राजेश रामचंद्रन
चौंकाने वाली बात है कि कश्मीर में मज़हब आधारित हत्याएं आए दिन होने लगी हैं। वहां के अल्पसंख्यकों को नियोजित ढंग से निशाना बनाया जा रहा है। इन करतूतों को पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकी संगठनों के स्वयंभू ‘स्वतंत्रता सेनानियों’ का एक अन्य कारनामा ठहराकर, कम आंकने की बेवकूफी करना ठीक नहीं। जो भी है, ये कट्टरवादियों द्वारा मजहबी नफरत के आधार पर की जाने वाली हत्याएं हैं और इनमें कश्मीर के लोग अपरोक्ष रूप से ठीक उसी तरह शामिल हैं जैसे कि ग्रेटर नोएडा, अलवर या अन्य जगहों के लोग उस वक्त रहे, जब तथाकथित गो-रक्षक शक के आधार पर अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे थे। लेकिन गो-रक्षा के नाम पर हुई प्रत्येक हत्या के बाद जिस किस्म के रोष भरे संदेश देशभर में रहे हैं -खासकर वाम उदारवादी, बुद्धिजीवी और शिक्षाविदों के-वहीं जब बात कश्मीर में बहुसंख्यक समुदाय से संबंधित बेकसूर लोगों के मारे जाने की आए , तो गुस्से का इज़हार लगभग नदारद है, मानो मरना उनकी नियति थी, क्योंकि वे वहां के मुख्य धर्म से संबंधित नहीं थे, और फिर भी जमे हुए थे।
धर्म-निरपेक्ष भारत ने तमाम किस्म की कट्टरवादी ज्यादतियां सहन की हैं। इसमें हत्याओं सहित बहुसंख्यकों के एक वर्ग की जातीय सफाई और विधर्मी पत्रकारों को कश्मीर से खदेड़ना आदि कृत्य शामिल हैं। किंतु यदि इन नियोजित हत्याओं को भी रफा-दफा कर दिया गया,तब कोई मध्यमार्गी धर्म-निपरेक्ष आधार नहीं बचता, परिणाम स्वरूप शेष बचेगा तो केवल नफरत की भाषा और हिंसा और प्रतिहिंसा करने वाले दोनों ओर के कट्टर तत्व। ये हत्याएं हो नहीं सकतीं जब तक कि स्थानीय लोग विदेशी लड़ाकों या कश्मीरी हत्यारों को घाटी में बाहर के लोगों की शिनाख्त न करवाएं। हत्याओं की जिम्मेवारी लेते वक्त आतंकी गुट इन्हें ‘अंदरूनी-सूचना आधारित अभियान’ बताते हैं, असल में यह काम करने का नया तरीका है।
जिस ‘अंदरूनी सूचना’ का इशारा हत्यारे करते हैं वह ‘अंदरवालों’ का काम है फिर चाहे यह स्कूल होेें जिनमें सिख महिला सुपिंदर कौर प्रिंसिपल थीं या पंडित दीपक चंद या दलित रजनी बाला पढ़ाया करते थे या फिर वह सरकारी दफ्तर जहां पर राहुल भट्ट काम करते थे या फिर बैंक की वह ब्रांच जिसका प्रबंधन विजय कुमार किया करते थे। जिस तरह ‘अंदरूनी सूचना’ की मदद से हत्यारे अपने काम को बिना गलती किए अंजाम दे पाते हैं, उससे अंगुली मृतकों के साथी शिक्षकों, या छात्रों, सहयोगियों या स्थानीय लोगों की ओर उठती है। यहां उन सभी पर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगाना आसान है, क्या पता हों भी। किंतु लोग-बाग ज्यादातर हालात का शिकार होते हैं और वह बन जाते हंै जो बदलते संदर्भों की प्रतिक्रियावश उन्हें बनना पड़ता है। फिलहाल बदले हुए संदर्भ वाला मंज़र यह है कि स्थानीय जनता में पूरी तरह अलगाववादी भावना भर चुकी है और वह संपूर्ण रूप से भारतीय राष्ट्र के खिलाफ हो चुकी है।
अनुच्छेद 370 हटाना, लंबे कर्फ्यू में घरों में कैद होना, स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व को अवैध और बदनाम कर देना, राजनीतिक गतिविधियों का निलंबन, परिसीमन प्रक्रिया और विधान सभा का चुनाव अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना- इनके नतीजे में स्थानीय लोगों का मोहभंग हुआ है, जिन्हें लग गया है कि अपनी जिंदगी के लिए जरूरी राज-काज व्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी की कोई भूमिका नहीं रही। यह कोई संयोग नहीं है कि नियोजित हत्याएं ऐसे वक्त होने लगी हैं जब कश्मीर में सैलानियों की चहल-पहल है और एक लंबे अर्से के बाद कमाई वाला सीजन लगा है। तथापि एक भी सैलानी को नुकसान नहीं पहुंचाया गया, न ही किया जाएगा, क्योंकि जो कोई भी नियोजित हत्याएं कर रहे हैं उन्हें हिंदू-हिंदू के बीच फर्क अच्छी तरह पता है, एक जो कमाई का जरिया है और एक जिसे सरकार ने वहां स्थापित किया है। इसलिए कट्टरवादी हत्यारे तक की नफरत नपी-तुली है, जो पर्यटन से होने वाले नफे का विश्लेषण और सरकार की मुखालफत करने की जरूरत के मुताबिक तय की जाती है।
