी तो हैरानगी नहीं होती। यहां तक कि मां बनने का ऐलान अब अस्पताल के बेड से ही वह खुद करती है तो भी किसी को अचरज नहीं होता। वे ज़माने लद गए जब डिलीवरी के बाद आंख के बारीक काम न करने की ताकीद नई मां को की जाती थी और उस हुक्म की तामील भी उतनी ही शिद्दत से होती थी। स्मार्टफोन और इंटरनेट ने मातृत्व के गुमनाम संसार को ऑनलाइन परोसने में अहम भूमिका निभायी है। होममेकर लिपि जोशी नए दौर में मांओं की बदलती इमेज पर अपने जज़्बात को कुछ इस अंदाज़ में पिरोती हैं- ‘न्यू एज मॉम को अब सी-सैक्शन के बाद अपने टांके खुलने से भी पहले दुनिया के सामने अपनी उपलब्धि का जश्न मनाने की बेकरारी रहती है। घंटे भर पहले जन्मे बच्चे की तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर कर लाइक्स बटोरने की इस आधुनिक मां की बेचैनी में अब किसी को भी कुछ भी गलत नहीं लगता। अब यह अलग बात है कि मां की जिस ‘अनडिवाइडेड अटेंशन’ का हकदार नवजात होता है, वह स्मार्टफोन की भेंट चढ़ चुकी है।’ फिल्ममेकर आरती जैन कहती हैं- ‘लेकिन इसमें गलत भी क्या है, सदियों से शादी-ब्याह, मातृत्व जैसे माइलस्टोन औरत की महत्वाकांक्षाओं पर छुरी चलाने का काम करते आए हैं। बच्चा होने के बाद तो उसे कितनी ही कुर्बानियों से गुजरना पड़ता है। नींद, भूख, आराम तो एक तरफ हैं, कहीं वह अपने अवसाद को झेलती है तो कहीं खुद अपने हाथों अपने करिअर-पोज़िशन की समिधा बनाकर बेरहम वक्त के हवन-कुंड के हवाले करती रही है। आधुनिक वक्त में अगर डायपर जैसी ‘इनोवेशन’ उसे रात भर भरपूर नींद लेने की लग्ज़री दे सकती है तो उसे ‘आरामपसंद’ कहकर धिक्कारा नहीं जाना चाहिए। इसी तरह, अगर वह घर-परिवार के सपोर्ट सिस्टम के दम पर घर से बाहर मूवी-एग्ज़ीबिशन देखने जाती है, डिस्को-पब की रंगीनियों में कुछ वक्त बिता लेती है, दोस्तों के संग लंच पर निकलने की सुविधा लेती है तो इसके लिए उसे स्वार्थी या मतलबखोर जैसी उपाधियों से नवाज़ा नहीं चाहिए।’

मॉमी ग्रुप और एप्स- मदरहुड का ऑनलाइन संसार
मातृत्व की नाजुक दुनिया को संभालने के लिए कभी दादी-मां के नुस्खे कारगर हुआ करते थे। अब एकल परिवारों का चलन है, सिंगल मदरहुड का दौर है और ऐसे में बच्चे के लालन-पालन की जिम्मेदारी जब आधुनिक मांओं पर पड़ती है तो बहुतों के लिए यह बौखला देने वाला समय होता है। घर-परिवार में बड़े-बूढ़े नहीं, पास-पड़ोस से आदान-प्रदान का ज़माना खत्म हुआ और ऐसे में नवजातों के मामले में अकेली मां या नए पैरेंट अक्सर छोटी-छोटी परेशानियों को भी बड़ी मुसीबत समझ बैठते हैं। उनके लिए ही अब इंटरनेट पर मातृत्व की राह आसान बनाने के लिए आ चुकी हैं कितनी ही वेबसाइटें, सोशल मीडिया ग्रुप्स और यहां तक कि कई एप्स भी। मातृत्व और बच्चों के लालन-पालन के विषयों पर लिखने वाली लोकप्रिय ब्लॉगर प्रेरणा सिन्हा कहती हैं- ‘फेसबुक पर सैंकड़ों मॉमी ग्रुप सक्रिय हैं जिन पर दिन-रात छोटी-बड़ी परेशानियों से लेकर खुशनुमा लम्हों तक को मांएं खुलकर शेयर करती हैं। एक-दूसरे को अपने-अपने अनुभवों से जानकार बनाने की इन ग्रुप्स की कोशिश काबिले-तारीफ है। कभी देर रात बच्चे की किसी तकलीफ का समाधान सुझाने में इन ग्रुप्स पर बढ़-चढ़कर मश्विरा देने वाली माएं मुझे दादी-नानी के अभाव को दूर करने वाली दिखती हैं। लेकिन फिर जब मांओं को घंटों अपने स्मार्टफोन या टैबलेट की स्क्रीन से चिपके हुए, इन ग्रुप्स पर लंबी-लंबी बातचीत-बहसों में उलझे देखती हूं तो लगता है कि अपने मूल उद्देश्य से कहीं भटक रहे हैं ये मंच। वह मकसद था एक नई मां को, पहली बार मां बनी औरत को या किसी भी मां को उसके नवजात शिशु या बढ़ते-जवान होते बच्चे से जुड़े किसी भी सरोकार के बारे में जानकारी देने का ताकि उसकी परवरिश सही तरीके से हो सके। परवरिश का मसला सिर्फ सुझाव या हिदायतों को हासिल कर लेने से हल नहीं होता बल्कि उनको अमल में लाना भी होता है। मगर सोशल मीडिया की तो फितरत ही कुछ ऐसी है कि वह लोगों को असल दुनिया से दूर उलझा देता है। और इस तरह आॅनलाइन ग्रुप्स या एप्स से ढेरों सबक-कायदे सीखने वाली कितनी ही मांओं के पास उन्हें असल में आजमाने का जुनून मुझे नहीं दिखता।’

