राजस्थान के सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से उपजा एक संकट कानून के गलियारों से होता हुआ एक सांविधानिक संकट की ओर बढ़ता दिख रहा है। बात बहुत सीधी थी—सत्तारूढ़ दल के एक युवा नेता को लगा कि उसे उसका देय नहीं मिल रहा है और वह अपने समर्थकों के साथ रूठ कर बैठ गया। अब यह साफ हो चुका है कि उसके पास उतना समर्थन है नहीं, जितना कुछ कर पाने के लिए अपेक्षित है, पर उसने अभी भी अपने पत्ते खोले नहीं हैं। वह कांग्रेस पार्टी में ही रहने का दावा कर रहा है, भारतीय जनता पार्टी में न जाने की घोषणा कर चुका है। इसके बावजूद उसकी नाराज़गी का आखिर मतलब क्या है?
स्थिति स्पष्ट करने के लिए और अपना वर्चस्व सिद्ध करने के लिए राजस्थान के मुख्यमंत्री विधानसभा की बैठक बुलाकर अपना बहुमत सिद्ध करना चाहते हैं। इसके लिए राज्य के राज्यपाल से वे अब तक कई बार आग्रह कर चुके हैं कि विधानसभा का अधिवेशन आहूत करें। पर राज्यपाल हां या न कहने के बजाय अधिवेशन को यथासंभव टालने की कोशिश कर रहे हैं। मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक गुहार लगा चुके हैं। इस प्रकार, राज्य के हित में जहां यह जरूरी है कि राजस्थान का यह गतिरोध समाप्त हो, वहीं एक बार फिर देश में राज्यपालों की भूमिका को लेकर सवाल उठ खड़े हुए हैं।
हमारे संविधान में स्पष्ट लिखा गया है कि जिस प्रकार केंद्र में राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करता है, उसी तरह राज्यों में राज्यपाल भी राज्य के मंत्रिमंडल की सलाह पर ही काम करेंगे। राज्यपाल के स्वविवेक की बात कही गई है संविधान में, पर यह नितांत असाधारण स्थितियों के लिए है। जहां तक विधानसभा का सत्र बुलाने की बात है, यह तय करना मंत्रिमंडल का स्पष्ट अधिकार है। राज्यपाल को इस संदर्भ में, सिर्फ वही करना होता है जो मंत्रिमंडल कहे। हां वह परामर्श अवश्य दे सकता है, पर यह परामर्श शर्त नहीं हो सकता। लेकिन, राजस्थान के राज्यपाल शर्तें रख रहे हैं। इसलिए, उनके मंतव्य पर सवाल उठ रहे हैं।
और यह पहली बार नहीं है कि जब देश में राज्यपालों की भूमिका और मंतव्य पर सवाल उठे हैं। एक लंबा इतिहास रहा है राज्यपालों के अनुचित हस्तक्षेप का। आखिर ऐसा क्यों होता है? इस छोटे-से सवाल का जवाब लंबा हो सकता है, पर संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि विवाद के केंद्र में राज्यपालों की नियुक्ति की नीयत है। नियुक्ति करने वाली केंद्र सरकार की नीयत। केंद्र और राज्यों के बीच राज्यपाल एक पुल का भी काम करते हैं। केंद्र की सरकारें अपनी सुविधा और अपने हितों को देखते हुए ऐसे व्यक्तियों को पुल बनाकर बिठाती हैं जो मुख्यतः केंद्र के हितों की रक्षा का काम करें। इसी नीयत के चलते राज्यपालों की भूमिका अक्सर संदेह के घेरों में आती रही है।
इस भूमिका के संदर्भ में संविधान सभा में भी सवाल उठे थे। सवाल राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर भी थे। इस खतरे की ओर भी इशारा किया गया था कि राज्यपालों से अनुचित काम लिया जा सकता है। पर अंततः यह मान लिया गया कि कुल मिलाकर राज्यपाल एक ऐसी सांविधानिक व्यवस्था है, जिसमें संबंधित व्यक्ति अपने पद और गरिमा के अनुकूल काम करेंगे। पर, दुर्भाग्य से, ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं जब राज्यपालों ने केंद्र में सरकार वाले सत्तारूढ़ दल के हितों और अपनी स्वयं की दलीय आस्था को तरजीह दी। संविधान की रक्षा की शपथ तो सब लेते हैं, पर उस शपथ का पालन अक्सर नहीं होता। अक्सर हमारे राज्यपाल केंद्र सरकार के इशारों पर काम करते पाये गये हैं- अर्थात उनके हितों की रक्षा में ज्यादा रुचि लेते हैं, जिन्होंने उन्हें इस पद पर बिठाया है। यहां यह भी कहा जाना चाहिए कि राज्यपाल तब तक ही अपने पद पर बना रह सकता है जब तक राष्ट्रपति अर्थात केंद्र सरकार की अनुकंपा उस पर बनी रहे। यह अनुकंपा बनी रहे, यह भी एक कारण हो सकता है राज्यपालों के विवादास्पद निर्णयों का।
