तारणहार गुरु नानक साहिब
डाॅ. सत्येंद्रपाल सिंह
इंसान या समाज के सामने समस्याओं का होना सामान्य बात है। समस्याओं के निराकरण के प्रयास किये जाते हैं, राह निकाली जाती है, सुव्यवस्था स्थापित की जाती है, किंतु समस्याएं तब विषम हो जाती हैं जब उनके मूल का ही पता न हो। रोग कुछ होता है, उपचार कुछ किया जाता है। रोगी व वैद्य दोनों ही भ्रमित होते हैं, अज्ञानी होते हैं। लक्षणों को ही रोग मान लिया जाता है। यह आदि काल से होता रहा। इससे मनुष्य के दुख कम होने के बजाय बढ़ते गये। समाज व्यवस्थित होने के बजाय टूटता गया। श्री गुरु नानक साहिब की ईश्वरीय दृष्टि ने इसे सहज ही जान लिया :
वैदु बुलाइआ वैदगी पकड़ि ढंढोले बांह।।
भोला वैदु न जाणई करक कलेजे माहि।
गुरु साहिब के आगमन के समय संसार विचित्र दौर से गुजर रहा था। अज्ञानी वैद्य चारों ओर भरे हुए थे। लोग त्राहि-त्राहि कर रहे थे। श्री गुरु नानक साहिब ने कहा कि पहले तो मनुष्य और समाज के रोग की पहचान हो। उसके बाद सटीक निदान भी ढूंढ़ लिया जाये। बिना रोग पहचाने उपचार करने का कोई अर्थ नहीं था। गुरु साहिब ने रोग की पहचान समाज की अज्ञानता के रूप में की : गिआन विहूणी भवै सबाई।
श्री गुरु नानक साहिब के अनुसार अज्ञान सबसे बड़ा अंधकार था। इस घोर अंधकार में मनुष्य न खुद को देख पा रहा था, न परमात्मा को। जिसके पास शक्ति थी, वह मनमानी पर उतारू था। गुरु साहिब का आगमन एेसे अंधकार को दूर करने वाले प्रकाश की तरह था-
सतिगुरु नानक परगटया
मिटी धुंध जगि चानण होआ।
जिउ करि सूरज निकलिआ
तारे छपि अंधेरु पलोआ।
गुरुद्वारा ननकाना साहिब : प्रकाश स्थान श्री गुरु नानक देव
श्री गुरु नानक साहिब जिस ज्ञान के प्रसार के लिए आये, उसने अज्ञान के अंधेरे को इस तरह दूर किया जैसे जब आकाश में सूरज निकलता है तो अंधकार मिट जाता है। भाई गुरदास जी ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा कि श्री गुरु नानक देव जी जहां-जहां भी गये वहां लोग उनके अनुयायी बन गये, उनके विचारों को धारण करने लगे। घर-घर में धर्म का प्रकाश फैल गया और लोग परमात्मा के यश का गायन करने में रम गये। यह शायद संसार का सबसे कठिन कार्य था जिसका संकल्प लेकर गुरु साहिब इस धरती पर आये थे। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अंधविश्वासों को तोड़ने की थी, जिसके बिना परमात्मा के प्रति विश्वास पैदा होना संभव नहीं था। बाल्यकाल से ही गुरु साहिब अपने संकल्प को सिद्ध करने को उन्मुख हो गये। वे शिक्षकों के पास शिक्षा के लिए गये, तो उस शिक्षा की सार्थकता पर सवाल उठाये जो रस्मी बन गयी थी। शिक्षा एेसी नहीं थी जो मानवीय गुणों की प्रेरणा दे सके और परमात्मा के सच्चे स्वरूप के साथ जोड़ सके। लोग शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, किंतु ज्यादातर अंतर के विकारों के कारण मूर्ख ही सिद्ध हो रहे थे- पड़िआ मूरखु आखीएे जिसु लबु लोभु अहंकारा।
इसका कारण था कि जिन लोगों पर समाज को आगे ले चलने की जिम्मेदारी थी, वे खुद अयोग्य और अवगुणों से भरे हुए थे। एेसे लोग दूसरों को ठगने में लगे हुए थे। गुरु साहिब ने इन पर कठोर प्रहार किया। बाल्यकाल में गुरु साहिब जिस पांधे, उस्ताद के पास गये, उसका उद्धार हो गया। गुरु साहिब के ज्ञान के प्रकाश सेे उनकी चेतना जाग उठी और वे नतमस्तक हुए। वे बच्चों से वर्णमाला लिखाया करते थे। गुरु साहिब ने किसी और ही स्याही, कलम तथा कागज की बात की, जिससे वे वास्तविक लेख लिख सकें :
