रतन चंद ‘रत्नेश’
‘मन ही मन शहर के कोलाहल से नजर बचाकर, हर रात सपनों में पहाड़ हो आता हूं।’ रमेश पठानिया की ऐसी ही सहज कविताएं ‘पहाड़ से परे’ में संगृहीत हैं जो शहर में रहने को विवश पहाड़ के लोगों के उद्गारों का प्रतिनिधित्व करती हैं। हिमाचल की सुरम्य वादी कुल्लू में जन्मे कवि, कहानीकार, अनुवादक व बाल-उपन्यासकार रमेश पठानिया वृत्तचित्र निर्माण से भी जुड़े हुए हैं। संग्रह में पहाड़ और इसके परिवेश को शिद्दत से याद किया गया है। ‘अक्सर जब बिन कहे, बहुत कुछ कहना होता है, तब वहीं मिलता हूं, या विपाशा के तट पर, या झरने के पांव में।’
कवि का मानना है ‘पहाड़ में हर मील का पत्थर, यादगार है…, दूरियों, रिश्तों का, कुछ खास लम्हों का।’ इन नॉस्टैल्जिक कविताओं के साथ-साथ आधुनिकता की दौड़ में पर्वतीय परिवेश में हुए परिवर्तन की टीस भी उपजी है। ‘उस गली से गुजरा हूं आज, इकलौता देवदार का पेड़ खड़ा रहता था जहां, वहां अब टेलीकॉम टावर है।’ इस कदर हुए परिवर्तन में स्वाभाविक पीड़ा स्पष्ट झलकती है’पगडंडियां एक दिन अचानक सड़कें बनने लगीं, पेड़ कटने लगे, खड़ेतर में घास नहीं रहा, नदी का रंग पानी बदलने लगा, आसमान कभी झुका, कभी पहाड़ों के सहारे चलने लगा, मैं अचानक नींद से जागा।’
इन कविताओं में कभी खुली आंखों से सपने देखने तो कभी नींद में सपनों से बातें करने का जिक्र कई स्तरों पर उभरा है। ऐसे में शहर में कभी इच्छाओं के बादल घिर आते हैं तो कभी सतरंगी इंद्रधनुष पहाड़ की याद दिलाते हैं। कहना गलत नहीं होगा कि पहाड़ के लोग बड़े शहरों की त्रासदी को अक्सर महसूस करते रहते हैं। ओस की बूंद, बाम्बियों का शहर, धुंध, इंद्रधनुष जैसी कविताओं में इसे देखा जा सकता है। संग्रह में जिंदगी से जुड़ी रोमांटिक कविताएं भी बेहद प्रभावित करती हैं।
पुस्तक : पहाड़ से परे कवि : रमेश पठानिया प्रकाशक : शुभदा बुक्स, साहिबाबाद, उ.प्र. पृष्ठ : 135 मूल्य : रु. 360.