सुरेश सेठ
दुनिया पर यह कैसी गाज गिरी है कि पिछले बरस के पूर्वार्द्ध से शुरू हुआ कोरोना प्रकोप विदा लेने का नाम ही नहीं ले रहा। पिछले वर्षान्त तक उसका दबाव कम हुआ और प्रतिबंध घटते वातावरण में देश का उद्यमी, व्यवसायी, स्टार्टअप निवेशक और श्रमशील किसान खुली हवा में दम साध कर फिर से अपने क्षेत्र की टूट-फूट को संवारने में लगना चाहता था। भारत को आत्मनिर्भर बना देने के नारे फिर हवा में गूंजने लगे। भारत को उन्नति के स्वत: स्फूर्त बना देना है, आने वाले साल में, के संकल्प दोहराये जाने लगे जबकि इस बरस के कोरोना प्रकोप के आर्थिक प्रतिबंधों के कारण देश का सकल घरेलू उत्पादन 23 प्रतिशत तक घट गया और आर्थिक विकास दर शून्य से नीचे नौ प्रतिशत तक चली गयी। लेकिन इस वर्ष 2021 में नया भारत अंगड़ाई ले पाता, रिकार्डतोड़ बेकारी दूर करने के लिए संसाधन जुटाने और महंगाई पर नियंत्रण का संकल्प दोहराता, बदलते वक्त ने कोरोना वायरस के रूप बदलकर लौट आने की सूचना दे दी।
यह कोरोना की दूसरी लहर थी, जो कोरोना निरोधी टीका अभियान को पछाड़ कर चली आयी। इसका वायरस अधिक संक्रामक और अधिक मारक था। देश की सरकार की कम प्रतिरोधक तैयारी, चिकित्सा व्यवस्था का चरमराता ढांचा और शारीरिक दूरी के लिए लापरवाह होना देश ने इसे और अधिक मारक और संक्रामक बना गया। लाशों के ढेरों की त्रासदी विकास यात्रा के सब सपनों को झुठलाने लगी और पिछले बरस आम आदमी का जीवन जो असामान्य होता चला गया था, उसे प्रतिबंध-रहित बना सामान्य बना देने की कोशिशें की गयीं।
मई-जून के शीर्ष संक्रामक महीनों के बाद कोरोना लहर की यह दूसरी उछाल भी दबने लगी, लेकिन उसने पूरी विदा ले ली हो, ऐसा भी नहीं है। अभी भी प्रतिदिन चालीस हजार के आसपास संक्रमण के मामले देश में हो रहे हैं और सैकड़ों मौतें हो जाती हैं। इसमें संदेह नहीं कि इस महामारी से स्वस्थ होने वाले लोगों का औसत भी सत्तानवें प्रतिशत से ऊपर चला गया और निरोधी टीकों के अवरोध के कारण अब लोगों के अस्पताल जाने या मौतें कम हो गयी हैं।
लेकिन यह लहर पूरी तरह विदा नहीं हुई कि संसार भर से खबरें आने लगीं कि धूर्त कोरोना वायरस ने फिर अपना रंग बदल लिया। इसकी तीसरी लहर ने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को अपनी गिरफ्त में ले लिया। भारत इस तीसरी लहर से बचना चाहता था, लेकिन केरल, गुजरात और महाराष्ट्र की बढ़ती संक्रमण दर कोरोना का पूर्वोत्तर राज्यों की ओर सरकना फिर आम आदमी की जान सांसत में डालने लगा।
टीका अभियान रिकार्ड गति से चलाया जा रहा है। छह-सात महीनों में ही 80 करोड़ लोगों का टीकाकरण हो गया। लेकिन यहां भी आंकड़ों में खोट है। पचहत्तर करोड़ लोगों को केवल एक खुराक टीका लगा है, टीके की दोनों खुराक लगवा लेने वालों की संख्या बीस प्रतिशत तक ही सिमटी है। इसका अर्थ यह कि देश की तीन-चौथाई आबादी अभी भी कोरोना महामारी से पूरी तरह सुरक्षित नहीं। इसके बाद अब तीसरी बूस्टर खुराक की बातें होने लगीं। टीका लगने की दूसरी खुराक की अवधि पर प्रश्न उठे। अभी कह दिया है कि विदेशी चाहें तो उन्हें 28 दिन के बाद टीका लगा दो। फिर भारतीयों को ही 84 दिन बाद क्यों? क्या ये सब निर्णय फार्मा कंपनियों की उत्पादन क्षमता को देखकर तो नहीं हो रहे?
