हरि मोहन
महानगरों की भागमभाग से अलग रानीखेत का यह एक पर्यटक आवास गृह है, ‘मोनाल’ नाम से। पहाड़ के एक दुर्लभ पक्षी के नाम पर रखा गया यह नाम शकुन के भीतर देर तक खूबसूरत मोनाल पक्षी की तरह ही दुबका रहा। नाम का यह रहस्य कल अमित ने ही उसे बताया था, जिसके साथ वह यहां आउटिंग के लिए आई है। अमित अभी तक कमरे में ही अलसाया सोया पड़ा है। वह बाहर निकल आई है और आकर पत्थर की बनी बेंच पर बैठ गई है। दूर-दूर तक देखा। …यह छोटा-सा शहर चारों ओर काफी बीच में फैला हुआ है। चीड़ के लम्बे-लम्बे पेड़ आसमान की ओर सिर उठाए खड़े हैं। उनके आस-पास बांज के घने वृक्ष एक जंगल की सृष्टि कर रहे हैं। इसी में कहीं-कहीं बुरांस की झाड़ियां भी हैं। जिन पर कौतूहलवश कुछ रक्तवर्णी फूल झांक रहे हैं। उसकी दृष्टि एक बार फिर समूचे परिदृश्य को अपनी आंखों में लेकर भीतर समेटती है। टीन की छतों का सिलसिला ऊंचाई से देखने पर बड़ा लयहीन लग रहा है। बस लय दिखाई दे रही है तो, इन सबके पार हल्के कोहरे में लिपटी घाटी और घाटी से परे कोहरे की हल्की परत के पार से झांक रही पर्वत श्रेणियों की ऊंचाइयों में। ऊंचाइयां उसे बचपन से ही प्रिय रही हैं। वह इस दृश्य के पार चली गई। अपने अकेलेपन में भी अमित से मिलने और कल तक का सफर ज्यों-का-त्यों याद आने लगता है। एक-एक घटना। एक-एक बिम्ब। जैसे कल की ही बात हो।
***
कैसे एक दिन ऑफिस में वह अचानक मेरे सामने आ खड़ा हुआ था। आकर्षक चेहरा। साफ रंग। लम्बा कद। आंखों पर चश्मा। सुरमई रंग का सूट। सुनहरे रंग की टाई। उसके पहनावे से उसकी अभिरुचि का पता चल रहा था। अच्छी थी। मैं पहचान ही नहीं पाई थी कि वह अजनबी कौन है। ‘बैठिए!’- सामने की कुर्सी पर बैठने का संकेत करते हुए मैंने उसकी ओर प्रश्नवाची दृष्टि से देखा था। मेरे हाथों में उसका भिजवाया विजिटिंग कार्ड था, जिस पर छपा था- डॉ. अमित शर्मा, एम.बी.बी.एस., एम.डी.।
‘नमस्ते!’- उसने अपनत्व की मिठास और हल्की-सी नाटकीय मुद्रा के साथ कहा था।
मुझे उसका इस तरह सहज और अनौपचारिक तरीके से मिलना कुछ अजीब – सा लगा था।
‘जी मैं अमित हूं!’- उसने मुस्कुराकर मेरी आंखों में देखा, और जोड़ा, ‘एक खोई हुई लड़की को ढूंढ़ने इलाहाबाद से आया हूं!’
‘खोई हुई लड़की?’ मैंने मन-ही-मन दोहराया था। प्रकट में धीरे-से इतना ही बोला था, ‘लेकिन वह यहां कहां होगी, और इसमें मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूं?’
‘उसका नाम बबली है…’, उसने मेरे बिना कुछ पूछे ही कहा था और अपने चेहरे पर गम्भीरता लाकर वह नीचे फर्श की ओर देखने लगा था।
‘बबली!’-बहुत दिनों बाद अपने बचपन का नाम सुनकर मैं चौंक गई थी। कुछ और पूछती या कहती कि वह खिलखिलाकर बोला, ‘नहीं पहचाना? बबली, मैं नीटू हूं, नीटू। अमित से तो तुम्हें याद नहीं आया होगा?’
