क्षमा शर्मा
अक्तूबर का महीना आधा बीत चुका है। हवा में अब हल्की सी ठंड बढ़ चली है। सर्दी का आगमन बस होने को है। सवेरे की पहली किरण- घर, आंगन, चौखट, दरवाजों, फूलों, पत्तियों, बगीचों, खिड़कियों पर अब कुछ देर से दस्तक देती है, लेकिन जब तक सर्दी आए तब तक शरद ऋतु में आने वाली नवरात्रि को धूमधाम से मना लिया जाए। हालांकि इस बार दुर्गा पूजा पितृपक्ष के एक माह बाद शुरू हो रही है।
अकसर पितृपक्ष के फौरन बाद नवरात्रि शुरू हो जाती हैं। अपने पूर्वजों की याद, उनके जाने के शोक के बाद उत्सव का माहौल भी जरूरी है। अगर जीवन भर शोक रहे तो जीवन कैसे चले। पितृपक्ष में तो हर तरह की खरीदारी से दूर रहे थे, इसीलिए नवरात्रि के आने पर बाजार सज जाते हैं। तरह-तरह के समान से भर जाते हैं। बहुत से समानों और उत्पादों पर भारी छूट के विज्ञापन भी दिखाई देते हैं। जगह-जगह पंडाल लगाकर दुर्गा प्रतिमाएं सजाई जाती हैं। कारीगर रात-दिन इन्हें बनाते हैं तभी ये इन पंडालों में सज पाती हैं। मंदिरों में तो देवी का उत्सव होता ही है। इस लेखिका ने कोलकाता में चलने वाला उत्सव भी देखा है। वहां की भीड़ भरी सड़कों को देखकर लगता है कि जैसे पूरा शहर सड़कों पर उमड़ आया हो। किसी होटल या दुकान में आसानी से जगह नहीं मिलती। वहां इसे धार्मिक के अलावा सांस्कृतिक उत्सव भी माना जाता है। इसलिए प्रायः धार्मिक दीवारें भी टूट जाती हैं। कोलकाता के लोग बहुत गर्व से बताते हैं कि इस उत्सव में समाज के हर धर्म और वर्ग के लोग उत्साह से भाग लेते हैं। जगह-जगह , पूजा पंडाल सजे होते हैं। एक बार बांग्लाभाषी एक ईसाई सहेली को इस उत्सव में भाग लेते देखा था। वह सिंदूर और बिंदी भी लगाती थीं। उसने यही कहा था कि यह हमारी सांस्कृतिक पहचान है। विरासत है। हालांकि पिछले दिनों जब तृणमूल की एक मुसलमान महिला सांसद ने दुर्गा का रूप धरा, तो उन्हें भारी आलोचना अपने ही धर्म के लोगों की झेलनी पड़ी। धर्म की ये दीवारें टूटना हर समाज के लिए अच्छा है, मगर बहुत से निहित स्वार्थ ऐसा नहीं चाहते।
इस बार कोरोना के कारण लोगों ने एक-दूसरे से दूरी का पाठ पढ़ा है। कहीं भीड़-भाड़ ज्यादा न हो इसके लिए लोगों को लगातार प्रेरित किया जा रहा है। इसलिए थोड़ी शंका-आशंका के बीच तैयारियां चलीं।
अपने देश में दुर्गा पूजा का मतलब स्त्री की पूजा भी है। बेटी की अहमियत का गान भी है। घर-घर में लड़कियों का स्वागत है। उनके पांवों को पखारना है। उनकी पसंद का भोजन उन्हें खिलाना है। पूरी, पकवान तरह-तरह की मिठाइयों से घर-घर महकता है। सुस्वादु भोजन के अलावा यह माता स्वरूप लड़कियों को दान-दक्षिणा का अवसर भी है। सब चाहते हैं कि उनके घर में सबसे पहले लड़कियां आएं, जिससे कि सबसे पहले उनके घर में पेट भर भोजन कर सकें। सप्तमी, अष्टमी, नवमी को बच्चियों को इतने घरों से बुलावा आता है, इतनी जगह भोजन परोसा जाता है कि कितना खाएं, कैसे खाएं। इसलिए भोजन उन्हें पैक करके भी दे दिया जाता है। एक बार एक बच्ची की मां ने हंसते हुए कहा था कि इन दिनों उनके घर में इतना खाना आता है कि उसे फ्रिज में रख दिया जाता है। पूरा परिवार कई दिन तक इसका आनंद लेता है।
लड़कियों की इस तरह से पूजा, दुर्गा पूजा के रूप में स्त्री की वीरता का गान, शायद ही किसी दूसरे देश में दिखता हो। हो सकता है कि पूर्वजों की इसे इस तरह से मनाने की यही मंशा रही हो कि वे स्त्रियां जो इस सृष्टि को चलाने वाली हैं, घर-परिवार की धुरी हैं, जिनके बिना घर, घर नहीं माना जाता आखिर उनके सम्मान, उनके महत्व के लिए भी कोई अवसर जरूर होना चाहिए। ऐसा अवसर, जहां पुरुष भी स्त्रियों के पांव छूते, उनसे आशीर्वाद लेते देखे जाएं। वैसे भी समाज तभी तो चल सकता है, जब हम उसमें हर एक की पहचान करें, उसके महत्व को पहचानें। आखिर स्त्री से ज्यादा महत्वपूर्ण इस समाज , इस दुनिया को चलाने वाला दूसरा और कौन है। स्त्री शक्ति की पूजा इसीलिए जरूरी है।
सम्मान का यह संस्कार भूलते क्यों हैं?
