Tribune
PT
Subscribe To Print Edition About the Dainik Tribune Code Of Ethics Advertise with us Classifieds Download App
search-icon-img
Advertisement

सुर्ख शालू

कहानी

  • fb
  • twitter
  • whatsapp
  • whatsapp
featured-img featured-img
चित्रांकन संदीप जोशी
Advertisement

मैं अंदर ही अंदर तीखे दर्द से कराह उठा। सीतो का अफसोस करने लगा। बुआ का पुत्र बता रहा था, ‘जब मधुमक्खियों ने उसको घेर रखा था, वह किसी बब्बी का नाम ले लेकर पुकार रही थी।’ मैं उस पल बुआ के पुत्र के पास बैठा होने के बावजूद मानो उसके पास नहीं बैठा था… मैं तो खेतों में टिड्डियां उड़ाने जा लगा था।

बात बहुत पुरानी है। तब की शायद जब बाबा आदम ने वर्जित फल चख लिया था। और वह बात आज तक चली आ रही है।

इस बार भारत आया था तो यह बात, मेरे साथ ही एक हसरत बनकर आ गई थी।

Advertisement

...तब मैं पागलों की तरह शोर मचाता हुआ खेत में इधर-उधर भागता फिर रहा था। हाथ में पकड़ा कनस्तर डंडे से पीटे जा रहा था। आसपास के सभी लोग खेतों में मेरी तरह ही हो-हल्ला मचाते घूम रहे थे। चारों तरफ टिड्डियां ही टिड्डियां थीं। पिछली सदी के पचासवें दशक में टिड्डियों का प्रकोप शुरू हुआ था। कुछ सालों बाद टिड्डी दल अक्सर ही हमला बोलने लगे। पूरा आसमान टिड्डियों से ढका होता था। लगता था, काली आंधी आई हो। मैं शोर मचाता कनस्तर पीटता मक्की की फसल में से टिड्डियों को उड़ा रहा था। वे जहां कहीं भी बैठ जातीं, फसल चट कर जाती थीं। मक्की की फसल अभी बालिश्त भर ही हुई थी। मैं अकेला ही करीब छह कनाल के खेत में टिड्डियों को नीचे उतरने से रोक रहा था। तब पंजाब में चकबंदी नहीं हुई थी। कोई खेत कहीं था और कोई कहीं। सारा परिवार अलग-अलग खेतों में टिड्डी उड़ाने गया हुआ था। इस पश्चिम दिशा वाले खेत में मुझे भेजा गया था।

Advertisement

पूरा प्रयास रहता था कि टिड्डियों को एक जगह बैठने न दिया जाए, पर वे तो असंख्य होती थीं। उनको अपनी मर्जी करने से रोकना असंभव-सा ही लगता था। मैं तब नौवीं कक्षा में पढ़ता था। मुझे मेरे माता-पिता ने जैसे कहा था, हुक्म बजा रहा था। दौड़-दौड़कर खेत के कोने-कोने में जाता और अपनी फसल को बचाने की जी-तोड़ कोशिश करता।

अचानक कानों में किसी की चीखें सुनाई दीं। मैंने देखा साथ वाले खेत में एक लड़की डर के मारे चीख रही थी। हाथ में पकड़ा हुआ उसका टीन भी नीचे गिर गया था। उसकी दर्दनाक चीख सुनकर मैं उस तरफ दौड़ा। लड़की के पूरे शरीर पर टिड्डियां बैठी हुई थीं और वह नीचे गिरी पड़ी थी। मैंने अपना साफा मार-मार कर टिड्डियां हटा दीं। फिर भी कोई न कोई टिड्डी जब उसके शरीर को छू जाती तो वह सहम जाती। चीखने लगती।