इन विवादास्पद निर्णयों की शुरुआत बहुत पहले से हो गयी थी—सत्ता में चाहे कांग्रेस रही हो, भाजपा या कोई और दल, सब पर राज्यपालों से अनुचित काम करवाने के आरोप लगते रहे हैं। जब भी जो भी दल विपक्ष में होता है, वह इस संदर्भ में संविधान और जनतंत्र की हत्या का आरोप भी लगाता ही है। पहला ऐसा विवाद 1959 में हुआ था, जब पंडित नेहरू के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने केरल की नम्बूदिरीपाद-सरकार को बर्खास्त किया था। ऐसा राज्यपाल की सिफारिश पर ही हो सकता है। और राज्यपालों के लिए केंद्र के इशारों पर काम करना शायद एक विवशता है। फिर 1967 में पश्चिम बंगाल में सरकार को गिराने के लिए राज्यपाल का उपयोग किया गया। इसके बाद तो जैसे इस बात की परंपरा-सी चल पड़ी। केंद्र में जिस भी पार्टी का शासन होता था, राज्यपालों पर आरोप लगते रहे हैं कि वे, उस पार्टी के इशारों पर काम करते हैं। अक्सर यह काम राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के नाम पर होता है और आधार राज्य-विशेष संविधान के अनुरूप काम न हो पाने का लगाया जाता है। संविधान की धारा 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है और अक्सर इसका उद्देश्य केंद्र में शासन करने वाली पार्टी का हित साधना होता है। जवाहरलाल नेहरू का शासन-काल एक तरह से अपवाद माना जा सकता है, पर उसके बाद तो अक्सर इस धारा की तलवार राज्यों पर लटकती-गिरती रही है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में 39 बार अलग-अलग राज्यों में राष्ट्रपति शासन घोषित किया गया था। फिर अस्सी के दशक में लगातार राज्यपालों की मदद से काम होते रहे। और यह सिलसिला आज भी जारी है। तब भी राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठाए जाते थे, आज भी उठ रहे हैं।
पिछले तीन-चार सालों में ही हमने अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि में राज्यपालों की भूमिका को आरोपों के घेरे में घिरा देखा है। नवीनतम उदाहरण राजस्थान के राज्यपाल का है। यह जानकर हैरानी होना स्वाभाविक है कि कुछ अरसा पहले मध्य प्रदेश में राज्यपाल निर्वाचित सरकार को कह रहे थे कि वे जल्दी से जल्दी विश्वास-मत प्राप्त करें और अब राजस्थान के राज्यपाल के किये-करे का आशय यह है कि विश्वास-मत की प्रक्रिया जितनी धीमी हो, उतना अच्छा है!
‘संविधान और जनतंत्र’ के लिए चलाया जा रहा कांग्रेस पार्टी का अभियान भले ही राजनीतिक उद्देश्यों से चलाया जा रहा हो, पर किसी भी सांविधनिक पद पर बैठे व्यक्ति पर यदि संविधान-विरुद्ध आचरण का आरोप लगता है तो यह गंभीर चिंता की बात होनी चाहिए। समय आ गया है कि देश में इन प्रवृत्तियों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई हो। राज्यपालों की नियुक्ति, उन्हें हटाने की प्रक्रिया, उनकी योग्यता-अहर्ता पर फिर से विचार किये जाने की आवश्यकता है। राज्यपाल का पद न राजनीति से निवृत्त होने वालों के लिए होना चाहिए और न ही किसी की अनुकंपा का प्रसाद। यह बहुत ही महत्वपूर्ण वैधानिक पद है। इसकी गरिमा की रक्षा होनी चाहिए। यह सवाल जनतंत्र की रक्षा से जुड़ा है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
स्वागत राफेल
शांति के लिए भी शक्ति जरूरी