फिर यह प्रश्न उठा कि जब सूचना है कि कोरोना की तीसरी लहर नौनिहालों को घेरेगी तो उनके लिए अभी तक टीका लगना शुरू क्यों नहीं किया जा सका? चिकित्सा विशेषज्ञ आशंका जता रहे हैं कि कोरोना की तीसरी लहर का वायरस इतना विकट हो सकता है कि शायद इस टीकाकरण के नियंत्रण में न आये। फिर एक प्रश्न यह भी उठ रहा है कि वर्तमान टीकाकरण अभियान तो कोरोना विरोधी अभियान है। उन टीकों की आमद कब होगी, उनका अभियान कब चलेगा जो इस कोरोना प्रकोप को सिरे से ही धर दबोचे। इस रोग का उन्मूलन कर दे, न केवल संक्रमित संभावितों की निरोध क्षमता को बढ़ा कर ही संतोष करके बैठ जाये।
स्पष्ट है कि जब आम जनता के मन में ऐसे प्रश्न उठने लगते हैं तो उसका अर्थ यही है कि लोगों का सरकार के इस महामारी से निपटने के तरीकों के प्रति असंतोष बढ़ा है। यह सही है कि कोरोना से मुकाबले के लिए ब्रिटेन, अमेरिका और रूस के साथ भारत ने भी रिकार्ड समय में कोरोना निरोधी टीके बना लिये हैं। भारत ने तो बहुत त्वरित गति से इस टीकाकरण अिभयान को चलाया भी। लेकिन जब तक पूरी तरह हर वायरस से निपटने वाला कोरोना उन्मूलन टीका आविष्कृत नहीं होता, तब तक लोग पूरी तरह से सुरक्षित अनुभव नहीं करेंगे, और सरकार भी उन्हें खुले ढंग से जीने की इजाजत नहीं दे सकती।
डेढ़ साल से अधिक हो गया, देश में शिक्षा का वातावरण निस्पन्द पड़ा है। स्मार्टफोनों की सहायता से ऑनलाइन शिक्षा का विकल्प देने की कोशिश अवश्य की गयी है लेकिन नयी शिक्षा नीति के सर्वेक्षक बताते हैं कि ऑफलाइन शिक्षा के बिना यह अधूरी है। केवल ऑनलाइन शिक्षा ने पचहत्तर प्रतिशत शहरी और ग्रामीण छात्रों को शिक्षा से उदासीन कर दिया है, यह आंकड़ा चौंकाने वाला है। अब जब ऑफलाइन शिक्षा की अनिवार्यता जानकर स्कूल और कालेज खोले जा रहे हैं तो उनका वातावरण कोरोना की सहम से दबा हुआ है और पूरी तरह से उपादेय नहीं है।
यही हाल इस कोरोना काल के लिए उत्पादकों और निवेशकों के लिए बाजारों में उपभोक्ता मांग का भी हुआ है। कोरोना के अनिश्चय के कारण यह मांग सामने नहीं आ रही। इस बीच उपभोक्ता का व्यवहार भी बदल गया है। वह सीधी मांग के स्थान पर डिजिटल मांग, अर्थात् क्रेडिट कार्ड और ईएमआई पर आधारित मांग पेश कर रहा है। व्यापार का ढंग बदल गया और बिक्री के सटीक अनुमान भी लगाने कठिन हो रहे हैं। इसलिए कोरोना अवधि में अपनायी गयी उदार साख नीति और दो आर्थिक बूस्टर भी अपेक्षित निवेश पैदा नहीं कर सके और न ही रोजगार अवसरों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
अब इस विकट स्थिति का एक ही समाधान नजर आता है कि आमजन, किसान, मजदूर और उत्पादक इस असामान्य जीवन को सामान्य जानकर अपना लें। शारीरिक दूरी रखना और मास्क पहनना हमारे दैनिक जीवन का अनिवार्य अंग बन जाये। टीकों की आपूर्ति और टीकाकरण की गति में कोई कोताही होनी नहीं चाहिये क्योंकि इस समय कोरोना के प्रकोप से बचाव के लिए यही हमारी एकमात्र आशा है।
लेखक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।