उस घड़ी पता नहीं क्यों, मेरे लिए फ़सल को नहीं, लड़की को बचाना जरूरी हो गया था। वह हमारे गांव की लड़की थी—सीतो। मेरे से एक जमात पीछे पढ़ती थी। टिड्डियों से डरती वह मेरी ओर यूं देख रही थी, मानो मैं कोई परोपकारी हूं। चारों तरफ टिड्डी दल आंधी की भांति सायं-सायं कर रहा था। वह टिड्डी को अपने करीब आते देख घबरा उठती थी। उस पल मेरा धर्म बन गया था कि एक भी टिड्डी सीतो के शरीर को न छूने पाए। पर मेरा वश नहीं चल रहा था। तभी मैंने उसको अपनी बांहों में उठा लिया। वह भयभीत-सी मेरी बांहों में सिमट गई।

मैं उसको लेकर साथ वाले ईख के खेत में घुस गया। ऊंची खड़ी ईख में टिड्डी दल का नीचे धरती तक पहुंचना कठिन था। हम दोनों नीचे सिमट कर बैठ गए। काफी देर बैठे रहे। टिड्डी दल हमारे सिर के ऊपर से गुज़रता रहा, कई घंटों तक। हम आपस में कुछ नहीं बोल रहे थे, सटकर बैठे थे। शरीरों का स्पर्श था, एक-दूसरे को निहारना था।

उस घड़ी टिड्डी दल का हमारे सिरों पर शामियाना बन गया और हमारे इर्द-गिर्द खड़ी ऊंची ईख-कनातें। ठीक इन्हीं पलों में वही बात हो गई, जो बाबा आदम के वर्जित फल खाने के वक्त हुई थी।

अंधेरा होने पर हम अपने-अपने घर लौट गए। टिड्डी दल जा चुका था। कुछ दिनों बाद गांव में शोर मचा कि टिड्डियों ने गांव के चौ में अंडे दिए हैं। उन अंडों के टिड्डी बनने से पहले-पहले धरती में से खोद कर निकालने का सरकारी हुक्म आ गया था। स्कूल के बच्चों को भी इन अंडों को निकालने के लिए जाना पड़ा। हमें अंडों के वजन के हिसाब से पैसे दिए जाने थे। हम अपने झोले उठाए खुरपियों से खोद कर अंडे निकालने चले गए। वे अंडे परस्पर जुड़े हुए ऊंगली जैसे प्रतीत होते थे। शाम तक मैंने अपना झोला अंडों से लगभग भर लिया। पैसों का लालच जो था! मैंने देखा, मिस्त्रियों की सीतो अंडे खोदती-खोदती मेरे पास आ गई थी। वह थोड़ा मायूस लगती थी। उसे ज्यादा अंडे नहीं मिले थे। उसका झोला मुश्किल से अभी आधा ही भरा था। जब लौटने का समय हुआ, मैंने अपने झोले में से बहुत सारे अंडे उसके झोले में डाल दिए। उस पल सीतो ने अहसान और खुशी के मिले-जुले भाव के साथ मेरी तरफ देखा था।

और फिर हमारे बीच एक मूक दास्तान चल पड़ी थी।

जब कभी राह में, गली में हमारी नजरें मिलतीं, महीन मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाता। वह देखती और नजरें झुका लेती…, दिल के अंदर तरंगें उठने लगतीं।

…कभी दिवाली पर गुरद्वारे में दीये जलाते हुए उसका चेहरा रोशनी में दीपदिपाता नज़र आ जाता। कभी राह में सिर पर बापू के लिए रोटी उठाए जाती हुई मिल जाती। आंखें मिलतीं तो उसका रंग सिंदूरी हो जाता। कभी दिन-त्योहार पर हमारे बोल भी साझे हो जाते, बस।

उन दिनों गांवों में ऐसे रिश्ते वर्जित ही होते थे। कभी जी भरकर मुलाकात हुई ही नहीं। टिड्डी दल रोज-रोज कब आते हैं। वो तो कभी-कभार बरसों बाद ही आते हैं।

मैं अभी कालेज में पढ़ता था, जब उसका विवाह हो गया। हम बारात के लिए चांदनियां लगा रहे थे। वह शादीवाला सुर्ख शालू ओढ़े जब मेरे पास से गुजरी तो उसने मेरी तरफ देखा। आंखें मानो आंसुओं को छिपा रही हों…, अधरों पर हया का ताला।