जालि मोहु घसि मसु करि मति कागदु करि सारु। भाउ कलम करि चितु लेखारी गुर पुछि लिखु बीचारु। लिखु नामु सालाह लिखु लिखु अंतु न पारावारु।
श्री गुरु नानक साहिब ने कहा कि विद्या एेसी हो जो मनुष्य को गुणवान बनाने वाली और परमात्मा के साथ जोड़ने वाली हो। उन्होंने कहा कि मनुष्य विकारों को जलाकर घिसे और इससे स्याही तैयार करे। अपनी बुद्धि को लिखने वाला साफ सफेद कागज बना ले। भावनाओं की कलम बनाये और शुद्ध मन को लेखक बनाये। वह एेसे लेख लिखे जो परमात्मा के अनुकूल हों। गुरु साहिब की दृष्टि में शिक्षा का अर्थ था- विकारों से मुक्ति, शुद्ध मति, भावों की पवित्रता, सम्पूर्ण समर्पण और परमात्मा की आज्ञा का पालन। इससे जीवन सच्चा फल देने वाला बन जाता है और मनुष्य परमात्मा में गहरे रमता जाता है।
तोड़े अंधविश्वास
गुरु साहिब ने जीवन भर जो भी सवाल उठाये वे सच को उजागर करने के लिए थे, परमात्मा के सच्चे स्वरूप के दर्शन कराने के लिए थे और परमात्मा के साथ जोड़ने के लिए थे। गुरु साहिब ने सवाल भी उठाये और उत्तर भी दिये। उन्होंने विकल्प सामने रखे, जो राह खोलने वाले और सच तक ले जाने वाले थे। सदियों से चले आ रहे अंधविश्वास तोड़ने के लिए गुरु साहिब ने ज्ञान का प्रयोग खड़ग की तरह किया। यह उनका अद्भुत ढंग था, जिससे सारा विश्व बदलने लगा। अंधविश्वासों और रूढ़ियों को तोड़ना आसान नहीं था, यह गुरु साहिब को भली-भांति पता था, इसीलिए जब उन्हें जनेऊ पहनाया जाने लगा तो उन्होंने एेसे जनेऊ की मांग की जो कभी मैला न हो, कभी टूटे नहीं। गुरु साहिब ने कहा कि एेसा जनेऊ बनाया जा सकता है। इसे बनाने की विधि बताते हुए उन्होंने कहा कि दया की कपास से संतोष का सूत बनाया जाये, जिसमें संयम की गांठें और सच के बल दिये जायें। गुरु साहिब नेे कहा कि वे मनुष्य धन्य हैं जो एेसा जनेऊ धारण करते हैं। मनुष्य के लिए गुण महत्वपूर्ण हैं और यही उसके सच्चे ज्ञान तथा धर्म के प्रतीक हैं। गुरु साहिब ने कहा कि अवगुण और अधर्म मन के अंदर बस रहा है-
एक नगरी पंच चोर बसीअले बरजत चोरी धावै।
त्रिहदस माल रखै जो नानक मोख मुकति सो पावै।
खुद को पहचानो…
श्री गुरु नानक साहिब परमात्मा रूप थे। उन्हें खुद को व्यक्त करने की न तो कोई आवश्यकता थी, न कोई विवशता। उन्होंने लोगों को प्रेरित करने के लिए खुद के आचरण को प्रकट रूप से स्थापित किया। गुरु साहिब ने राय भोय की तलवंडी में सच्चा सौदा किया, पिता की डांट सही। सुलतानपुर लोधी में तेरा-तेरा बोलते हुए तराजू तौलते गये और झूठी शिकायतों का सामना करना पड़ा। हर परिस्थिति में वे अडोल, अचल और सहज रहे। परिस्थितियां झुकीं और सच अजेय रहा। लोगों का अज्ञान तोड़ना आवश्यक था। उन्होंने संदेश दिया कि परमात्मा की राह कठिन है। माया, विकारों में लिप्त संसार को यह कभी भी नहीं सुहाई है- ‘भगता तो सैसारीआ जोड़ कदे न आइआ।’
गुरु साहिब ने संसार को सचेत किया कि धर्म की राह पर चलना सिर को तली पर रखकर चलने के समान है। इस मार्ग पर चलने के लिए किसी भी बलिदान के लिए तैयार रहना होगा। गुरु साहिब ने जिस मार्ग की बात की वह ज्ञान को धारण करना था। पहला ज्ञान था अपने आप को पहचानना।
मनुष्य जब तक अपने मूल परमात्मा को नहीं समझ लेता, उसका हित नहीं है। अपने को पहचान कर ही परमात्मा को पाया जा सकता है :
चीनहु आपु जपहु जगदीसरु
हरि जगंनाथु मनि भाइआ।
(गुरमति ज्ञान से साभार)