यह देखकर सचमुच अफसोस होता है कि जो समाज साल में दो बार नवरात्रि मनाकर स्त्रियों के महत्व का बखान करता है, बाद में उसी समाज के कुछ लोग भूल क्यों जाते हैं। तभी तो स्त्रियां तरह-तरह के अपराधों का शिकार होती हैं। दहेज की बलि चढ़ती हैं। भ्रूण हत्या के कारण कितनी लड़कियां जन्मती हीं नहीं। घरेलू हिंसा झेलती हैं और दुष्कर्म का शिकार होती हैं। इन दिनों जब हाथरस कांड सुर्खियों में है तो क्या इस बार दुर्गा पूजा के अवसर पर पीछे मुड़कर यह सोचना नहीं चाहिए कि लड़कियों की असली पूजा और महत्व तभी बढ़ सकता है, जब पूरा समाज मिलकर उनकी सुरक्षा के बारे में सोचे। उनके प्रति किसी तरह का अपराध न हो, इसे सुनिश्चित करे।
जिस देवी काली को हम इन दिनों पूजेंगे लेकिन अगर उन्हीं जैसी रंग की कोई लड़की होगी, तो विवाह के बाजार में कोई उसे पसंद करने वाला न होगा। विश्वास न हो तो अखबारों में छपने वाले वैवाहिक विज्ञापन देख लीजिए। गोरी दुल्हन सभी को चाहिए। एक तरफ शिव, पार्वती की जोड़ी की पूजा करेंगे, चाहेंगे कि जिस तरह पार्वती की मनोकामना पूरी हुई, उन्हें शिव जैसा भोला भंडारी पति मिला, वैसा ही पति हर एक लड़की को मिले, लेकिन पार्वती जैसे सांवले रंग वाली नहीं, गोरी पार्वती पत्नी और बहू के रूप में चाहिए। सांवली के साथ सलोनी जोड़ना, लेकिन विवाह के बाजार में उसे रिजेक्ट करना, सांवली पार्वती, काली, सांवले राम-कृष्ण को भगवान मानना और सांवले स्त्री-पुरुषों को काला, कलूटा, या कल्लो मसानी कहर नवाजना, ऐसा आखिर हमारे समाज में क्यों है। इन्हीं सांवले रूप को निखारने के लिए ही गोरेपन की क्रीम बाजारों में हैं। दक्षिण भारतीय राज्यों में इनकी बिक्री बहुत ज्यादा है। सिर्फ स्त्रियां ही नहीं, पुरुष भी इसे बड़ी संख्या में खरीदते हैं। गोरेपन के इस मिथ की आलोचना भी खूब होती रही है। इस पर नये कानून बनाने की तैयारी भी हो चुकी है। ऐसे ही उत्पादों को अपना नाम बदलना पड़ा है। असली दुर्गा पूजा तो तभी है, जब हम नौ दिन के इस उत्सव से सबक लेकर पूरे साल अपनी स्त्रियों के सम्मान को सुरक्षित करें। क्योंकि वे ही हमारे परिवारों, घरों, दफ्तरों, खेत, खलिहान, बाजारों को चलाने वाली असली देवियां हैं। उनके बिना यह दुनिया कितनी बेनूर और बदरंग है। तो आइए नवरात्रि मानएं और अपनी स्त्रियों को बताएं कि तुम हो, मां हो, बहन हो, पत्नी हो, बेटी हो, मित्र हो, तो हम हैं। यह समाज है, यह सृष्टि है। एक तरफ साल में दो बार नवरात्रि मनाना, लड़कियों को घर बुलाकर तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान परोसना और दूसरी तरफ कभी रंग के आधार पर, कभी लिंग के आधार पर उनका अपमान करना, उनके खात्मे के बारे में सोचना, ऐसा क्यों?