उस पल एक टीस-सी मेरे अंदर उभरी। और वह ससुराल चली गई। फिर कभी नहीं मिली।

मैं पढ़ाई पूरी करके नौकरी पर लग गया। शादी हो गई। बच्चों वाला परिवार हो गया। हर खुशी नसीब हुई। मेरी पत्नी ने मेरा जीवन स्वर्ग बना दिया। जिन्दगी से कभी कोई शिकवा नहीं हुआ। दौलत का भी कभी अभाव नहीं रहा। जीवन में हर सुख प्राप्त हुआ। शहर में ही कोठी बना ली। मां-बाप के परलोक सिधारने के बाद गांव से रिश्ता ही टूट गया। बेटे अमेरिका पढ़ने चले गए, वहीं सैट हो गए। मैं रिटायर हुआ, तो बेटों ने हमको अमेरिका बुला लिया। इतने वर्षों के सफ़र में सब कुछ होते हुए भी सीतो हमेशा मेरे ज़हन में मौजूद रही। उसका वो निहारना, उसकी वह मुस्कान सदैव पीछा करती रही। किसी शिकवे की तरह नहीं, एक सुखद अहसास की तरह…।

जिन्दगी में उसकी एक झलक पाने की कामना हमेशा दिल में रेंगती रही।

पिछले साल जीवन-संगिनी का साथ छूट गया। वह दिल के दौरे से चल बसी। एक झटके से बहार ख़िजां में बदल गई। बेटों, पोते-पोतियों के होते हुए भी अकेला हो गया। पत्नी के साथ बिताया एक-एक पल याद आता, दुखी हो जाता। इस दुख में भी सीतो का चेहरा उभरकर सामने आ जाता- टिड्डियों से डरी-सहमी… मेरे साथ सिमटकर बैठी सीतो… करीब से सुर्ख शालू ओढ़े गुजरती सीतो, होंठों पर हल्की मुस्कान… और आंसुओं को छिपाती पलकें।

मैंने इंडिया का एक चक्कर लगाने का मन बना लिया। बेटे भी सोचते कि शायद इससे मेरा दिल बहल जाएगा। मेरे दिल में सीतो को एक झलक देखने की कामना जवान हो गई थी। यह हसरत मेरे साथ ही इंडिया आ गई।

मुझे याद था, वह मेरी बुआ के गांव में ही ब्याही थी। बुआ तो गुज़र गई थी, मैं उसके पुत्र को मिलने के बहाने उस गांव में गया। बातों-बातों में मैंने उससे पूछ लिया, ‘हमारे गांव के मिस्त्रियों की लड़की तुम्हारे गांव में ब्याही थी।’

उसके जवाब ने सीतो के सुर्ख शालू को सफ़ेद कफ़न में बदल दिया। उसने बताया, ‘वह तो कई साल पहले चल बसी थी।’

मेरी आह निकल गई…।

‘वह तड़के जंगल-पानी को ईख के खेत में गई थी। वहां मधुमक्खी का छत्ता लगा हुआ था। मधुमक्खियां उसके पीछे लग गई। उसके पूरे शरीर से चिपट गईं और उसे डंक मारने लगीं। वह चीखती रही, चिल्लाती रही। गांव की ओर भागी, पर मधुमक्खियों से डरता कोई उसके नजदीक न हुआ। बहुत देर बाद एक बंदा धुआं करता उसके करीब गया और जब उसे अस्पताल ले जाया जा रहा था, वह राह में ही…।’

मैं अंदर ही अंदर तीखे दर्द से कराह उठा। सीतो का अफसोस करने लगा। बुआ का पुत्र बता रहा था, ‘जब मधुमक्खियों ने उसको घेर रखा था, वह किसी बब्बी का नाम ले लेकर पुकार रही थी।’

मैं उस पल बुआ के पुत्र के पास बैठा होने के बावजूद मानो उसके पास नहीं बैठा था… मैं तो खेतों में टिड्डियां उड़ाने जा लगा था।

बचपन में मुझे ही ‘बब्बी’ कहकर बुलाया जाता था।

अनुवाद : सुभाष नीरव

Advertisement
×