दुनिया नापता मातृत्व
आईटी की दुनिया से गुड़गांव के अपार्टमेंट में बच्चों की नर्सरी तक का सफर वंदना के लिए बेहद सहज रहा है। अपने पांच साल के जुड़वां बच्चों को पति की देखरेख में छोड़कर हर साल तीन-चार महीने सिंगापुर में अपनी कंपनी मुख्यालय में उसका आना-जाना तभी से लगा रहा है जब मैटरनिटी अवकाश के बाद वह काम पर लौटी थीं। कंपनी ने उसे वर्क फ्रॉम होम की सुविधा इस शर्त के साथ दी कि साल के कुछ महीने उसे ‘ऑफशोर’ टीम का हिस्सा बनकर बिताने होंगे। मकान-कार की ईएमआई ने घर में दोहरी आमदनी के समीकरण को कभी का स्वीकार्य बना दिया था, लिहाज़ा इस युवा जोड़े के लिए इस आफर को हाथों-हाथ लेने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। जब वह विदेश में रहती है तो पति वर्क फ्रॉम होम का विकल्प लेकर घर-परिवार की जिम्मेदारी निभाता है। शहरी दुनिया में ऐसे किस्से अब अपवाद नहीं हैं। घर-घर में तालमेल की यही कहानी दिखती है। अगर कुछ बदला है तो औरत का काम करने का अंदाज़ जिसने उसे दुनियाभर में कहीं भी, कभी भी आने-जाने की आज़ादी दी है। हालांकि हर कोई, हमेशा ऐसे विकल्पों को अपनाता हो, यह जरूरी नहीं है। कितनी ही महिलाएं हैं जो आज भी मां की भूमिका में खुद को सफल बनाने के लिए अपने जमे-जमाये करिअर को त्यागती हैं।