सबकुछ निराशाजनक ही नहीं है
वक्त के साथ बहुत कुछ बदल भी रहा है। मध्यवर्गीय परिवारों में लड़के-लड़कियों का भेद कम हो रहा है। अकसर अब इन परिवारों में यह भेद देखने को नहीं मिलता कि लड़के नामी गिरामी स्कूलों में पढ़ते हों और लड़कियां कहीं और। न ही यह, कि लड़के की तो हर इच्छा पूरी की जाए और लड़की को दाने-दाने को तरसाया जाए। लड़कियों को बराबरी का दर्जा मिला है, तो वे बराबरी से कहीं अधिक करके दिखा रही हैं। आखिर यों ही तो नहीं हैं कि हर परीक्षा में, हर कम्पटीटिव इम्तिहान में लड़कियां सफलता के झंडे गाड़ रही हैं। वे उन क्षेत्रों की तरफ भी तेजी से आगे बढ़ रही हैं, जिन्हें कल तक पुरुषों का क्षेत्र माना जाता था।
बहुत पहले एक परिचित की एक लड़की ने पायलेट बनना चाहा था तो उसे तरह-तरह के डर घरवालों ने ही दिखाए थे, लेकिन लड़की अपनी जिद पर अड़ी रही और उसने पायलेट बनकर दिखाया। इसी तरह रिश्तेदारी में एक लड़की विदेश पढ़ने जाना चाहती थी। लड़की पढ़ने में होशियार थी। अमेरिका की एक नामी युनिवर्सिटी में उसका दाखिला हो गया था, वह भी वजीफे के साथ। लेकिन घर वाले कह रहे थे कि वह तो घर से अकेली कहीं हिन्दुस्तान में ही नहीं गई। अमेरिका में कैसे रहेगी। भला हो लड़की की दादी का। उन्होंने कहा-जाने दो उसे। वह कोई मेरी तरह की नहीं कि घर के भीतर जवानी में आई थी और यहीं रहकर बूढ़ी हो गई। लड़की गई। आज वह वहां प्रोफेसर है। उसने अपनी दोनों बहनों को भी वहां बुलाकर उच्च शिक्षा दिलवाई और सबका भविष्य बना दिया। ये ही तो असल दुर्गा हैं। शक्ति स्वरूपा और जिसे कहते हैं कि एक लड़की आगे बढ़े, तो लड़कियों की पूरी शृंखला को राह मिले। जिसे उड़ान कहते हैं, उसके लिए उन पिंजरों से ही तो आजादी चाहिए जो बिना बात, तरह-तरह के डर दिखाकर आजादी नहीं देने देते। असली नवरात्रि, दुर्गापूजा वही है कि हम अपने समाज में उपस्थित स्त्री शक्ति को पहचानें। जिस तरह से देवी को देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति सौंपी थी, पूरा परिवार और समाज स्त्रियों को वही शक्ति सौंपे।
दुर्गा पूजा के नजारे यहां भी, वहां भी
बेशक इस बार कोरोना के कारण दुर्गा पूजा के पंडाल उस तरह से नहीं लगते दिख रहे हैं, जैसे अब तक लगते आये थे, लेकिन इससे पहले इस दौर की छटा ही निराली होती थी। विदेशों में जहां भी भारतीय समुदाय रहता है वहां अधिकांश जगहों पर दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन किया जाता है। बंगाली एसोसिएशन हर साल विदेशों में भी नवरात्रि का भव्य आयोजन करता है। रंगारंग कार्यक्रमों के लिए कई जगह फिल्मी सितारों को बुलाया जाता है। उत्तर प्रदेश में बलिया के रसड़ा स्थान पर नवरात्रि के अवसर पर अलग-अलग चीजों से दुर्गा की प्रतिमा बनाई जाती है। कभी मोती से, कभी मटर की दाल और राजमा से, कभी धूप से, तो कभी थर्मोकोल से।
मान्यताएं और देवियां
महिषासुर का दुर्गा ने नौ दिन के संग्राम के बाद दसवें दिन वध किया था, इसलिए दुर्गा पूजा मनाते हैं। दूसरी मान्यता यह है कि राम ने रावण पर आक्रमण करने से पहले देवी की आराधना की थी और विजय प्राप्त की थी। सभी जानते हैं कि हम क्रमवार जिन देवियों की पूजा करते हैं, उनके स्वरूप इस तरह से हैं- शैलपुत्री, ब्रम्हचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।