‘कार्ड पर छपा होता नीटू….तो पहचान लेती!’- मैंने उसे न पहचान पाने की झेंप इस परिहास-कथन से ढांपने की कोशिश की थी।
हम दोनों उठकर ऑफिस में एक ओर रखे सोफे पर आकर बैठ गए थे। कॉफी मंगाई थी और साथ बैठकर पी थी।
‘तुम्हें मेरा पता कहां से मिल गया?’- मैंने कॉफी पीते-पीते पूछा था।
‘मन से कोई किसी को ढूंढ़ना चाहे, तो पता भी मिल जाता है।’ कहकर वह मुस्कुराया था। उसने बताया था, ‘एक पत्रिका में तुम्हारी कहानी पढ़ी थी। फोटो भी छपी थी और पता भी। अच्छा लगा पढ़कर और यह देखकर कि अपनी बबली इतनी अच्छी कहानियां लिखती है। हमारे बचपन का इलाहाबाद कहीं-न-कहीं हम लोगों के भीतर बचा हुआ है। तुम्हारी कहानी में भी था।’
वह फेसबुक पर नहीं है। व्हाट्सएप से भी कुछ गिनेचुने लोगों से ही जुड़ी है। तीस वर्ष लम्बे अंतराल के बाद मिले अपने बचपन के साथी से मिलकर और उसके मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर अच्छा लगा था मुझे। अच्छा लगा था मुझे कि नीटू, नहीं डॉक्टर अमित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने में रुचि रखता है। वरना आज लोग पढ़ते ही कहां हैं! साहित्यिक पत्रिकाएं तो और भी कम लोग पढ़ते हैं। उसके मुंह से ‘अपनी बबली’ सुनकर बहुत दिनों बाद अपनत्व का ताप महसूस हुआ था।
‘तुमने कविताएं लिखना छोड़ दिया क्या?’-पूछा।
अचानक मुझे याद आ गया था, जब हम बारहवीं क्लास में पढ़ते थे, तब उसने एक शुभकामना कार्ड के साथ अपनी छोटी-सी कविता भेजी थी। आगरा से। उस कविता के बिम्बों में अपने आपको पाकर खुश हो गई थी मैं। लेकिन तब मैंने उसे कोई उत्तर नहीं भेजा था। चाहते हुए भी। न कार्ड का, न कविता का। इसका मुझे अपराध- बोध भी हो रहा था। फिर उसका न कोई कार्ड आया था, न पत्र।
‘वह तो छूट गई, न जाने कब!’ उसने इतना ही कहा था।
मुझे लगा वह उन दिनों को याद करके उदास हो आया है। पता नहीं मेरे उस समय अनुत्तरित हो जाने से वह आहत था, या कविता लिखना छोड़ देने से। या शायद दोनों बातें आपस में जुड़ी हैं!
बात बदलने के लिए मैंने उसके परिवार की राजी-खुशी पूछी थी।
‘पापा रिटायर हो गए। मम्मी-पापा देहरादून रहते हैं। मैं अलीगढ़। बीवी डाॅक्टर है। दो बच्चे हैं- आठ और दस साल के। …और तुम?’ -कहकर अचानक उसने पूछा था।
‘मैं सिर्फ मैं हूं!’ -मैंने हंसकर जवाब दिया था।
‘यानी अकेली रहती हो?’
‘हां।’
‘मम्मी-पापा?’
