राजवंती मान
मनोज सिंह द्वारा लिखित समीक्षाधीन पुस्तक ‘मैं आर्यपुत्र हूं’ अपने अस्तित्व और अस्मिता के साथ-साथ समग्र समाज को साथ लेकर चलने का आह्वान करती है। यह समाज की व्याख्या जातीय आधार पर नहीं अपितु मन-वचन-कर्म संस्कार की शुद्धता के आधार पर करती है। संवाद की शैली में लिखी गई इस पुस्तक में नायक खुद आर्य है और आर्यपुत्र भी है। 17 अध्यायों में अनुक्रमिक इस पुस्तक के पहले अध्याय ‘मैं और मेरे आर्यपुत्र’ में लेखक कहता है कि आर्य कोई ‘रेस’ नहीं बल्कि यह उनकी कल्पना है जो आर्यों को बाहरी और आक्रमणकारी दिखाना चाहते हैं। आर्याव्रत गंगा से सिंधु तथा हिमालय से विंध्या तक फैला पूरा भूखंड वह भूमि है जहां छह ऋतुयें, नदियां, खनिज, मैदान, रेगिस्तान, वन सब कुछ है । उपजाऊ मिट्टी है जहां मानव सभ्यता का उन्नत स्वरूप मिलता है।
मनोज सिंह रेखांकित करते हैं कि जब पश्चिम हिमयुग में था तब यहां मानव सभ्यता की ठोस बुनियाद रखी जा चुकी थी। ‘सरस्वती नदी सभ्यता का कालखंड’ अध्याय में वे कहते हैं कि इसका संबंध सीधे-सीधे वेदों से है। उनके अनुसार आदि संस्कृति सरस्वती के कालखंड में विकसित हुई और इसी के तट पर वेदों की रचना हुई। आर्यों का अस्तित्व सभ्यता के समानांतर चलता रहा। उनके अनुसार वैदिक और सिंधु घाटी सभ्यता एक ही है। आर्य आक्रमण का झूठ और मिथक प्रचार को वे सोची-समझी साजिश मानते हैं और अपने तर्क के समर्थन में कहते हैं जिस समाज के पास संस्कृत जैसी सशक्त भाषा हो, वेद जैसा महान ग्रंथ हो वह अपनी मातृभूमि छोड़कर दूसरी भूमि पर नहीं जाएगा। वे अग्नि की खोज, आखेटक से संग्राहक की ओर, पशुपालन और कृषि क्रांति की ओर बढ़ चले थे। आर्यों के आंतरिक संघर्ष, प्रभाव विस्तार, कृषि क्रांति, अर्थव्यवस्था, जीवन-व्यवस्था, समाज-व्यवस्था, शासन-व्यवस्था, वेद, दर्शन, अध्यात्म, धर्म, आस्था अर्थात् सभ्य संस्कृति के सभी अंगों-उपांगों पर विस्तार से लिखते हैं।
अपनी जड़ों के सन्दर्भ खोजने और प्रमाणित करने के लिए मनोज सिंह आदि स्रोतों का रुख करते हैं। उनके अध्ययन का आधार मुख्यत: वेद, उपनिषद, पुराण हैं, जिनके अनेक चिन्ह यथा आर्यों का प्रतीक स्वास्तिक, आस्था-विश्वास कर्मकांड, कमंडल, हाथी आदि जो ऋग्वेद में मौजूद हैं। वह आज भी आर्यजन में मिलते हैं।
कुछ अंग्रेज-यूरोपियन विद्वानों और सुर मिलाते भारतीय विद्वानों ने जानबूझकर ‘आर्यन प्रवाह सिद्धांत’ को सही साबित कर दिया। जेम्स मिल, मैकाले और विंसेंट स्मिथ द्वारा भारत के बारे में गढ़ी गई नकारात्मक छवियों को ध्वस्त करती आर्थर लेवेलिन बाशम की पुस्तक ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ भारत के प्राचीन इतिहास का वि–औपनिवेशिकरण करती है। इसमें भारतीयों द्वारा विश्व को दिए गए सांस्कृतिक अवदान की चर्चा है।
हरियाणा के राखीगढ़ी से प्राप्त कंकाल, जिसके डीएनए से उसके महिला होने की संभावना अधिक है, उसकी आनुवंशिकी का 11 अन्य व्यक्तियों का डीएनए के साथ मिलान किया गया जो ईरान और तुर्कमेनिस्तान जगहों पर पाए गए थे। इससे निष्कर्ष निकाला गया है कि सिन्धु सभ्यता के लोग उन क्षेत्रों तक जाकर व्यापार करते थे। डेविड रिच और उसकी टीम के अनुसार ये यहां से गये हुए प्रवासी थे। आदि सन्दर्भों से प्रथम सभ्यता का विवेचन करती यह पुस्तक उस चिरकालिक बहस पर अपना पक्ष मजबूती से रखती है।
पुस्तक : मैं आर्यपुत्र हूं लेखक : मनोज सिंह प्रकाशक : प्रभात पेपरबैक्स, नयी दिल्ली पृष्ठ : 304 मूल्य : रु. 300.