नफरत के इस किस्म के नपे-तुले और सुपरिभाषित इज़हार से निबटने में स्थानीय लोगों से राबता बनाकर और यह सुनिश्चित करके कि प्रशासन में उनकी भूमिका महत्ती है, कोई हल निकल सकता है। पर्यटन में व्यवधान इसलिए नहीं पड़ रहा क्योंकि सारा धंधा स्थानीय कश्मीरी चला रहे हैं – अलबत्ता प्रशासनिक व्यवस्था या सरकारी कर्मचारियों की जिंदगी को धमकाया गया है क्योंकि स्थानीय लोगों की राजकीय कार्यों में हिस्सेदारी नहीं है। एक सांप्रदायिकता पर दूसरी सांप्रदायिकता लाद देना स्वयं सांप्रदायिकता से कम नहीं है। यदि अल्पसंख्यक फिरकापरस्ती को बहुसंख्यक फिरकापरस्ती से निबटाने की सोचेंगे तब हमारा सामना पूरी तरह कट्टर बन चुके उस कश्मीरी समाज से होगा जहां हरेक शरीफ बाहरी संदिग्ध होगा, ठीक वैसे ही, जिस तरह बाकी देश में बहुसंख्यक मानसिकता में अल्प संख्यक विशेष शक का पात्र बन गए हैं। कश्मीर में मरे प्रत्येक अल्पसंख्यक की एवज में कट्टरवादी अपनी सूची में शेष भारत में मारे गए अपने दो हम-बिरादरों का नाम गिनवा रहे हैं।
राजनीतिक प्रक्रिया इस गड़बड़झाले का एकमात्र उत्तर है न कि सैन्य पैंतरेबाजी। इन सांप्रदायिक हत्याओं के खिलाफ प्रदर्शनों को सेना के जरिए हवा दिलवाना, सिर्फ इन निर्दोषों की शहादत की बेइज्जती करना है। सेना का काम राजनीतिक प्रदर्शन प्रायोजित करवाना नहीं बल्कि सीमा रखवाली और जब कभी बुलाया जाए तो प्रशासन की मदद करना है। यह मुख्यधारा की नीति के लिए घातक होगा कि सेना अधिकारी सादी वर्दी पहनकर प्रदर्शन संचालित करें, फिर चाहे यह चार चिनार हो या चांदनी चौक। सशस्त्र बलों को राजनीतिक कार्यपालिका का मातहत रखकर ही भारत एक सफल लोकतंत्र बना रह सकता है। पाकिस्तान की आईएसआई या चीन की पीएलए की तरह, जहां उनकी सेना विचारधारा विशेष से ग्रसित बल है, हम भारत की व्यावसायिक सेना को उनका प्रतिबिम्ब बनाकर उनसे नहीं जीत सकते।
कश्मीर में शांति के लिए राजनीतिक प्रक्रिया की ओर मुड़ने की जरूरत है, इसके लिए वहां ऐसा विशेषज्ञ मध्यस्थ और मेधावी प्रशासक हो जिसके पास अनुभव एवं प्रौढ़ता हो, जो वास्तव में धर्म-निरपेक्ष और असंतुष्ट लोगों के प्रति संवेदनशील हो, न कि वैसा कोई जिसे केवल हिंदी भाषी क्षेत्र में व्याप्त राजनीतिक पैंतरेबाजी करनी आती हो। जिन लोगों ने पिछले सालों के दौरान कश्मीर में यथास्थिति बनाए रखी, उनकी आलोचना करना सरल है। जबकि एक समस्याग्रस्त क्षेत्र में यथा स्थिति कायम रखना भी अपेक्षाकृत शांति होती है, अल्प ही सही,किंतु जिसमें सौहार्द्रता एवं जीवन का पूर्वानुमान वाला अवयव हो। पर वह सब अब खो गया है। अब हरेक अध्यापक, सरकारी बाबू या बैंककर्मी हत्यारों को ‘अंदरूनी सूचना’ देने वाला कार्यकारी मुखबिर है। जब हर शख्स मुखबिरी पर उतर आए- चाहे सांप्रदायिक हत्यारों के लिए या सरकार के वास्ते – तब उस समाज की आत्मा पतित हो जाती है। हालांकि ऐसा करने के पीछे वे तर्क देते हैं कि उस सरकार की मनमानी भुगतनी पड़ रही है जो उनसे कटी हुई, सांप्रदायिक और गैर-निर्वाचित है।
एक कट्टरवादी नीति समाज में हर किसी को कट्टर बना डालती है। केरल में जिस तरह इस्लामिस्ट ऑर्गेनाइजेशन पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित रैली में हिंदुओं और ईसाइयों को मार डालने के भद्दे नारों में भी ‘आज़ादी’ का संदर्भ आया, इससे केवल यही सिद्ध होता है कि जितना सख्त बहुसंख्यकों का कट्टरपना होता जाएगा उतनी ही कड़ी प्रतिक्रिया अलपसंख्यक वर्ग की आएगी। कश्मीर से चलकर केरल पहुंचे कट्टरवाद में फर्क यही आया है कि वहां इसको वामपंथ ने मुख्यधारा का रूप दे दिया है, यहां तक कि विगत में आतंकी गतिविधियों के संदिग्ध अब्दुल नासिर मदनी के साथ राजनीतिक गठबंधन किया। अब बहुसंख्यक कट्टरवादियों के अलावा वह जिन्होंने ‘आज़ादी’ के नारे को वैधता दी, उन्हें अब जोर से ध्यान देने की जरूरत है : इस्लामवादियों द्वारा की गई सांप्रदायिक हत्याओं का सामान्यीकरण करने में उनकी अपनी हरकतों का कितना योगदान रहा? यही वह चीज़ है, जो कश्मीर में ‘आज़ादी’ की मांग के खतरे को महसूस करने की जरूरत बताती है।
लेखक प्रधान संपादक हैं।