मां से करिअर वुमैन तक की दौड़
अभी एकाध दशक पहले तक मातृत्व को अगर बेलगाम भावनाओं का पर्याय समझा जाता था तो आज की मां को आत्मविश्वास से लबरेज़ करिअर वुमैन के तौर पर पर देखा जाने लगा है। वह अर्थव्यवस्था में अपने योगदान को पुरुषों के मुकाबले कतई कमतर नहीं आंकना चाहती है। खुद को तवज्जो देने वाली इस आधुनिक मां के करिअर ग्राफ में नौकरी का अवसर उसे घर-परिवार से दूर ले जाता है तो भी उसे संकोच नहीं होता। वह घर और समाज में अपने रुतबे के बीच तालमेल बैठाती है या कम से कम ऐसा करने की भरपूर कोशिश करती है। स्काइप-वीडियो कॉल से बच्चों को ट्यूशन पर जाने की ताकीद देती मांएं, स्वीमिंग क्लास के लिए याद दिलाती मांएं, फेसटाइम कर गुडनाइट बोलती मांएं और यहां तक कि ईमेल-व्हाट्सएप के जरिए बच्चों का टाइम-टेबल सेट करने वाली मांएं अब आम हैं तो उसकी बड़ी वजह है करिअर को भी उतना ही महत्व देने वाली महिलाएं जितना वे अपनी घर-परिवार को देती हैं।
अपने सीमित समय में सब कुछ पा लेने की असीम ख्वाहिशों का समंदर उसके सीने में हरहराता है। कुल जमा चौबीस घंटे में बच्चों का लालन-पालन, स्कूल, होमवर्क, घर की जिम्मेदारियां, दफ्तर-कारोबार का दबाव और इन सबसे उपजे तनाव-बोरियत को दूर करने का एक अनोखा तोड़ आज उसे ऑनलाइन संसार ने सौंपा है। छोटी से छोटी बात, बिगड़ा मूड, बहकते अरमान, पति से अनबन, मिड लाइफ क्राइसिस, डिलीवरी के बाद घिरता अवसाद, मौसम का मिजाज़, पड़ोसी से तकरार, बुजुर्गों की बीमारी, बच्चों की जिद… क्या नहीं है जिसके बारे में इंटरनेट की लहरों पर सवारी कर वह दूर नहीं निकल जाती। हर मुसीबत को बांटने के लिए सपोर्ट ग्रुप हैं, सलाह-मश्विरा देने वाली वेबसाइटे हैं, अनुशासित जिंदगी की घुट्टी पिलाने वाली एप्स हैं, दोस्तों और यहां तक कि अनजान लोगों के संग बतियाने के लिए चैट बॉक्स हैं। आज की मां उतनी अकेली नहीं रही जैसी पहले ससुराल में वह हो जाया करती थी। आज उसके पास रेसिपी से लेकर दिल का हाल शेयर करने वाले कितने ही माध्यम हैं। और साथ ही उसके पास है जिंदगी में नया प्रयोग करने का जज़्बा जिसके दम पर वह कभी अपने नन्हे-मुन्ने को परिवार के पास छोड़कर सात समंदर पार नौकरी का फैसला चुटकियों में कर लेती है तो कभी अकेले ही बच्चों को लेकर चल पड़ती है उन्हें दुनिया दिखाने।

मदर्स डे
आज मदर्स डे है। हफ़्तों पहले से एलिमेंट्री स्कूलों में टीचर्स मदर्स को भेंट करने के लिए बच्चों से क्राफ़्ट, स्कैच, कार्ड, वग़ैरह बनवाने लगी थीं। स्टोर भी हर उम्र की मांओं के लिए एक से बढ़ कर एक उपहारों का विज्ञापन करने लगे थे। बच्चे व उनके पिता आज ‘मां’ को पूरा आराम देने की कोशिश करेंगे। मां को बिस्तर में ही चाय-नाश्ता पहुंचाया जाएगा। फूलों से, छोटे-बड़े उपहारों से उसे निहाल किया जाएगा। घर के छोटे-मोटे काम निबटा रखे जाएंगे। उसे कहीं घुमाने, मूवी या शो दिखाने ले जाया जाएगा। यानी कि मां को हर तरह से स्पेशल फ़ील कराने की पूरी कोशिश की जाएगी। मां है कौन? उसका वजूद किसलिए है? बच्चों से क्राफ़्ट वर्क करवाने से पहले एक टीचर ने उनका मन टटोलने की कोशिश में सवाल किए तो बड़े दिलचस्प जवाब मिले!
भगवान ने ‘मां’ को कैसे बनाया?
-जैसे मुझे बनाया लेकिन बड़े पार्ट्स से। ज़्यादातर नर्म चीज़ों से जिनमें बहुत सी सख़्ती भी भर दी।
भगवान ने ‘मां’ को क्यों बनाया?
-घर साफ़ रखने के लिए। खोई चीज़ें ढूंढने के लिए।
‘मां’ जब छोटी थी तब कैसी थी?
-क्या मालूम, मैं वहां नहीं था। कहते हैं कि वह अच्छी थी लेकिन मुझे लगता है कि तब भी वह बहुत कुछ आज जैसी रही होगी।
ख़ाली वक़्त में ‘मां’ क्या करती हैं?
‘मां’ के पास ख़ाली वक़्त होता ही नहीं।
तुम्हारे घर में बॉस कौन है?
‘मां’। एक वही है जिसे पलंग के नीचे की गंदगी भी दिख जाती है।
‘मां’ की कोई कौन सी बात बदलना चाहोगे?
कमरा साफ़ रखने के लिए वह मेरे पीछे न पड़े। उसके सिर के पीछे छिपी जो आंखें हैं वे ग़ायब हो जाएं।
‘मां’ और डैड में क्या फ़र्क़ है?
डैड बाहर काम करते हैं। ‘मां’ काम करने बाहर भी जाती है और घर आकर भी काम ही करती है। डैड ज़्यादा लम्बे और तगड़े हैं लेकिन असली हुक्म ‘मां’ का चलता है। उसके पास जादू है और वह बिना दवाई लगाए फूंक से भी चोट का दर्द भगा सकती है।

इंदिरा मित्तल

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