भारतीय सेनाओं में अत्याधुनिक अस्त्रों-शस्त्रों की आपूर्ति एक सामान्य प्रक्रिया है। मगर भारतीय वायुसेना में 4.5वीं पीढ़ी के अत्याधुनिक विमान राफेल का शामिल होना इस मायने में खास है क्योंकि भारत चीन के साथ सीमा रक्षा में उलझा हुआ है। देश के सामने बड़ी चुनौती है और दुनिया में फिलहाल इस विमान की टक्कर का कोई दूसरा विमान नहीं है। हर संकट के समय में काम आने वाले मित्र देश फ्रांस ने चुनौती के वक्त राफेल की पहली खेप की आपूर्ति की है। ऐसी मदद उसने कारगिल युद्ध के दौरान मिराज लड़ाकू विमान को लेकर भी की थी। इस बेजोड़ लड़ाकू जहाज को एक साल से फ्रांस में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे भारतीय पायलट पूरी तैयारी के साथ भारतीय धरती पर लाये हैं। फिलहाल वे इतने सक्षम हैं कि राफेल की तैनाती तनावपूर्ण क्षेत्र लद्दाख में हो सकती है। इन विमानों के आगमन को लेकर देश में इतना उत्साह था कि लोग महामारी के संकट को भूल लड़ाकू जहाजों के आगमन की प्रतीक्षा करते रहे। यह उत्साह सिर्फ अंबाला में ही नहीं था जहां इन लड़ाकू विमानों को उतरना था, बल्कि सारे देश में था। महत्वपूर्ण इतना कि इनकी अगवानी के लिये खुद वायुसेनाध्यक्ष अंबाला में मौजूद थे। फ्रांस से लंबा सफर तय करके जैसे ही इन पांचों राफेल विमानों ने भारतीय सीमा में प्रवेश किया, दो सुखोई लड़ाकू विमान इनका साथ देने लगे। समय की संवेदनशीलता को देखते हुए सरकार ने इस आयोजन को मीिडया से दूर रखा और अंबाला के कुछ इलाकों में धारा 144 लगाई गई तथा छतों से फोटो खींचने तक पर रोक लगाई गयी। इन लड़ाकू विमानों के आगमन को लेकर सार्वजनिक कार्यक्रम अगस्त के दूसरे हफ्ते में किये जाने की बात कही जा रही है। राफेल विमान के सुर्खियों में होने की वजह जहां एक ओर चीन से चल रहा सीमा विवाद है तो वहीं पिछले आम चुनाव में कांग्रेस द्वारा इसे चुनावी मुद्दा बनाया जाना भी है। बहरहाल, अब राफेल भारतीय वायुसेना का हिस्सा है।
विगत में राफेल की कीमत और संख्या को लेकर विवाद उछाले जाते रहे हैं। लेकिन एक हकीकत यह है कि वायुसेना को रणनीतिक व सामरिक दृष्टि से आधुनिक हथियारों की सख्त जरूरत थी। यह भी एक तथ्य है कि सुखोई विमानों के भारतीय वायुसेना में शामिल होने के दो दशक बाद उसे राफेल के रूप में अत्याधुनिक लड़ाकू जहाज मिले हैं। यह भी एक हकीकत है कि अगले वर्ष के अंत तक मिलने वाले कुल 36 राफेल भारतीय वायुसेना की जरूरतों की पूर्ति पूरी तरह नहीं करते। सरकार को लगातार बदलती तकनीक के दौर में कुछ बड़े कदम वायुसेना की जरूरतों की पूर्ति के लिए उठाने होंगे। यह जानते हुए कि शक्ति के अहंकार में चूर चीन को जवाब देने के लिये भारतीय सेनाओं का आधुनिकीकरण समय की मांग है। निस्संदेह सीमा विवाद को लेकर बातचीत जारी है, मगर जब हम शक्तिशाली होते हैं, तभी हमारी बात सुनी भी जाती है। यानी शक्ति से ही शांति का मार्ग प्रशस्त होता है। यह बात जरूर अखरती है कि राफेल के साथ इसकी तकनीक हस्तांतरण के अधिकार हमें नहीं मिले हैं। बेहतर होता कि हम इसकी तकनीक हासिल करके देश में ही इनका निर्माण करते। लेकिन सरकार के प्रयासों के बावजूद फ्रांसीसी विमान निर्माता कंपनी इसके लिये तैयार नहीं हुई। वैसे भारत व फ्रांस के विश्वास के रिश्तों में हथियारों के आधुनिकीकरण व रखरखाव के मुद्दे पर कभी कोई परेशानी नहीं आई। यह ठीक है कि भारत में आज छोटे लड़ाकू विमानों के निर्माण की दिशा में सार्थक प्रयास हुए हैं, लेकिन हमें लगातार बदलती तकनीकों के साथ अाधुनिक विमान निर्माण की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। तभी आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य पूरे हो सकते हैं। इसके बावजूद भारत को फ्रांस की विमान निर्माता कंपनी पर टेक्नालॉजी ट्रांसफर के लिये दबाव बनाना चाहिए । हालांकि, कंपनी ने भारत को इस बात की छूट दी है कि इस आधुनिक विमान में हम अपनी मिसाइलें लगा सकते हैं।