‘मम्मी रही नहीं, पापा भैया के साथ मुम्बई में हैं।’
मम्मी का सुनकर वह उदास हो गया था। हम लोग कुछ देर तक पारिवारिक बातें करते रहे थे। कुछ अपने शहर की, कुछ पुराने परिचितों की।
उससे मिलकर अच्छा लगा था। लगा था मैं अकेली नहीं हूं। हम अकेले रहते भले ही हों, हमारा अकेले होना भी सबके साथ है। कहीं-न-कहीं हम अपने समाज से और लोगों से जुड़े रहते हैं। यह जुड़ना अच्छा लगता है। भीतर एक आश्वस्ति देता है।
‘खाना मंगाऊं?’-मैंने पूछा था।
‘नहीं। अभी खाकर आया हूं।’-कहकर उसने अपने आप ही जोड़ा था, ‘अच्छा अब चलूंगा।’ शायद उसने समझ लिया था कि लंच का समय बीत चुका है।
‘फिर कब आओगे?’-पता नहीं क्यों मेरे मुंह से अचानक निकल गया था। अपने ऐसे पूछने पर मैं स्वयं चकित थी।
‘कभी भी। …अब तो आना-जाना लगा रहेगा। तुम्हें तो ढूंढ़ ही लिया है न अब!’ -कहते हुए वह हंसा था। उसकी उस हंसी में बचपन की कोमल धूप थी। मेरा हाथ छूकर वह दरवाजा पार कर गया था। मैं उसे जाते देखती रही थी। एक मोह जैसा हुआ था। चाहा था उसे थोड़ी देर और रोक लूं। कुछ देर हम लोग और बातें करते रहे।
ऐसा क्यों होता है? क्या अतीत हमें वर्तमान से अधिक प्रिय होता है, इसलिए? – तब मैंने यही सोचा था।
शाम को घर लौटी तो एक नई स्फूर्ति मेरे भीतर भरी हुई थी। एक आंतरिक ऊर्जा मिल गई थी जैसे। रोजाना की तरह कपड़े बदलकर, बिस्तर पर बैठकर चाय पी थी और उस दिन की पूरी घटना पर सोचती रही थी। अमित का रूप-रंग कैसा निखरा हुआ है! उस स्वप्न जैसे दृश्य के भीतर से तीस साल पहले का बचपन याद आ गया था। आज इस दो कमरों के घर में हूं। …यह घर बचपन के घरौंदे जैसा ही तो है। सोचा था। …बार-बार रेत का एक घरौंदा नीटू के साथ बनाया करती थी। वह नटखट बन्दर-सा कितना तंग किया करता था मुझे। कभी वह रेत का घरौंदा बनाने में मेरे साथ जुट जाता था, कभी मन आने पर सब कुछ मिटा डालता। मैं रोती, तो वह चिढ़ाता। कभी मन आने पर मुझे चुप कराता और मेरे आंसू पोंछता। इस पर भी साथ के बच्चों में केवल नीटू ही अच्छा लगता था मुझे। और उसे मैं। धीरे-धीरे दोनों बड़े होते रहे। कुछ ही वर्षों पता नहीं कब और कैसे हमारी सहजता बदलने लगी थी। हम दोनों की आंखों में असहजता और संकोच उभरने लगे थे। तब तक नीटू के पापा का ट्रांसफर आगरा हो गया था। वह खुश था। मैं उदास। बचपन का एक साथी दूर चला गया था। उसे जाना ही था। कुछ दिन यादें आती रहीं। फिर धीरे-धीरे वे यादें किताबों और घर के कामकाज में खो गईं। कुछ पत्र आए थे। फिर वे भी बन्द हो गए।
‘लेकिन आज यह सब इतना क्यों याद आ रहा है? कहीं…?’ -उस दिन मैंने अपने आपसे पूछा था। ‘हट… अन्दर का शब्द अन्दर ही छटपटाकर रह गया था। मैंने अपने आपको बरज दिया था।
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ठीक एक सप्ताह बाद वह फिर आया था। मुझे लगा मैं उसी की प्रतीक्षा में थी। वह आज पहले से अधिक सुदर्शन लग रहा था। उस दिन अनजाने में उसने मेरी हथेली पर एक अदृश्य बीज रख दिया था। मुझे अनुभव हुआ था कि यह बीज वही है, जो नीटू ने बचपन में मेरे रेत के घरौंदे के पास मिट्टी में दबा दिया था। उस बीज को मिट्टी में दबाते हुए उसने रहस्यमय किन्तु भोली मुस्कान के साथ कहा था, ‘यह स्वर्ग की बेल का बीज है बबली। इस पर सोने के फूल खिलेंगे। हमारा घर सोने के फूलों से भर जाएगा!’
