अनिल गोयल
जाओ तुम भी, ओ सूखे गुलाब
यादों की उन्हीं कतरनों के साथ
जो बिखरी हैं फर्श पर
होकर टुकड़े-टुकड़े
बहुत साथ निभाया तुमने–
पूरे पच्चीस साल!
याद नहीं आता
कैसे बीत गई यह चौथाई सदी
लेकिन एक-एक लम्हा याद है
तुम्हारे संग बिताये उन दिनों का
जब तुम्हारे रंग और खुशबू के आगोश में
मैं मदहोश रहा करता था
खुद से दूर, तुम्हारे करीब!
फिर कब, कैसे, क्यों तुम से दूर जा बैठा?
और बैठे-बिठाये ही बीत गई
यह चौथाई सदी…
एक लम्बी, गहरी नींद,
एक गहन खुमारी…
यह चलती अभी
न जाने कितने बरस और…
अगर न आ जाते तुम अचानक मेरे सामने
पत्नी ने मकान की सफेदी करवाई।
और बच्चों ने
अलमारी की सफाई की
गुहार लगाई थी
तभी अलमारी के एक कोने में
पुराने कागजों के नीचे
सेलोफेन के कागज़ में लिपटे
सुर्ख लाल रिबन से बंधे
आज भी मुस्कुरा रहे थे तुम!
तुम बहुत जीवट वाले हो भाई
मेरे प्रेम की यादों से भी अधिक जीवट वाले!
मैं तो भूल गया था नून-तेल-लकड़ी में,
प्रोमोशन और कैरियर में,
सेमिनार और रिसर्च में…
कि मेरे पास कुछ यादें भी हैं
तुम्हारी ही तरह
दिल के एक कोने में दबी हुई.
भुला बैठा था मैं उन्हें तुम्हारी ही तरह…
तुम्हें मुस्कुराते देख कर
मेरी वे बिसरी यादें भी मुस्कुरा उठीं
और याद दिला गईं
कॉलेज के वे गलियारे
जो सूने हो गए थे तुम्हारे बिना
वह मूक, खाली इंडिया गेट
और वह बोट क्लब की शान्त झील…
कुछ बगुले अब भी
इंडिया गेट के ऊपर उड़ान भरते हैं
लेकिन वे बेरंग सफ़ेद हैं…
एक कफ़न की तरह
खो गए हैं रंग उनके
जैसे खो चुके हैं रंग
मेरी यादों, मेरी हसरतों,
मेरे सपनों के
और बैठा हूं मैं आज एक बार फिर
तेरी यादों का सफेद कफ़न ओढ़ कर…
सच कहूं,
बहुत सुन्दर लगी थी तू उस दिन
जब सफेद चूड़ीदार पाजामे और कुरते में
सफेद मलमल की
पंजाबी फुलकारी वाली चुनरी लहराती
अपनी वो घनी काली घटाएं मुझ पर वारती
आई थी तू इंडिया गेट पर मुझसे मिलने…
तब पता न था कि यह सफेद रंग
तेरी यादों का कफ़न बन कर
लपेट लेगा यूं मुझे एक दिन
अपनी सफेद बांहों में…