रिज़वान अंसारी
ईद-उल-जुहा (बकरीद) मुसलमानों का पवित्र त्योहार है। अरबी कैलेंडर के आख़िरी महीने (जिल-हिज्जा) में मनाए जाने वाली बकरीद त्याग व बलिदान की याद दिलाने वाला और उसका महत्व समझाने वाला महान पर्व है। हर साल हज की समाप्ति के दिन बकरीद मनाई जाती है। सऊदी अरब जाकर हज करने वाले हर हाजी को एक कुर्बानी देना अनिवार्य होता है।
ऐसा माना जाता है कि अल्लाह ने दुनिया में लगभग सवा लाख पैग़ंबर भेजे। हज़रत इब्राहीम उनमें से एक थे। उन्हें अपने बेटे इस्माइल से बहुत मोहब्बत थी। लेकिन, अल्लाह ने उनसे उनके प्यारे बेटे की ही कुर्बानी मांग ली। हज़रत इब्राहीम भी मान गए और इस्माइल की गर्दन पर छुरी चला दी, लेकिन उसको जरा-सी भी खरोंच नहीं आई। अल्लाह ने तब अपने फरिश्ते जिब्राइल को भेजकर हज़रत इब्राहीम को संदेश भेजा कि यह एक परीक्षा थी जिसमें वह सफल हो गये। लेकिन, पुत्र इस्माइल के बदले एक दुंबा (भेड़ की एक किस्म) की कुर्बानी कुबूल की गई। संक्षेप में कही गयी इस कहानी में व्यापक संदेश समाये हुए हैं। इसके ज़रिये पूरी दुनिया को त्याग और बलिदान को अपने जीवन में समाहित करने का संदेश दिया गया है।
दरअसल, इस्लाम में बलिदान को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। ईश्वर की राह में अपनी सबसे प्यारी चीज़ को कुर्बान करना उत्तम कार्य माना गया है। सामान्यत: हम अपने जीवन में भी देखते हैं कि जो चीज़ हमें प्यारी होती है, उससे दूर होना हमें स्वीकार नहीं होता। हम अमूमन वह चीज़ दूसरों को देना पसंद करते हैं, जो हमारे किसी काम की नहीं होती। लेकिन, इस्लाम ने इस पर्व के जरिये यह संदेश दिया कि असली कुर्बानी उसकी है, जो हमें सबसे प्यारा हो। ईश्वर की राह में उन चीज़ों को ख़र्चने का संदेश दिया गया है, जिसके चले जाने पर हमें दर्द का अहसास हो। यहां ईश्वर की राह में ख़र्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से है। पैग़ंबर हज़रत इब्राहीम ने कुर्बानी का जो उदाहरण दुनिया के सामने रखा था, उसे आज भी परंपरागत रूप से याद किये जाने के पीछे के दर्शनशास्त्र को समझने की जरूरत है। दरअसल, यह पर्व हमें हर साल यह याद दिलाता है कि जीवन में हमें हमेशा बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। पैग़ंबर मोहम्मद साहब का भी संदेश है कि जिस परिवार, समाज, शहर या मुल्क में व्यक्ति रहता है, उसकी हिफाज़त के लिए उसे हर कुर्बानी देने को तैयार रहना चाहिए। ईद-उल-फितर की तरह ईद-उल-जुहा में भी गरीबों और मज़लूमों का खास ख़्याल रखा जाता है। इसी मकसद से कुर्बानी के सामान के तीन हिस्से किए जाते हैं। एक हिस्सा खुद के लिए रखा जाता है, बाकी दो हिस्से रिश्तेदारों और जरूरतमंदों में बांटने के लिए होते हैं।
इस बार की बकरीद कई मायनों में अनूठी होने वाली है। कोरोना वायरस के कारण उपजी महामारी ने पर्व-त्योहारों को मनाने का तरीका ही बदल डाला है। इस साल ईद-उल-फितर भी बड़ी सादगी से मनाई गयी थी। लॉकडाउन के कारण लोगों ने घर में ही नमाज़ अदा की। हालांकि, अब कई राज्यों से लॉकडाउन हटा लिया गया है, लेकिन कोरोना संक्रमण के खतरे को देखते हुए बकरीद की नमाज़ भी घरों में ही अदा करना मुनासिब रहेगा। दरअसल, इस पर्व के संदेश को अपने जीवन में उतारने का यह सबसे माकूल वक्त है। सब्र और कुर्बानी के पैगाम से सीखते हुए हमें विश्व कल्याण के लिए अपनी इच्छाओं की कुर्बानी देने की जरूरत है। बड़ी तादाद में हमारा इकट्ठा होना संक्रमण के खतरे को और बढ़ा सकता है। लिहाजा, हमें अपने देशवासियों की सुरक्षा का ख़्याल रखते हुए किसी भी भीड़ का हिस्सा बनने से बचना होगा। हमें सबके साथ ईदगाह और मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने और सबसे गले मिलने की खु़शियों को त्यागना होगा।
इससे इतर, हम जानते हैं कि इस्लाम प्रेम और भाईचारे का समर्थन करने वाला धर्म है। हम जानते हैं कि इस वैश्विक आपदा के समय कई परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। ऐसे जरूरतमंदों की हम मदद कर उनको सशक्त कर सकते हैं। ये कुछ ऐसे कार्य हैं जो इस पर्व के मूल संदेश को अमलीजामा पहनाने के सबूत हैं। उम्मीद है कि हम लोग इस पर खरे उतरेंगे।