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मैं जब घर लौटी, तो तीस साल लम्बी दूरी के पार उस मिट्टी के बीच दबा हुआ वह बीज मेरी मुट्ठी में था। मैं असमंजस में थी, इस बीज का क्या करूं? मैंने अपने दिल पर पत्थर रखकर उस बीज को अपनी खिड़की के बाहर फेंक दिया था लेकिन उसका दिया मित्रता का कार्ड सहेजकर खिड़की के पास रख दिया था। यह खिड़की मेरे सिरहाने खुलती थी।
मैं कुछ दिनों तक यूं ही असमंजस में घिरी रही थी और अब तक हुए को भुलाने की कोशिश करती रही थी लेकिन एक दिन मैंने चोरी-छिपे खिड़की से बाहर झांककर देखा। खिड़की के बाहर एक पौधा उगने लगा था। अवश्य वह पौधा उस बीज से जन्मा था, जो अमित ने अनजाने में मेरी हथेली पर रख दिया था और जिसे मैं अपनी मुट्ठी में बन्द करके घर ले आई थी और न चाहते हुए भी मैंने उसे खिड़की से बाहर फेंक दिया था। वह पौधा इतना मासूम, नन्हा और सुन्दर था कि उसे उखाड़कर फेंकने का मन नहीं हुआ। धीरे-धीरे उस अनाम से पौधे के प्रति मेरे मन में मोह बढ़ता गया। इसी मोह में कैद एक दिन मैं उस नन्हें पौधे को बाहर से उखाड़कर अपने कमरे में ले आई। उसे मैंने एक गमले में रोप दिया। मेरी अन्तरंग मित्र निशा ने उस गमले में पानी डालना शुरू कर दिया था। वह भी मेरी तरह अकेली है। इसलिए अक्सर मेरे साथ ही रुक जाती है। जब भी आती, उस पौधे की चर्चा करती। धीरे-धीरे समय के कन्धे पर चढ़कर उस नन्हे पौधे ने बेल का रूप लेना शुरू कर दिया। गमले की वह बेल बड़ी होती चली गई। धीरे-धीरे उसने खिड़की के बाहर झांककर आसमान की ऊंचाइयां नापनी शुरू कर दी।
***
और इन्हीं दिनों में से किसी एक दिन। ठीक सत्रह मई के दिन अमित आया था। लम्बे अन्तराल के बाद। मुझे भी अपने आॅफिस में ज्यादा काम नहीं था। उसे भी फुर्सत थी।
‘मैं आया ही तुम्हारे लिए हूं।’- उसने कहा था।
हम दोनों खूब देर तक बातें करते रहे थे। मैं उसे घर ले आई थी।
मेरे इस घर में वह पहली बार आया था। बहुत खुश हुआ था। देर तक मेरी अभिरुचियों की प्रशंसा करता रहा था। वह यह देखकर बहुत खुश हुआ था कि उसका दिया कार्ड मैंने बहुत सहेजकर अपने सिरहाने की खिड़की के पास रखा हुआ है। पता नहीं उसने कैसे इस अदृश्य बेल को भी देख लिया था, जो पल्लवित होकर खिड़की के बाहर झांक रही थी और आकाश छूने की कोशिश कर रही थी।
मैंने बड़े चाव से उसकी रुचि का खाना बनाया था। खाना खाकर हम लोग देर रात तक बातें करते रहे थे और फिर अपने-अपने बिस्तर में चले गए थे।
कमरे में नीले रंग का नाइट लैम्प जला हुआ था। उसकी नीली रोशनी में नहाते हुए हम दोनों सपनों में उतरते चले गए थे। धीरे-धीरे मेरी नींद-भरी आंखों ने एक सपना देखा। बहुत ही सुखद। बहुत ही निजी। ऐसा सपना मैं वर्षों से देखना चाहती थी।
मैंने देखा था मैं अपनी खिड़की की उस बेल पर चढ़ रही हूं। मैं ऊपर चढ़ती चली जा रही हूं। खूब ऊपर। ऊपर-ऊपर और ऊपर। बेल का सिरा चन्द्रमा तक पहुंच गया है। बेल के सहारे मैं भी। चन्द्रमा इतनी दूर है कि मैं चाहूं, तो उसकी सतह पर उतर सकती हूं। सिर्फ थोड़ी सी हिम्मत करने और एक छलांग लगाने की जरूरत है। मैंने नीचे धरती की ओर देखा। भय से मेरे पैर कांपने लगे हैं। थोड़ी हिचक के बाद मैंने हिम्मत की और मैं चन्द्रमा पर कूद गई। चन्द्रमा की भूरी पथरीली जमीन पर मेरे नंगे पांव टिक नहीं पा रहे थे। तभी पास से अमित प्रकट हुआ और उसने मुझे अच्छी तरह कसकर थाम लिया था। चन्द्रमा अपने पूरे प्रकाश में दीप्त है। उसकी रोशनी में हम दोनों लेटे हैं। फिसलन है। मेरे नंगे पांव अभी भी जम नहीं पा रहे हैं। अमित ने मुझे कसकर बांध लिया है। भय और आनन्द में मैंने अपनी आंखें भींच ली हैं। अब हम दोनों चन्द्रमा से नीचे उतर रहे हैं। पसीने से लथपथ मैं अमित से अलग हुई और अपने घर लौट आई।
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उस दिन मैं देर तक सोती रही थी। अमित पहले जाग गया था और मेरे लिए चाय बना लाया था। उसने धीरे से छूकर मुझे जगाया था। ‘चाय!…’ -कहकर वह मुस्कुराया था। मैं शरमाकर खिड़की के पार देखने लगी थी। खिड़की के पार सूरज उग रहा था। खिड़की की स्वर्गिक बेल सुबह की हवा में झूम रही थी। बेल पर एक ही रात में सोने के ढेर सारे फूल खिल गए थे। फूलों के गुच्छे मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे। उस दिन का सूरज मुझे नया-नया लगा था। अनुभव हुआ था कि मैं अमित के भीतर से उदित हो रही हूं।
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‘कहां खो गई शकुन?’ -शकुन के कन्धे को छूकर अमित ने पुकारा। पता नहीं वह कब आकर उसके पास खड़ा हो गया था। इतनी दूर निकल गई वह, पुकार सुनकर, अपने में लौट आई। उसे लगा वह पत्थर की बेंच पर बैठी नहीं, रखी है। उसे अमित ने उठाया। उठाया नहीं, सहेजा। सहेजकर कमरे में ले आया। वह आंखें मींच लेती है। अमित के स्पर्श और उसके होंठों से झरती पुष्प-पंखुरियों के जादू से उसके भीतर धीरे-धीरे दिल्ली के अपने घर की वह अदृश्य स्वर्गिक बेल उगने लगी। वे दोनों उस बेल पर चढ़ने लगे। ऊपर-ऊपर और ऊपर। खूब ऊपर चढ़कर उन्होंने चन्द्रमा पर छलांग लगा दी। चन्द्रमा पर फिसलन है। शकुन के नंगे पांव चन्द्रमा की चिकनी सतह पर टिक नहीं पा रहे। वह अमित को कसकर थाम लेती है।
कमरे के बाहर जंगल में ठंडी हवा बह रही है। हवा ने चीड़ के कानों में कुछ कहा। चीड़ ने बांज के पेड़ों से कहा। बांज के पेड़ों ने बुरांस से कहा। बुरांस पर बैठी पीले रंग की एक नन्ही चिड़िया चुप-चुप-चुप-चुप-चुप… कहती हुई जंगल में कहीं उड़ गई।